मंगलवार, 31 दिसंबर 2013

बाबा जी का ठुल्लु

बाबा जी का ठुल्लु
देखा नहीं ,जाना नहीं
हँसते हंसाते बना गया
हम सबको उल्लू। .
वाह ! बाबा जी का ठुल्लु !
भोली भाली जनता को
लूट के ले गए नेता जो
मिलता नहीं कहीं उन्हें
पानी भर का चुल्लू
बाबा जी का ठुल्लु !
सर्दी ठिठुराने को आयी
बिजली बिल ने चपत लगायी
ढूंढ ढूँढ कर थक गये हम
मिला नहीं कहीं --
कम्बल कुल्लू।
बाबा जी का ठुल्लु !
मित्र हमारे जितने प्यारे
आँखें फाड़े हमें निहारें
दूर दूर से सैन करें सब
घर में मिलते ताला मुल्लू
बाबा जी का ठुल्लु !
जितने तेल लगाये सारे
उड़ गए लम्बे बाल हमारे
चांद चाँद सा चमक रहा है
अब इस पर मारें बच्चे टिल्लू
वाह ! बाबा जी का ठुल्लु !............. अरविन्द





सुनो !

सुनो !
अंजुरी में अब भर तो लो
आंखड़ियों में धर तो लो।
कब तक खड़ा रहूँ द्वारे पर
अब अपना तो कर तो लो।
मुझे सदा बेगाना माना है
अपनों को अपना जाना है
दो फूल चढ़ा दें देहली पर
कुछ लोटा जल दे जाएँ जो
कुछ मीठी मीठी बातों से
तेरे गीतों को गा जाएँ जो
क्या वही अपने होते हैं ?
जो आँखे भर तकते रहते हैं।
मैं गीत न कोई गा सकता
झोली भर फूल न ला सकता
जगती का सब कुछ जूठा है
उच्छिस्ट नहीं मैं दे सकता।
मैं राह की चाहे धूल सही
बिखरा हुआ कोई फूल सही
देखा चाहूं तेरी दरियादिली
शबनम के इस कतरे को
चूम के दरिया कर तो लो
अंजुरी में अब भर तो लो।
बड़े शौक से प्रभु बन बैठे हो
बड़े शौक से सजदा सुनते हो
खुद खुदा बने बैठे हो प्यारे
मुस्का के अपना कर तो लो
अंजुरी में अब भर तो लो। ............. अरविन्द

सोमवार, 30 दिसंबर 2013

अरे ! यह साल भी बीता
अरे यह साल भी बीत।
समय तो नापता ,ले
अपने हाथ में फीता    .
अरे ! यह साल भी बीता।

उठो ! अब जाग जाओ ,
खोलो आँख तुम ,मूंदे द्वार खोलो।
नयी किरण संग संकल्प के
नव संसार को खोलो।
हिलाओ विचार का सागर
उठे कोई नयी लहर आकर
खोले रुद्ध कपाट प्रभाकर
पाएं सभी शांति सुधाकर।
न गिनो तुम बीते हुए पल ,घंटे।
न देखो तुम विगत दिन ,मास के टंटे
उठो स्वागत करो ,आगत वर्ष के
उत्थान के ,उत्कर्ष के विमर्श भरे धंधे।
बीतता हो दिन ,न बीते आदमीयत ये
बीत जाएँ मास ,न बीते आत्मीयता ये
शुभ संकल्प के शुभ क्षण न बीतें
जगे आत्म सभी का ,जगे परमात्म भी
मिटे द्वैत का दुःख ,भेद कारक ही।
आओ स्वागत करें नव रश्मि का ,
नव वर्ष का ,आगत सुबह का।
बीत गया जो ,बीता  सो बीता …………अरविन्द .          





शुक्रवार, 20 दिसंबर 2013

साधना के मंदिर

             न काल देश का पता  ,न दयाल देश का पता
                                थोथी वाणी व्याख्या में पूरे सिध्दहस्त हैं।
              परमात्म तो बोले नहीं ,न आत्म ही है बोलता
                                 साधना के मंदिर में वे बैठे रिक्तहस्त हैं।
               त्रिकुटी को वेधा नहीं ,हृदय ग्रंथि छेदी नहीं
                                   आँख अधमुंदी झूठे तप में वे मस्त हैं।
                शून्य को न जानते , न देखा दसवां द्वार
                                    चरण पुजवाते स्वयं ,पुरे भ्रष्ट चित हैं।
                            .........................
   2 . कोई कहे मंदिरों में जाओ बांटो दाल भात
                   कोई कहे ग्रन्थ समक्ष् माथे को टेक दो।
         कोई कहे शुरू करो रोना उसे पाने हेतु
                    कोई कहे तीर्थों में बसो ,नहाओ डूब मरो।
          कोई कहे ब्रह्म तो है दसवें द्वार बैठा
                     कोई कहे तिल भीतर ब्रह्म प्रसार लखो।
           देखा नहीं किसी ने ,न ज्ञान हुआ आप
                      भ्रम के ललाट पर ब्रह्म का तिलक धरो।
                    .........................
3 .  कोई कहे जप करो तोते सा रटो नाम
              सुमिरनी ले हाथ काम सब निकाम करो।
      रूप नहीं जाना न अरूप गुण धाम प्यारे
               वृत्ति को सुधारा नहीं पंचाग्नि वास करो।
       मन में अनेक लास ,उमंग और कामनाएं
               सब कहें त्यागो इन्हें शांति सुख धाम वरो।
       सकाम, निष्काम ,अकाम सब प्यारे उसे
               सहज हो सहजता से सहज को आराध वरो।
               ………………………
4 .  गुरु तो वही जिसने खुद जप तप किया
               एकान्त में बैठ निष्काम हो के जाना है।
       अंतर्गत आराधा उसे अन्तर्गत पाया उसे
                बाहर के जगत में अनुभव को बखाना है।
        पोथियों को त्यागा छोड़े कर्म काण्ड सब
                प्रेम के प्रसार में उसे प्रेम से  नवाजा है ।
         ईर्ष्या द्वेष दम्भ और पाखण्ड सारे छोड़
                मोह ,माया ,मेरा तेरा भ्रम को त्यागा है। ............. अरविन्द
   
          
   

                

मंगलवार, 17 दिसंबर 2013

गाता है कृष्ण

गाता है कृष्ण ,गाती है प्रकृति
नाचता है कृष्ण नाचती है प्रकृति
बांसुरी की धुन पर गोपियाँ  भी नाचीं
नाची सारी कुदरत , पत्तियाँ भी नाची
बाल बाल नाचे ,गोपाल सब नाचे
सत्य मुखरित कर गया कण -कण
नाचा जब कृष्ण ,गाता जब कृष्ण।
जीवन के संघर्ष का मन्त्र है कृष्ण
स्वभाव में जीने का संकल्प है कृष्ण
अंधों की दुनिया में अंधे मत बनो
अंधों को पछाड़ कर प्रकाश को गुनो
आततायी कभी सगा नहीं होता
युद्ध रत होकर न्याय को चुनो।
प्यार में भी आदमी ,आदमी बनो
प्रिया संग कोमल बांसुरी सुनो
कदम्ब की छाहँ तले राधा जीओ
अमृत है प्रेम ,अमृत को पीयो।
जीवन भी तो युद्ध है ,प्रेम से जीओ।
मृत्यु तो है असत्य फिर भागना क्यों ?
मानवी देह में फिर क्लीवता क्यों ?
पुरुष हो पौरुष की पुकार को सुनो
गाता है कृष्ण ,कृष्ण गान को सुनो। ............. अरविन्द


दोहे

दोहे
स्वप्नों का संसार है ,सत्य न इसे मान।
मृगतृष्णा में फंसा , तड़प  रहा इन्सान।
नीति रही न मर्यादा ,न रह पाया है ज्ञान
शिक्षालयों में आ घुसे , चाटुकार  इन्सान।
सिद्धान्त झौंके भाड़ में ,कुर्सी को सत्कार।
गर्दभ चंद नव नेता हुए ,दुलत्तियां भरमार।
राम नाम तो जीभ पर ,मन कपटी बटमार।
विश्वास कहाँ टिक सके ,हाहाकार चीत्कार।
कैसी विधि विडंबना ,परखो इसके काम।
काम मंदिर में बैठ कर ,जपता राम राम।
जैसी जिसको रूचि मिली ,वैसा बने स्वभाव।
कीचड़ किसी को प्रिय है ,छुवे कोई आकाश।
न अच्छा न बुरा कोई ,न कोई लुच्चा होए।
खुल गयी जो आँख जब ,सब कुछ सच्चा होये।  …………… अरविन्द

शनिवार, 14 दिसंबर 2013

सबने सबको नोचा है

सबने सबको नोचा है ,
लोकतंत्र का लोचा है।
वह बूढ़ा भी तो बंदा है
राजनीति ने सोचा है।
बेंदी ,सुर्खी ,पाऊडर
सुंदरता का धोखा है।
आंदोलन में भीड़ भाड़
जनता ढूंढ़ती नेता है।
झूठों की दूकान सजी
परमात्म तो धोखा है।
जनता बलि पशु बनी है
शातिर हाथों में सत्ता है। …………अरविन्द




मंगलवार, 10 दिसंबर 2013

जीओ

जीओ तो अपना जीवन जीओ
उधार का जीना जीना नहीं है
कब तक आवरणों में छिपे रहोगे
मुखौटों को होना ,होना नहीं है।
होना तो सूरज की तरह होना
चाँदनी की तरह होना भी होना है
किसी को ओढ़ कर होना होना नहीं है।
न अँधेरा बुरा ,न अँधेरे में रहना बुरा
बेगानी मोमबत्ती सा होना ,होना नहीं है।
रेट रटाये शब्द छोड़ जाते हैं साथ
झूठ का जीना ,सच जीना नहीं है।
परिंदों के बच्चे भी छलांग लगा देते हैं
अपने सुरक्षित घौंसलों से ,
सत्य को समझना ही सत्य होना है।
दुबकना पराजय है होने की
धरती को चीर
बीज का फूल होना ही
सत्य होना है। ……………… अरविन्द



शनिवार, 7 दिसंबर 2013

कुर्सी

जोड़ तोड़ करके जो भी कुर्सी पर बैठने आया है
अहंकार की खूंटी पर दिमाग टांग कर लाया है।
पद मद, दुष्टता, धन, चापलूसी  और बेईमानी
मूर्खता से भरा टोकरा वही अपने साथ लाया है।
कुर्सी पर  बैठते  ही धृतराष्ट्र  हो  जाते  हैं कुछ
अपना ही घर भरना आजकल कुर्सी की माया है .
समता समानता ,परहित कल्याण को छोड़िये
कुर्सी पर तो किसी शातिर शैतान का साया है।
मासूम सा चेहरा झुकी आँखें ,मीठी भाषा लेकर 
खूंखार जानवरों ने आज कुर्सी को हथियाया है।
चापलूसों की भारी भीड़ ने घेर लिया है कुर्सी को
आम आदमी को इन कुर्सी वालों ने तड़पाया है।
धर्म ,राजनीति ,व्यवस्था और विद्यालयों में
कुर्सी पर बैठे अमानुष ने खूब आतंक मचाया है ।
भले मानस ,बड़े पंडित ,आम विद्वान ये सारे
कुर्सी के स्तुतिगान में सबने दिमाग खपाया है ।
षड्यंत्र , मक्कारी, कमीनगी  और  अन्याय
कुर्सी के चारों पैरों पर इन्हीं का घना साया है। …………अरविन्द


गुरुवार, 5 दिसंबर 2013

बहुत बुरा लगता है

बहुत बुरा लगता है
जब कोई छोटा आदमी
छोटी नीयत और
छोटी मंशा का आदमी
बड़ी कुर्सी पर बैठ
छोटे काम करता है।
बहुत बुरा लगता है।
बहुत बुरा लगता है-
 जब पढ़े लिखे लोग
अकारण भयभीत हो कर
अन्याय के पक्ष में खड़े होकर
बड़ी कुर्सी पर बैठे
छोटे आदमी की हाँ में हाँ मिलाते हैं
और उस छोटे आदमी की
पहाड़ जैसी गलतियों को
ढ़ोने  के लिए
अपने कंधे लगाते हैं।
बहुत बुरा लगता है।
आदर्शों के मुखोटों में छिपे
लालची कुत्ते मुस्कुराते हैं।
बहुत बुरा लगता है।
छोटा आदमी कुर्सी पर बैठ कर
कुर्सी के जोर पर
धमकाता है,
अपने अधीनस्थों पर घिघियाता है
पढ़े लिखे लोग पूंछ दबाये
गर्दन झुकाये
चुपचाप लुटे पिटे निकल जाते हैं।
बहुत बुरा लगता है .
क्योंकि यही छोटा आदमी उनका आदर्श है
इसकी कमीनी चालाकियों को
ये लोग बड़ी बारीकी से देखते हैं
उसके द्वारा फैंके गए टुकड़ों को
बड़े प्रेम से सहेजते हैं,
अपने से छोटों के ऊपर
आँखें तरेरते हैं
उन्हें अपने झुण्ड में शामिल करते हैं
रक्तबीज इसी तरह बढ़ते हैं।
संस्थाओं में नित नए पाप फलते हैं।
बहुत बुरा लगता है। ………………… अरविन्द







मंगलवार, 3 दिसंबर 2013

दोहे

भारत के लोकतंत्र के तीन बचे आधार
गरीबों को मुफ्त अन्न ,पैसा और शराब।
नेता हमारे खो चुके सब दीन ,धर्म ईमान
शराब पिला कर जीतते सांसद हैं बेईमान .
जनता भूखी लालची बेच रही निज  वोट
नेता तो सब गिद्ध हुए लोकतंत्र का खोट।
जैसे लोगों के कर्म हैं वैसा होगा भाग्य
बेच दिया है देश को यही बड़ा दुर्भाग्य।
देशभक्ति दफ़न हुई चुनाव तंत्र लाचार
मन के रुग्ण नेता हुए दुष्टों कि भरमार।
कैसे हम जी पायंगे कैसे बच पाये ये देश
बाढ़ खा रही देश को ,मचा चतुर्दिक क्लेश ………… अरविन्द


 

आज फिर जीने की तमन्ना है।

आज फिर जीने की तमन्ना है।
कब तक मुहं ढाँप सोते रहोगे ?
कब तक दर्द बेगाना ढोते रहोगे ?
कब तक करवटें यूँ बदलते रहोगे ?
कब तक यूहीं सोचते रहोगे ?
आज फिर जीने की तमन्ना है।
जीना है तो दर्द को उड़ा कर जीओ
जीना है तो खुल कर मुस्कुरा कर जीओ
जीना  है तो ललकार मार कर जीओ
जीना है तो तलवार की धार पर जीओ
जीना है तो फूल सा खिलखिला कर जीओ
जीना है तो किसी को अपना बना कर जीओ
जीना है तो दर्द को भुला कर जीओ
जीना है तो बस अपना ही जीओ
जीना है तो प्रभु को मना कर जीओ
जीओ तो जलती मशाल सा जीओ
जीओ तो भारी तूफ़ान सा जीओ
जीओ तो तड़पते प्यार सा जीओ
जीओ तो किसी के कंठहार सा जीओ
जीना ,चुप चुप नहीं रोना है।
आज फिर जीने की तमन्ना है।
जीओ तो घिरते हुए बादल सा जीओ
जीओ तो बरसते सावन सा जीओ
जीओ तो उमड़ते सागर सा जीओ
जीओ तो लहराते हुए दामन सा जीओ
जीओ तो बनिए की दूकान सा न जीओ
जीओ तो सर्वस्व दान सा जीओ
जीओ तो शिशु की मुस्कान सा जीओ
जीना , गुमसुम नहीं होना है।
आज फिर जीने की तमन्ना है। ................ अरविन्द
               (अपने अभिन्न मित्र डा० के.के. शर्मा के लिए )



शुक्रवार, 29 नवंबर 2013

कभी - कभी

कभी - कभी कुछ भी मन नहीं सोचता है
खाली आकाश में आवारा बादल घूमता है।
आदमियों की भीड़ में अपना नहीं मिलता
मुहं ढाँप कर अँधेरे में दुबकता है, सोता है।
अकेला होना ही तो कहीं क्या खुदा होना है
 दुनिया रचता है पर अलग रह नहीं पाता है।
संवेदनाएं भी यहाँ थिरकती तितिलियाँ  हैं
संभालना चाहते हुए भी पकड़ नहीं पाता  है। ………… अरविन्द


मंगलवार, 26 नवंबर 2013

वाह !वाह !!

नियति का धत्ता
गिरता हुआ पत्ता
            वाह !वाह !!
लोकतंत्र में सत्ता
खुले झूठ का भर्ता
            वाह ! वाह!!
कविता में भत्ता
सिलता न कुर्ता
          वाह ! वाह !!
परीक्षा में गत्ता
सफलता का रस्ता
          वाह ! वाह !!
अध्यापन का हाल
फटेहाल ,फटेहाल
          वाह ! वाह !!
पत्नी की  मुस्कान
लहुलुहान हुए महान
           वाह ! वाह !!
पुत्रों का सद्चरित्र
खुल गए वृद्धघर
          वाह ! वाह !!
भ्रष्ट हुए अधिकारी
व्यवस्था की बीमारी
          वाह ! वाह !!
मंदिरों का गृह गर्भ
अपढ़ पुजारी का दर्प
            वाह !वाह !!
परमात्मा की मुस्कान
पाखंडियों की दूकान
            वाह ! वाह !!
धूर्त हुए धनवान
पदों को पहचान
            वाह ! वाह !!
दुष्टों की खुली भर्ती
योग्यता रही भटकती
              वाह ! वाह !!
मूर्खों की सवारी
कुर्सी हुई बेचारी
           वाह ! वाह !!
कविता करे आह ,आह
भई वाह ! भई वाह ,
             वाह ! वाह !!………… अरविन्द





सोमवार, 25 नवंबर 2013

मुस्कुरा के

मुस्कुरा के जरा इशारा कीजिये
रूठने वालों को निहारा कीजिये। 
गीतोंमें झिलमिल लाया कीजिये 
आँखों का सुरमा चुराया कीजिये .
कंधे पे उनके सिर टिकाया कीजिये
कानों में होले फुसफुसाया कीजिये।
कपोलों पे गिरी लट झुलाया कीजिये
होठों से कभी तो गुदगुदाया कीजिये।
प्यार को प्यार से संभाला कीजिये
दूध को खुद भी तो उबाला कीजये . ………… अरविन्द


अपना है दर्द

 हम दर्दों को शब्दों में क्यों सुलाएं
क्यों न खुशियों के सौ दीप जगाएं  .
अपना है दर्द क्यों दूजों को दिखाएँ
हंसें ,मुस्कुराएं रोतों को भी हंसाएं।
सौगात यह पीड़ा अपनों से मिली है
अपना यह धन है क्यों इसे दिखाएँ।
बेगाने कभी हो नहीं सकते अपने
रूठा है जो अपना उसे तो मनाएं।
दीया जगा कर रखो दरवाजे पर
आओ न ,भटके को रास्ता सुझाएँ।
जिंदगी बोझ नहीं ,खिला कमल है
 जूड़े में लगाएं चाहे खुद को सजाएं .
आकाश बुलाता है ऊंचाइयां पुकारतीं
माथे पे धर हाथ क्यों निकम्मा कहाएँ। …………अरविन्द

मंगलवार, 19 नवंबर 2013

ओ ! आजा मेरे प्यारिया

ओ ! आजा मेरे प्यारिया
मेरी अखां  दे ओ तारिया .
मेरे साहां दे सोहने सहारिया
मेरी जिंदड़ी दे लिश्कारिया।
ओ ! आजा मेरे प्यारिया।
तैनूं बागी सैर करवाऊंगा
अम्बीआं थले ले जाऊँगा
तैनूं तेरी दुनिया दिखाऊंगा
झरने हेठ लै जाऊँगा
कुझ खिलदे फुल्ल दिखाऊंगा
घने जंगलां बिच्च लै जाऊँगा
चिड़ियाँ दे गीत सुनाऊंगा
मौरां दे नाच दिखाऊंगा
कोयल दी कूकां दे थल्ले --
बोरां दी महक महकाऊँगा  .
किंवें नदियां ही बल खांदियां ने
किंवें दरिया बिछदे जांदे ने
किंवें बोहड़ खुल्ल के हसदा ऐ
किवें पिप्पल झूमदा नच्चदा ऐ
किवें झूला पा के कुझ कुड़ियां
पींग हुलारे लैन्दियां ने
ऐ सुंदर दुनिया तेरी ऐ
हुन  आ तक्क मेरे प्यारिया 
ओ ! आजा मेरे प्यारिया।
चल्ल हुन लोकां नु बी तक्क लईए
तेरे सोहने पुतले तक्क लईए
ऐ बेहद प्यारा पुतला ऐ
तेरी रचना दा  ऐ सुतला ऐ
ऐ नच्चदा ,खेलदा ,टप्प्दा ऐ
ऐ रौंदा ,हस्सदा ,बोलदा ऐ
ऐ शास्त्र पडदा सारे ने
ऐ खोजां करे न्यारे ने
इस दे दिल दे अंदर बगदे --
स्वार्थां दे परनाले ने।
न आप सुखी हो बहँदा ऐ
न दूजे नु सुख देंदा ऐ
ऐ रोंदा कलपदा जिँदा ऐ
ऐ रोंदा कलपदा मरदा ऐ
क्यूँ सुंदर देह दे के तू
दित्ता श्राप प्यारिया
ओ ! आजा मेरे प्यारिया।
ऐ गीत प्यार दे गाउंदा ऐ
सोलहे नवें सुणाउंदा ऐ
होके फेर किसे दा ऐ --
घुटदा ते पछतान्दा ऐ
इह कल्ला नहीं रह पाउँदा ऐ।
कुझ कल्ले बन वन जाउन्दे ने
मत्थे तिलक लगाउँदै ने
अखां बंद कर बैह जांदे ने
लोकां तों मत्थे टीकौंदे ने
अपने मापे छड़ के ओ
मापे नवें बनाउँदै ने।
मायापति बन बन के ऐ
माया दे फंद छुड़ान्दे ने
रब्ब मिलेया नहीं कदे किसे नु
ऐ खुद रब्ब बन बैह जाऊन्दे ने।
कि देखें तू खेल प्यारिया
हुन आजा मेरे प्यारिया।
तू आखें लीला तेरी ऐ
ऐ आखे मेरी मेरी ऐ
सच्चाई किसे न हेरी ऐ
न मेरी ऐ , न तेरी ऐ
क्यों करदा  हेरा फेरी ऐ …………… अरविन्द





शुक्रवार, 15 नवंबर 2013

s

जिस प्रकार शिक्षा के केंद्र में मनुष्य है ,उसी प्रकार धर्म के केंद्र में भी केवल मनुष्य ही है। कोई पूजा पद्धति या गुरु नहीं। अगर ऐसा होता तो कबीर को यह न कहना पड़ता कि गुरु को मानुष जानते ते नर कहिये अंध अथवा वह परमात्म दर्शन से पूर्व गुरु को प्रणाम कर विदा न करता। अत: यहाँ यह विचारणीय है कि मनुष्य का ,शिक्षा और धर्म का उद्देश्य क्या है ? क्या जीविकोपार्जन के योग्य हो जाना ही उद्देश्य है ?क्या शिक्षा केवल जीविका के निमित्त ही है ?अगर ऐसा है तो धर्म कि कोई आवश्यकता ही नहीं है। न अच्छी नौकरी ,न अच्छी सेवा , न अच्छा व्यवसाय , न अच्छी गद्दी ,न ही अच्छी आर्थिक स्थिति मनुष्य का लक्ष्य या उद्देश्य है। जब तक हम इन्हें ही उद्देश्य मानते रहेंगे तब तक हम किसी भी प्रकार के शोषण के शिकार होते रहेंगे।
   मनुष्य ,शिक्षा और धर्म का उद्देश्य केवल ---ज्ञान ,सुख और स्वतंत्रता है। ज्ञान के विषय में तो सभी जानते हैं ,फिर भी संक्षेप में सभी प्रकार के भ्रमों से मुक्ति का साधन ज्ञान है। कैसे इसे प्राप्त किया जाए --इस पर अभी विचार नहीं करते ,
सुख भी हमारे यहाँ पूर्णतया पारिभाषित है। यह कोई हैप्पीनेस या प्लेजर नहीं। और न ही वैयक्तिक धारणा के आधार पर इसे अपरिभाषित छोड़ा जा सकता है।
स्वतंत्रता स्वछंदता नहीं ,मानवीय विकास की उपलब्धि का मूलभूत कारण  है। इन तीनों उद्देश्यों कि प्राप्ति से  मनुष्य में गुणात्मक विकास की चरम परिणति सम्भव है। इसके लिए शिक्षा और धर्म दोनों समान रूप से संबद्ध हैं।
बालक अपने साथ कुछ लेकर नहीं आता है। समाज को ही उसके सर्वांगीण निर्माण में सहयोग करना होता है। जबकि इस निर्माण कार्य में हम अभी सफल नहीं हो पाये हैं। व्यक्ति का वैयक्तिक और सामाजिक चरित्र अभी अधूरा है ,इसमें कोई संदेह नहीं होना चाहिए। तो कारन तो तलाशना ही होगा। बालक के निर्माण के लिए जिस सामग्री का हम उपयोग कर रहे हैं ,उसमें मात्रा और कोई  महत्वपूर्ण वस्तु छूट गयी है।
भारतीय राजनीति ने कभी इस विषय में नहीं सोचना है। क्योंकि वह भेदवादी नीतियों के सृजन कर जातियों कि तंग गलियों से अपना रास्ता बनाना जान चुकी है। इसीलिए धर्म के प्रति पाखंडपूर्ण दुष्प्रचार निरंतर हो रहा है। विचार करने वाले प्रज्ञावान विद्वान भी खेमों में बाँट चुके हैं ,जो खेदजनक है।

पुकार भरी बातें

सुख पहुंचाती हैं तेरी कवितायी बातें
अनुभव दिखलाती हैं तेरी यही बातें।
कुछ मीठी मीठी कुछ उदास सी बातें
कहीं दुलराती कहीं फटकारती  बातें।
उलझनों को खूब सुलझाती सी बातें
दर्द की मीठी सौगात संभालती  बातें .
दोस्तों की घातें- मुलाकातों की बातें
दुश्मनों की प्यारी चालबाजी की बातें।
रातों को जागती हैं  मनुहार भरी बातें
सुबह सुबह शरमाती लाज भरी बातें।
आम के बौर की तुर्श सुगंध सजी बातें
कोयल की कूक सी पुकार भरी बातें। ............. अरविन्द



गुरुवार, 14 नवंबर 2013

शिक्षा के क्षेत्र में धर्म

शिक्षा के क्षेत्र में धर्म ,विशेष रूप से विचारणीय है क्योंकि स्वतंत्रता के बाद हिन्दोस्तान  में अगर कुछ शब्दों के साथ अत्याचार हुआ है ,तो धर्म उनमें से एक है। हमने सम्प्रदाय को ही धर्म मान लिया है। कुछ पूजा -पद्धतियां धर्म नहीं हो सकतीं।  कुछ ग्रंथों का केवल पाठ --धर्म नहीं है  क्योंकि
धर्म आचरण और विचार की  वस्तु  है। यह मात्र किसी एक मूर्ति ,मंदिर या स्थान में सीमित नहीं किया जा सकता। दुर्भाग्य यही  है की हमने साम्प्रदायिक श्रेष्ठा ग्रंथि से मुक्त हो कर धर्म के  विषय
में कभी सोचा ही नहीं है। हम कर्म काण्ड को ,मूर्ति -पूजा को ,गण्डे ताबीज को,जादू टोने को ,मंत्रोच्चार को ,प्रार्थनाओं को ,धर्म मानने लग गए हैं जो कि है नहीं। इन्हीं धारणाओं के कारण धर्म के विरुद्ध अनेक मतवाद उत्पन्न हो गए हैं और अत्यंत महत्वपूर्ण तत्व विचार की परिधि से बाहर कर दिया गया है। यह दुरभिसंधि भी हो सकती है। बिना जाने खंडन करना या नकारना या अवहेलना करना सत्यान्वेषण के विरुद्ध है। इसलिए धर्म और शिक्षा के अन्तर्सम्बन्ध पर निरपेक्ष चिंतन ,विचार और बहस होनी चाहिए।
जिस प्रकार शिक्षा मनुष्य के विविध विकास पर आधारित है उसी प्रकार धर्म भी मानव के  बहुमुखी विकास से ही सम्बन्धित है। क्या अंतिम सत्य की तलाश करना शिक्षा का उद्देश्य नहीं ?क्या मानव के चरम उत्कर्ष को प्राप्त करना शिक्षा की अवधारणा में नहीं ?चेतना को जीवन की उच्चतम परिणति तक पहुँचाना क्या शिक्षा की सीमा से बाहर है ?नहीं ऐसा नहीं हैं।
धर्म भी व्यक्ति जीवन में इन्हीं अपेक्षाओं को पूर्ण करता है। शिक्षा की ही तरह धर्म भी जीवन से सम्बंधित है और वह भी मनुष्य ले देह ,मन,  बुद्धि ,चित्त और आत्म से जुड़ा हुआ है। इसलिए शिक्षण के क्षेत्र में हमें धर्म और शिक्षा के अन्तर्सम्बन्ध पर सम्प्रदायों से मुक्त चिंतन कर वास्तविक तथ्यों को प्रकट करना चाहिए।

रविवार, 10 नवंबर 2013

अरविन्द दोहे

घर से निकसे घर किया ,
घर में मिला ना  घर।
घर घर करते घर जी लिए ,
रहे हम बेघर के बेघर।
      ------------
चाहते चाहते अचाहे हुए
अब चाहत रही न कोय .
अनचाहे ही चाहा मिले,
 फिर क्यों चाहे कोय।
       -----------
यह जग सारा रब्ब का ,
रब्ब इस जग में नाहिं
कलरव तो सब कर रहे ,
अर्थ मिले कुछ नाहीं।
       ---------
गुरु जिना दे हों टप्पने
चेले जान उन छड़प्प,
गुरु चेले दियाँ जोड़ियाँ
रब्ब ते मारन गप्प।
     -----------
बहुत दिनों से हम देख रहे,
राजनीति की जंग .
दोषारोपण कर रहे
जो हैं दोषों के संग।
-----------------------------------------------अरविन्द दोहे  






शुक्रवार, 8 नवंबर 2013

चेतना की देशना

श्रवण कर नित चेतना की  देशना।
जन्म जीवन है अकिंचन
देह भी नहीं  है चिरन्तन
सत्य केवल भासता है
मिथ्या माया जाल रोपण .
किसलिए बद्ध हो रहे तू
गतिशीलता मुक्ति प्रवीणा
श्रवण कर नित चेतना की देशना।
तू जिसे निज है समझता
वह कहीं  भिन्न विचरता
भूति की यह भाव वीथि
मानसिकता की दुरुहता
क्यों अब अवकाश चाहे -
अनात्म का आभास चाहे
प्रत्यक्ष सब कुछ मृन्मना
श्रवण कर नित चेतना की देशना।
किरण भीगी ऊषा भीनी
दीप्त यौवन दान कीनी
घनी क्षपा में उडुगणों की
खिल रही  आँख मिचौनी
संसरणशील संसार सारा
नित करे  मृष -कलपना
श्रवण कर नित चेतना की  देशना।
विगत ,गत विदित है क्या ?
सत्य मिल पाया कभी क्या ?
वय निरन्तर अग्रगामी -
रूप रह पाया कभी क्या ?
मृणमयी संसार सारा -
उपदिष्ट हो पाया कभी क्या ?
विचार तो सब खोखले हैं
तर्क वितर्क सब भोथरे हैं
खुल नहीं पाया रहस्य --
क्यों करे फिर चिन्तना
श्रवण कर नित चेतना की देशना।
सम्भूति भी तो व्यर्थ है
असम्भूति निरर्थक अर्थ है
तमसावृत देहागर्त है
अव्यर्थ भी तो व्यर्थ है
समर्थ रिक्त हस्त है .
सौंदर्य के उपकरण सारे
मरणधर्मा आनन्द सारे
विल्लोल वीचि है कल्पना
श्रवण कर नित चेतना की देशना। ................... अरविन्द





गुरुवार, 7 नवंबर 2013

आओ ! कुछ बात करें घर की

आओ ! कुछ बात करें घर की। 
दशहरा बीता ,करवा बीता 
अहोई अष्टमी साथ बिताई है 
कुछ पास हमारे बैठो प्रिये 
अब घर की करनी सफाई है। 
मकड़ी के जाले लगे हुए 
मच्छरों ने धूम मचाई है। 
मिट्टी की परतों ने भी प्रिय 
दीवारों पर गर्द जमायी है। 
धुएं से अपने चौंके में 
कालिख ही पुत आयी है। 
मेरी किताबों के ऊपर भी 
धूल बहुत चढ़ आयी है। 
झाड़ू पौंछा तुम छोड़ चुकी 
खाती हो , सो जाती हो ,
टी वी के आगे बैठ प्रिये 
तुम नाटक देखती रहती हो। 
अपनी गृहस्थी के नाटक में 
कुछ सेवा कर लें खटमल की 
आओ ! कुछ बात करें घर की। 
तुम कितनी सुंदर होती थीं 
ज्यों कनक छरी लहराती सी 
छम छम आँगन में प्यारी 
मुस्काती थी ,कुछ गाती थीं। 
वह लाल दुपट्टा तो तेरा 
आदित्य पकड़ लहराता था 
घर के सब बच्चों के संग 
छुपा छुपायी होती थी। 
याद करो अपना यौवन 
इस घर में जब तुम आई थी 
थापी लेकर इन हाथों में 
नित वसनों की करे धुलाई थी। 
थापी की थाप प्यारी से --
तुम मोटी नहीं हो पायी थी। 
अब जबसे मशीन घर आई है 
तुम बटन दबा कर सोती हो। 
कपडे बेचारे तरस गए ---
तेरे हाथों की स्पर्श लुनाई को। 
टुक बात सुनो इन कपड़ों की ,
आओ ! कुछ बात करें घर की। 
मैं अब भी हूँ कृश काय प्रिये 
सौ सीढ़ी झट चढ़ जाता हूँ। 
पर तेरी स्थूलता के आगे 
अब पस्त हुआ मैं जाता हूँ। 
हिरनी जैसी चाल तुम्हारी ,
हथिनी जैसी  हो गयी है। 
सड़क किनारे खड़ा ,तुम्हारी 
प्रतीक्षा में थक जाता हूँ। 
कहाँ गयी वे सब बातें ?
कहाँ गयीं मदमस्ती की गतियाँ ?
मैं खुद ही सोचा करता हूँ 
जब भुज वल्ली लहराता था 
हे मुष्टि मध्यमा तुम्हें पकड़,
झूला भी खूब झुलाता था। 
बीते युग की सुंदर बातें --
सब बात हुई सुख सपने की 
आओ !कुछ बात करें घर की। 
अभी तो कुछ बिगड़ा नहीं प्रिये 
बिखरे बेरों को संभाल अभी 
घर के सारे कामों में लग 
सेहत की करो संभाल अभी। 
इस माई को घर से करो बाहर 
जो बर्तन मांजने आती है। 
फर्शों को साफ़ नहीं करती 
बस ,आधा झाड़ू लगाती है। 
चम्मच भी चिपचिप करते हैं 
थाली में शक्ल नहीं दिखती 
गिलासों के किनारों पर ,तेरी 
लिपस्टिक नजर आ जाती है। 
तुम बहुत सफाई पसंद रही 
आओ ! कुछ बात करें घर की। 
अब बच्चों ने शादी कर ली 
वे बाप बने उलझे रहते 
गृहस्थी के सब सुख दुःख वे 
मिल जुल कर तुमसे कहते। 
उनको माता  प्यारी है ,
वे बात सभी तुमसे करते। 
तुम भी तो हँस हँस के अब 
उनसे ही बतियाती हो। 
यह वृद्ध अपने कमरे में 
किताबों में उलझा रहता है 
लिखने ,पढ़ने ,बतियाने में 
समय व्यर्थ गंवाता है --
या बैठे ठाले कुछ न कुछ 
कहते जाता है। 
बातें इसकी क्यों तुझे नहीं सुहातीं 
आओ ! कुछ बात करें घर की। ………………अरविन्द 

आवारा चिंतन...... उत्सवप्रियता

   आवारा चिंतन।                             उत्सवप्रियता
विगत कुछ दिनों में कर्क चतुर्थी ,दशहरा ,दीपावली ,भाई दूज इत्यादि उत्सव आये ,जिन्हें पूर्ण उल्लास के साथ हिन्दू समाज ने अलंकृत होकर संपन्न किया। उत्सव प्रियता हिंदुओं कि महती विशिष्टता है। इनके यहाँ उत्सव का अर्थ है --सामंजस्य पूर्ण सामाजिक सौहार्द्र ,सुख ,समृद्धि ,कल्याण और दैहिक ,मानसिक और आत्मिक आनन्द।
परम्परा से प्राप्त , इस प्रकार की सामूहिक आनन्द वेला को, इस जाति ने चिरकाल से संभाला हुआ है। इस जाति के पञ्चांग का  अगर ध्यान और गम्भीरता से अवलोकन किया जाए ,तो विदित होता है कि यहाँ की प्रत्येक तिथि, यानि कि दिन ,अपनी विशिष्टता के साथ उदित होता है। हर दिन यहाँ उत्सव है। केवल जन्म ही नहीं बल्कि मृत्यु भी यहाँ  उत्सव ही है--ससीम का असीम से मिलनोत्सव,
आत्मा का परमात्मा से मिलन। प्रत्येक हिन्दू तिथि के अनुसार दिवस को आरम्भ करता है। तदनुकूल आचरण इस जाति की उदारमना संस्कृति का और सर्व -कल्याणकारी प्रज्ञा का उद्घाटन है।
विशेषता यह है कि अधिकांश उत्सवों का केंद्र स्त्री है। केवल यही जाति अपनी स्त्रियों को सर्वांगीण श्रृंगार से सुसज्जित करना जानती है। हिंदुओं के उत्सवों का अगर विश्लेषणात्मक अध्ययन किया जाए तो इस सत्य की प्रतीति होगी कि पुरुषों के लिए केवल गिने चुने उत्सव हैं। कर्क चतुर्थी ,दीपावली, भाई दूज , रक्षाबंधन ,लोहड़ी इत्यादि पर्व स्त्रियों के सौंदर्य ,आनंद तथा प्रेम कि अविरल आस्था तथा आकांक्षा के प्रतीक हैं। सुखदा अनुभूति होती है कि स्त्री पुरुष में से कोई नहीं जानता कि किसने किस योनि से मुक्त होकर स्त्री या पुरुष के रूप में जन्म लिया है परन्तु पारस्परिक प्रेमानुभूति संकल्प और सहचरी भावना का अंतर्ग्रथित सम्बन्ध सदा से है और भावी जीवनों की अनवरत सम्बन्धों की धारा में बना रहेगा।  हम बार -बार मरें भी ,बार -बार जन्म भी लें और बार -बार इन्हीं सम्बन्धों के आंतरिक आनंद के उपभोक्ता भी रहे ---कर्क चतुर्थी यही सन्देश तो देती है। भविष्य अदृश्य है परन्तु कामना बलवती है। प्रेम परमात्मा का अनुपम वरदान है ,इसलिए सम्बन्धों का चिरंजीवी  स्थायित्व स्थाणु वत संरक्षणीय और सम्पूजनीय है।
नर नारियों कि सौंदर्य सज्जित प्रतिमाओं में जिन्होंने आस्था ,प्रेम ,विश्वास और समर्पण नहीं देखा ,वे इन उत्सवों में निहित पारमात्मिक सौंदर्य से भी वंचित हैं।
दीपावली ,जिसे लक्ष्मी पूजन से अभिहित किया जाता है ,क्या स्त्री सौंदर्य के प्रति अनुग्रह और प्रकृति के समक्ष पुरुष का विनम्र समर्पण नहीं ?क्या ये उत्सव मनुष्य के अंतरस्थ ईश्वरत्व का उद्दीपन नहीं ?दशहरा यद्यपि पौरुष का पर्व है ,तथापि व्यंजनात्मक सन्दर्भ में यह पर्व स्त्री की गरिमा संरक्षण का महनीय पर्व नहीं ?हमें समझना चाहिए की हिन्दू संस्कृति में स्त्री केवल भोग्या नहीं बल्कि अनंतदायी आनंद के जागतिक सत्य के सुख की सौंदर्यमयी प्रतिमूर्ति है।
जिस जाति में उत्सवों कि वृहद श्रृंखला नहीं होती वे जातियां हिंस्र और वैयक्तिक सुख संधान के स्वार्थ मार्ग पर चलने को बाध्य हो जाती हैं तथा समाज में असंतुलन ,उदासी ,अवसाद, जिघांसा और अनैतिकता को प्रश्रय देने लग जाती हैं। परिणाम शेष जातिओं और वर्गों को झेलना पड़ता है। इसलिए भिन्न भिन्न मतवादों की धमाचौकड़ी में इस उत्सव प्रियता का संरक्षण अनिवार्य है,क्योंकि यही जीवन कि जीवनंतता है। ……………अरविन्द

बुधवार, 6 नवंबर 2013

खोल दो हे प्रभु ये नव द्वार

चमकता है प्रकृति का दर्पण
झाँक रहा ब्रह्म यहाँ निर्भ्रम
भवाम्बुद्धि के उस पार निर्विकार
कर्ता ही कृति को रहा निहार।
क्षण भंगुर सृष्टि का प्रसार
झलकता तव सौंदर्य अपार।
रूप सागर का लख  अरूप
प्रसरित दिग्दिगंत सार असार।
तमिस्रा सी  सुखद भ्रान्ति ,
उदित मार्तण्ड सी  कान्ति ,
निरभ्र व्योम सी हो शान्ति
यही साधक मन की मौन पुकार।
लखुं तव रूप अरूप अपरूप
विभु व्यापक शुचि शुद्ध स्वरुप
नयन की ससीम असीम गुहार
प्रभु !तुम ही लो अब निहार।
जगे जीवन का सत्य प्रकाश
भग्न हो माया दुबिधा भास्
तोड़ दूँ अंध कूप का द्वार
मिले जो तेरा ज्ञान कुठार।
जगत तो छाया का आभास
असत्य मृदु संबंधों का लास
बहु वर्णी इह के हैं सब पाश
मुक्ति का मिले नहीं अवकाश।
गति ,अगति दुर्गति के कर्म
कर्ता अकर्ता सब विभ्रम
निर्गत झांक रहा निर्मम
ज्ञान भी छाया ग्रथित प्रकाश।
सुगत कि स्थिति कहीं है और
विगत से चिपक रहा मन मोर
व्यर्थ हैं कर्म बंधन के शोर
दिखेगी कब तव इंगित भोर
प्रतीक्षा में हूँ रहा पुकार
खोल दो हे प्रभु ये नव द्वार। ............. अरविन्द









शुक्रवार, 1 नवंबर 2013

बापू के कुछ बंदर

बंदर ---2 .
जहाँ भी देखो आ बैठे हैं बापू के कुछ बंदर
धमा चौकड़ी खूब मचाते बापू के कुछ बंदर
अनुशासन की धज्जी उड़ाते बापू के कुछ बंदर
मेज कुर्सी पर तन कर बैठे बापू के कुछ बंदर
नकली डिग्री ले कर आ गए बापू के कुछ बंदर
अहंकार के भरे गुब्बारे बापू के कुछ बंदर
धोखा देकर चखें मलाई बापू के कुछ बंदर
व्यवस्था को धत्ता बताते बापू के कुछ बंदर
फसल हमारी सारी खा गये बापू के कुछ बंदर
अपनी खों खों आप मचावें बापू के कुछ बंदर
ज्ञानी बन कर रौब जमाबे बापू के कुछ बंदर
दिल्ली के दरबारी बन गए बापू के कुछ बंदर
धर्मों के अधिकारी बन गए बापू के कुछ बंदर
पाठ पढ़ाते ,जाप कराते बापू के कुछ बंदर
रटे रटाये तोते हो  गये बापू के कुछ बंदर
तंत्र को अब नोच रहे हैं बापू के कुछ बंदर
गली गली धमकाने लग गए बापू के कुछ बंदर
संस्थायों के नेता बन गए बापू के कुछ बंदर
अध्यक्ष बने मुस्कान भूल गए बापू के कुछ बंदर
काम क्रोड़ में उत्फुल्ल झूलें बापू के कुछ बंदर
सामर्थ्य हमारी हर कर ले गए बापू के कुछ बंदर
जात बिरादरी रौब दिखाते बापू के कुछ बंदर
जनता को धिक्कार रहे हैं बापू के कुछ बंदर .
बापू प्यारे अब ले जाओ अपने प्यारे बंदर ,
बहुत चिढ़ाया और न चिढ़ाओ ले जाओ ये बंदर
आदमियों में घर कर बैठे तेरे ही ये बंदर
पकी पकायी ले कर चाटें तेरे ही ये बंदर
क्या सोच कर ले आये तुम ये तीनों बंदर ?
कैसा बदला लिया तुमने दे दिए ये बंदर ?
तीन नहीं अब अगनित हो गए तेरे बंदर। ……………अरविन्द



मंगलवार, 29 अक्तूबर 2013

हम

कहीं हीरा हुए हम ,कहीं पत्थर हुए हम
इच्छा है जैसी आपकी ,वैसे ही हुए हम।

सागर सी छलकती आँखें देखीं तो लगा
लहर हो गये हम ,खुले आकाश हुए हम।
आँखें  तरेर कर देखा उन्होंने जब हमें
शबनम नहीं रहे हम ,शोला ही हुए हम।
जीभ जो न बोली ,आँखों ने कह दिया
अर्थ सारे समझ गए ,सार्थक हुए हम।
किसे ढूंढते हो जंगलों में इन पहाड़ों पर
भीतर हुए जो खाली ,खुदा हो गए हम।
नहीं रही जरुरत अब किसी आशियाने की 
अपना ही हमको मिल गया अपना हुए हम।
सोई रात में कल  जगा दिया उस  प्रभु ने
नींद सारी उड़ गयी ,लो राम हो गये हम। ………………अरविन्द

गुरुवार, 24 अक्तूबर 2013

सर्दी उतर आयी है।

मौसम बदल गया है भाई,
सर्दी उतर आयी है।
आते ही सर्दी ने ,मुझे
गहरी जफ्फी पायी है।
पिंजर सारा हिल गया
दुहाई है ,दुहाई है।
सर्दी उतर आयी है।
शीत के सुस्पर्श ने 
सिर भारी मेरा कर दिया
कनपटियों में
दर्दीली लहर उमड़ आयी है।
नासिका बंद बंध
आँखों की बैरोनियों में
लाली उतर आयी है।
सर्दी उतर आयी है।
गला भारी भारी ,
कंठ थरथराता है।
बोलता हूँ जीभ से
नाक आगे आ जाता है।
जैसे शीत सारी
मेरी छाती में समायी है।
सां सां की ठंडी लहर
साँसों में उतर आयी है।
सर्दी उतर आयी है।
रामदेव फेल हुआ
झंडु ,डाबर मुहँ छिपाते

वैद्य नाथ कहीं नजर नहीं आया है।
दोशांदे सारे पीये ,
तुलसी मजूम बहुत खाया मैने
हमदर्द दर्द दे गया
अब चारपाई भायी है।
पत्नी ने मुहं फेरा ,
बच्चे दूर हो गये।
हालचाल पूछ मित्र भी
डरे ,परे हुए।
नजला ,जुकाम, खांसी
देह चरमरायी है।
विरहिणी का ताप जैसे
देह में समा गया --
जेठ के महीने का --
ताप तन तायी है।
कुदरत का ऐसा प्यार
हर साल आता है।
भुज पाश में आबद्ध कर
पूरा छा जाता है।
सर्दी का संयोग प्रेम
सप्ताह भर रहता है।
कोई भी बेगाना तब
पास नहीं आता है।
साप्ताहिक संयोग आनन्द
हम खुल कर मनाते हैं।
ताप चढ़ी देह में सर्दी को
सजाते हैं।
सर्दी को मानते हैं।
अभिसारिका सी सर्दी
दबे पाँव चली आती है .
मिलानातुरता उसे
खींच मेरे पास ,हर साल
लाती है।
खुले मन भोगती
परमानन्द मनाती वह
अन्तर -सुख भोग कर
प्रसन्न मन लौट जाती है।
मैं भी  उदास मन ,
बिस्तर को त्यागता हूँ .
अगले साल आएगी
प्रतीक्षा मन छाई है।
…………………………अरविन्द


सोमवार, 21 अक्तूबर 2013

तुम दोनों

तुम दोनों -----
जैसे पुखराज की आसक्ति
जैसे किरण की अभिव्यक्ति
जैसे नीलिमा की मस्ती
जैसे शिखरों पर की भक्ति
जैसे शक्ति में अनुरक्ति
जैसे कंदर्प और रति।
तुम दोनों ---
जैसे सौम्यता के भाव
जैसे चित चढ़ा चाव
जैसे स्पृहणीय हो लाड़
जैसे प्रेम का विभाव
जैसे कोमल हो अनुराग
जैसे शान्ति सद्भाव
जैसे पानी और प्यास
जैसे रक्तिमता गुलाब
तुम दोनों ---
जैसे शिशु की मुस्कान
जैसे नाचता भगवान्
जैसे उल्लास का वरदान
जैसे खुला आसमान
जैसे मॆत्रि परवान
जैसे चूड़ी की खनकार
जैसे पायल की झंकार
जैसे राधा का हो मान
जैसे कृष्ण की हो तान
जैसे वंशी की पुकार
जैसे माधवी सुकुमार
जैसे षोडशी की लाज
जैसे उल्लसित सुहाग
जैसे अपना मन मीत
जैसे विभावरी का गीत
जैसे कविता का मान
जैसे मेरी मुस्कान
जैसे ईशान का आलाप
जैसे प्रणव का हो जाप
जैसे आदित्य की पुकार
जैसे अनन्या की किलकार
लिख दूँ कुछ और
जैसे सागर की हो भोर
अब दे दूँ वरदान
सुखी रहो फलो -फूलो
हो सर्वविध कल्याण
करो सर्वविध कल्याण। …………… अरविन्द

शनिवार, 19 अक्तूबर 2013

हम क्यों देखें

उनको हम क्यों  देखें जो चले नहीं दो कदम
अपने पर हम क्यों न खोलें नापें खुला गगन।
आकाश किसी की नहीं बपौती ,अपना भी है
उठूँ धरा से, उडूं मैं ऊपर, देखूं  कौन खड़ा  है .
कब तक अपनी सीमा को मर्यादा कहते रहें
जीवन तो निर्बंध खड़ा है करें चुनौती नमन।
उनको हम क्यों देखें जो चले नहीं दो कदम।  
कौए ,गीदड़ ,हिरण साम्भर जीते पिता के घर
शेर नहीं ताकता धरोहर ढूंढ़ लेता नव वन वर।
गीदड़ बन अपना जीवन क्यों हम बर्बाद करें ?
जल्दी जल्दी इन शिखरों पर अपने कदम धरें.
आओ ! भीतर छिपी शक्ति का करें अभी वरण
उनको हम क्यों देखें जो चले नहीं दो कदम ?
वर्षा ,आंधी ,ओले ,झंझा सब छाती पर सहने हैं
ऊँचे टीले ,गहरे गह्वर नर ने ही तो गहने हैं।
कापुरुष नहीं कर पाते जीवन में आत्म हवन
न हो साथ कोई हो अपना अकेले जूझ पड़ेंगे
भाव का मंथन कर जीवन अमृत पान करेंगे
साहस अपना दिन धर्म हो संघर्षी हों चरण
उनको हम क्यों देखें जो चले नहीं दो कदम। ……………अरविन्द


संत और संतत्व

                                   संत और संतत्व
भारत में सदा से संतों का महत्व रहा है। संतों ने देश के विकास में अभूतपूर्व योगदान भी दिया है। राष्ट्र भक्त ,देशभक्त और सदाचारी बलिदानियों की परम्परा के निर्माण में संतों के योगदान से इनकार नहीं किया जा सकता। यह भी दुर्भाग्यपूर्ण है कि जीवन के विविध क्षेत्रों में संतों के अवदान पर किसी भी विश्वविद्यालय में शोध की विस्तृत योजना का निर्माण नहीं किया क्योंकि हमने भारत की पुरा परम्परा में उपलब्ध ज्ञान से मुहं मोड़ लिया है। इस देश में ज्ञान विज्ञान की अनेक शाखाएँ थीं। आज  न समाज शास्त्र ,न साहित्य ,न धर्म और न ही मनोविज्ञान इस क्षेत्र में कोई खोज ,शोध ही कर रहा है। हमनें कुछ निकम्मे ,जाहिल और पाखंडियों को संतों की  पारंपरिक वेश भूषा में देख लिया और सत्य के अनुसंधान के सभी प्रयत्न बंद कर दिए। हमारी विचारधारा कितनी पंगु है ,इसको जानना कठिन नहीं है।
कम्युनिस्ट संतत्व को स्वीकार नहीं करते तो उन्हें प्रसन्न करने के लिए ,हमने भी अपनी ज्ञानात्मक धरोहर का त्याग कर दिया। राजनीति ने धर्म निरपेक्षता का आवरण ओढ़ लिया।  परिणाम समस्त पुरातन ज्ञान पौन्गापंथी कहलाने लगा। किसी ने भी शोध और खोज के आधार पर साधनात्मक ज्ञान की परीक्षा नहीं की। यह हमारी अपनी सामर्थ्य हीनता है।
हमने मन के चेतन ,अचेतन ,अतिचेतन की तो खोज की परन्तु अतिचेतन में उतरने का कोई प्रयास नहीं किया। संतों की निष्ठां और ज्ञान को भक्ति कह कर सीमित करने के प्रयास तो सभी विद्या केन्द्रों में हुए ,किसी भी विद्वान् ने यह कभी विचार नहीं किया कि संत केवल भक्त ही नहीं थे ,वे सत्य के शोधक भी थे। केवल अदेखे परमात्मा तक ही उन्हें सिमित करके हमने ज्ञान के उन दरवाजों पर  दस्तक देनी बंद कर दी ,कहीं जग हंसाई न हो।
जिस देश में चौसठ कलाओं की शोध हुई हो और उन्हें बाद में सौलह तक अकारण सीमित कर दिया गया हो ,आप स्वयं ही इन तथाकथित पंडितों का निकम्मापन देख लीजिये।
हमारी गतानुगतिक प्रवृति और तुष्टिकरण की नीति के साथ गंभीर परिश्रम का अभाव हमें गंभीर शोध करने से रोकता रहा है और वे लोग भी दोषी हैं जिनमें योग्यता नहीं थी ,पर वे येन केन प्रकारेण पदासीन रहे अथवा हैं।
इतिहास लेखन किसी स्वतंत्र चिन्तक के द्वारा नहीं लिखा गया बल्कि स्वतंत्रता के बाद भी आश्रितों के ही अधीन रहा। इसीलिए पुराकालीन ज्ञान शाखायों के प्रति अवहेलना की वृति रही है। आधुनिकों ने भी इस ओर सोचना नहीं चाहा ,क्योंकि आधुनिकता खतरे में पड़ने की संभावना से ग्रसित रही। यूजी सी जैसी संस्था भी इधर नहीं सोच रही। पुरातन ज्ञान की धारा को लुप्त करने में ही पुरुषार्थ समझाने वाले पंडितों ने हमें आवृत कर लिया है।
आज एक संत ने स्वर्ण का स्वप्न क्या देख लिया कि सभी भौतिक विद तिलमिला उठे। धुर से वाणी भी उतरती है,  इस ओर कोई ध्यान नहीं दे रहा। हिन्दोस्तान में भूगर्भवेत्ताओं की बीस से अधिक  श्रेणियां विद्यमान रही हैं , यह वही देश है जहाँ अनपढ़ आदमी छड़ी की नोक से धरती में पानी कहाँ और कितना गहरा है ,जान जाते थे।
हमें यह समझना चाहिए कि कथावाचकों और अपनी ही पूजा करवाने के लिए उत्सुक लोगों को इस देश ने कभी संत नहीं माना . न ही पंडित और पुरोहित भी ज्ञानियों ,ऋषिओं और संतों की परम्परा में परिगणित हुए हैं।
संत अंतर्गत साधक ,मौन चिन्तक ,और प्रयोगात्मक ऋषि रहे हैं ---इस और ध्यान देना आवश्यक है। ………… क्रमश :……………. अरविन्द

गुरुवार, 17 अक्तूबर 2013

ग़ज़ल

भावों के जंगल के अजीब परिंदे हैं
पर जला के अपने फिर मुस्कुराते हैं .
प्यार को तो बेवजह हम दोष देते हैं
मूर्खों के सिरों पर सींग नहीं होते हैं।
यार  दरख्त का पका फल नहीं होता
अंधे हैं वे जो तोतों की  चोंच होते हैं .
संभालना नहीं आता जिन्हेंखुद दुपट्टा
जिन्दगी की धार में बेतरतीब होते हैं।
उनके लिए तो हम बस नंग मलंग हैं
अनिकेतों के लिए घर घर नहीं होते हैं।
क्यों  भेजूँ ख़त मैं  अपने प्रियतम को
हर जगह उसके जो दर्शन मुझे होते हैं।
किसी की आँख का पर्दा क्यों उठायें हम
अंधों की बस्ती में दर्पण नहीं होते हैं। ………………. अरविन्द ग़ज़ल


बुधवार, 16 अक्तूबर 2013

आवारा चिन्तन

                                         आवारा चिन्तन
                                      सत्संग  का निहितार्थ
आज परमात्म दर्शन की अनेक दुकानें खुल चुकी हैं। अधिकाधिक मात्रा में अदृश्य का व्यापार हो रहा है। कितनी विचित्रता है कि जो दीखता नहीं वही सबसे ज्यादा बिक रहा है। और परिणाम सुखद नहीं मिल रहे। इसलिए धर्म और अध्यात्म भौतिक जगत की सत्यता को समझना मेरे जैसे सामान्य व्यक्ति के लिए आवश्यक है। क्योंकि मेरी मान्यताएं प्रचलित धारणाओं को स्वीकार करने में असमर्थ हैं। मैं अनास्थावादी नहीं हूँ ,न ही मैं ईश्वर के अस्तित्व को अस्वीकृत करता हूँ। मैं भी परमात्मा को चाहता हूँ और परम्परा से प्राप्त ग्रन्थों का पारायण भी करता हूँ। मन्त्र पाठ ,भजन मुझे भी अच्छे लगते हैं परन्तु परमात्मा के नाम पर स्थापित मत मतान्तर कुछ प्रिय नहीं लगते। आजकल के धर्माधिकारियों के प्रवचनों के साथ ,पाखण्ड और अनर्थ कारी अर्थों और व्याख्याओं के साथ मेरा मन नहीं मिलता है। मुझे लगता है कि इन दुकानों से अलग होकर ही उस तक पहुंचा जा सकता है।
हमारा आर्ष चिंतन ,हमारे ऋषि ,हमारे कबीर ,नानक ,दादू ,सुंदर दास ,मलूक सहजो ,दया ,तुलसी सूर ,मीरा आदि अच्छे लगते हैं क्योंकि उनमें मौलिकता है। सृजन है। और असंगता है। इन निर्मल संतों, साधकों ने सामान्य मनुष्य के लिए धर्म और अध्यात्म के मार्ग को सुगम करने के लिए सत्य कहा है। इनकी वाणी और कर्म एक है। इनके द्वार खुले हैं। ये खिडकियों से नहीं झांकते। इन्होनें परमात्म प्राप्ति के लिए सत्संग ,समर्पण ,गुरु सिमरन ,एकांतिकता ,निर्मलता ,करुणा ,प्रेम और सद्भाव को महत्व दिया है। दुर्भाग्य यह है कि संतों के यही शब्द आज हमारे दोहन का कारण बन रहे हैं। जिस मनमुखता का इन संतों ने तिरस्कार किया वही मनमुखता आज दिखाई दे रही है ,इसीलिए समाज में भ्रम और अज्ञान है ,द्वेष और दुर्भाव है ,पाखण्ड और भौतिक सुखों की उपासना है। और अन्ततोगत्वा पश्चाताप है।
भक्ति का एक मात्र अर्थ विशुद्ध ,निष्कलुष और निस्वार्थ प्रेम है। एक ऐसा भाव ,जहाँ भी अनन्यता होगी। आत्मीयता होगी वहीँ भक्ति का संवाहक बन जाता है। इसी प्रेम से अनुरक्ति उत्पन्न होती है ,जो ईश्वरानुरक्ति में परिणत हो जाती है। इसी ईश्वरानुरक्ति को प्राप्त करने के लिए सत्संग के महत्व को सभी स्वीकार करते हैं।
सत्संग का अर्थ सत का संग है ,किसी व्यक्ति या संत का संग नहीं। परन्तु आज तथाकथित कथावाचकों ,प्रवचनकर्ताओं ,व्याख्याकारों और असधाकों के संग को ही सत्संग माना जाने लगा है। इसीलिये एकान्तिक साधना लुप्त हो चुकी है और माया ,प्रपंच ,पाखण्ड का नग्न नृत्य दृष्टिगोचर है। परिणाम यह है कि मनुष्य परमानन्ददायिनी भक्ति की मधुमती भूमिका में  प्रवेश नहीं कर पाते।
सत्संग का अर्थ किसी के पास जाकर कथा श्रवण करना नहीं है बल्कि यह व्यक्तिगत साधन की अनुभूति की शांत स्वीकृति है। व्यक्ति के संग से दोष उत्पन्न होता है और बहुश्रुत होने से ज्ञान की प्राप्ति नहीं होती। उपनिषद भी कहता है ,नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो ,न मेधया न बहुना श्रुतेन। सत का संग अर्थात रजस और तामस से मुक्ति क्योंकि राजसिकता और तामसिकता हमें बहिर्गत करती है ,इंद्रिय सुख की ओर ले जाती है जबकि सत हमें अंतर्जगत की ओर उन्मुख करता है। यहीं से परमात्म दर्शन का मार्ग खुलता है।
मनुष्य त्रिगुणात्मक है जबकि परमात्मा त्रिगुणातीत। सत का संग ही त्रिगुण से मुक्ति का साधन है। तो क्या आज के तथाकथित संत कथावाचक या प्रवचनकर्ता हमें त्रिगुण से मुक्त कर पा  रहे हैं नहीं ,बल्कि आज जिनके पास भीड़ साष्टांग दण्डवत करती है उनका व्यक्तित्व और जीवन दैहिक ,भौतिक और मानसिक सुखों का अभ्यस्त है। वे संगीत की लहरियों पर एन्द्रिय सुख की ओर ले जा रहे हैं। यह सत्संग नहीं हो सकता। इसीलिए आज समाज का दोहन हो रहा है। और वास्तविक संत ढूंढे नहीं मिल रहे। ………………अरविन्द

मंगलवार, 15 अक्तूबर 2013

हम कितने अच्छे होते थे

हम कितने अच्छे होते थे
जब दांत हमारे सच्चे थे।
हीरे मोती दमकते थे ,
मुस्काते थे ,बहलाते थे।
वे दांत नहीं ,वे पत्थर थे ,
सब कुछ पीसते जाते थे।
माता जब चुगती दाल सुघर
फिर भी आ जाता कंकड़ पत्थर
वे किर्च किर्च पिस जाते थे ,
जब दांत हमारे सच्चे थे।
भटियारिन की भट्टी पर
हम नित शाम को जाते थे
पक्की मक्की के दानों को
हम दांतों तले चबाते थे।
बूढ़े हमको तब देख देख
पछताते थे ,कुढ़ जाते थे ,
हम हँसते थे ,मुस्काते थे।
जब दांत हमारे सच्चे थे ,
दस्सी,पंजी ओ अठन्नी को
दुहरी तिहरी कर जाते थे।
बर्फ के मोटे टुकड़ों को हम
तड तड कर खा जाते थे।
हम कितने अच्छे होते थे।
अब बड़ी  मुसीबत भारी है
मुहं पोपल पोपल पोपल है
स्वार्थी मित्रों की तरह
दगा दे गए दांत, अब खोखल है।
अब ठंडा भी कड़वा लगता है ,
अब मीठा भी कडुवा लगता है
पकी कचोड़ी भाती है ,पर
जख्म बड़े दे जाती है।
गोलगप्पे ललचाते हें
मसूड़े  सह नहीं पाते हैं।
जब बच्चे दाने खाते हैं --
हम उठ छत पे आ जाते हैं।
एक और मुसीबत भारी है
भाषा नहीं रही शुद्ध ,लाचारी है।
प,फ पर जीभ फिसल जाती
य र ल व् सब फंसता है।
तालव्य हुए अब सभी ओष्ट
मूर्धन्यों के अब फटे हौंठ
संध्यक्षरों पर जीभ तिलकती है
हिन्दी अब हिब्रू लगती है।
संस्कृत का है बुरा हाल
संगीत हुआ अब फटे हाल
तब मौनी बाबा हो जाता हूँ
क्लिष्ट शब्दों को लिख कहता हूँ .
अब जीवन का रस बीत गया
न वक्ता ही रहा ,न भोक्ता ही रहा
सब रस विरस ,नीरस ही हुआ
दन्त हीन हुआ ,वेदान्त हुआ।
अहंकार गया पानी भरने ,
व्याख्यान गया पानी भरने
उपदेश सभी अब व्यर्थ हुए
अब आत्म शोध के मार्ग खुले।
अब अंतर चिंतन प्यारा है
अब अंतर मंथन प्यारा है।
वेदान्त हुआ ,वेदांत मिला
आत्म दर्शन का द्वार खुला। ……………. अरविन्द




गुरुवार, 10 अक्तूबर 2013

आवारा चिन्तन

                                        आवारा चिन्तन
भारतीय संस्कृति में दो अत्यन्त महत्वपूर्ण शब्द हैं ---विद्या और शिक्षा। आज इन दोनों शव्दों पर विचार करना इसलिए आवश्यक प्रतीत हो रहा है क्योंकि हमारे समस्त तथाकथित विद्या केंद्र अपना चरित्र और आधार खो चुके हैं। स्कूल ,कॉलेज ,यूनिवर्सिटीज --सर्वत्र अकुशल प्रबंधन के कारण असुरक्षित अस्तित्व में जी रहे हैं। ईमानदारी और मूल्य -निष्ठां को संघर्षशील होना पद रहा है।
प्रसिद्ध लोकोक्ति है --विद्या विचारी ता परउपकारी। कहीं किसी भी केंद्र में आपको इस लक्षण का कोई भी उदहारण मिल रहा है ?विद्या व्यक्ति को सद्भाव ,प्रेम,सत्य -शीलता ,उदारता और साधना जन्य संतोष प्रदान करती है ,जबकि आज के तथाकथित विद्या वान, कुर्सीवान ,पदवान न सद्भावी हैं ,न सहनशील ,न प्रेमी ,न उदार और न ही करुणापूर्ण हैं। बल्कि स्वार्थ ,निजी हितसाधन ,चाटुकारिता और लिप्सा के मूर्त रूप हैं। इसी कारण सभी शिक्षा केन्द्रों में गहरा असंतोष विद्यमान है।
विद्या के केंद्र हों और असंतोष हो ,तो सर्वतंत्र स्वतंत्र  ज्ञान के द्वार तो रुद्ध ही रहेंगे। इसका अर्थ है कि ये केंद्र ज्ञान और विद्या के नहीं रहे बल्कि ऐसी शिक्षा के केंद्र बना दिए गये हैं ,जो समस्त अमानवीयता की जननी है।
विद्या उद्घाटन है जबकि शिक्षा अर्जन। अपने स्कूल तथा कॉलेज के विद्यार्थियों में अर्जित दुर्गुणों की संख्या गिनें। हमने क्या अर्जन किया है समझ आ जाएगा।
अधिकतर शिक्षित व्यक्ति आज मानसिक रूप से बीमार हैं ,परपीडन को अपनी शक्ति समझने वाले ,दूसरों के अधिकारों का हनन करने वाले ,प्रतिस्पर्धा में उतरने के स्थान पर गोटी बिठाने वाले ----स्वस्थ नहीं हो सकते। और अधिकतर संख्या इन्हीं लोगों की है। केंकड़ा वृति का सबसे ज्यादा प्रयोग शिक्षा संस्थानों में देखा जा सकता है।
वर्तमान शिक्षा प्रणाली ने समाज का हित साधन नहीं किया ,केवल रोजी रोटी कमाना या हथियाना ,हड़पना ही सिखाया है। आप तुलना करें ---तक्षशिला से आदमी बन कर निकलते थे आज तंत्र के पुर्जे या नौकर निकल रहे हैं।
विद्या या ज्ञान अनुभव का हस्तांतरण है ,पुस्तक तो केवल साधन है।
आज नकटा समाज है जो अपनी संख्या को ही बढ़ा रहा है क्योंकि प्रजातंत्र में संख्या का बल ही वास्तविक बल माना जाता है। इसी कारण मूल्य हीनता जन्म ले चुकी है ,पदों का दुष्प्रयोग इसीलिए है। असुरक्षा और उत्पीड़न भी इसीलिए है। और इसीलिए ईमानदार कर्मशील व्यक्ति को संघर्ष करना पड़ता है ---यह बेहद आवश्यक भी है। हम क्यों नकटा सम्प्रदाय के सदस्य बनें।
मित्रो !बीमार व्यवस्था पर विचार करना भी जरूरी है क्योंकि हम कहीं पर भी स्वस्थ और सुरक्षित नहीं हैं।
1 .  आज न धर्म स्वस्थ और सुरक्षित है क्योंकि वहां आसारामी वृति घुसपैठ कर चुकी है।
2 . न राजनीति स्वस्थ है क्योंकि वहां असहाय मौन स्थापित कर दिया गया है।
 3 . न ज्ञान सुरक्षित है क्योंकि साम्प्रदायिक चिन्तन  ने उसे खंडित कर दिया है।
 4 .  न खान --पान सुरक्षित है क्योंकि वहां जहर भरा जा चुका है।
 5 .  न प्रबन्धन स्वस्थ और सुरक्षित है क्योंकि वहां भेड़िया धसान और भ्रष्टाचरण प्रवेश कर चुका है।
 6 .  न गलियाँ और सड़कें सुरक्षित हैं वहां बटमार ताक लगाए बैठे हैं।
      
सोचिये तो सही कि हम कहाँ सुरक्षित हैं ----यह सब शिक्षा में मूल्यों के अभाव और गुणों की अनुपस्थिति के कारण तो नहीं कहीं ?………. अरविन्द


मंगलवार, 8 अक्तूबर 2013

अरविन्द दोहे

अरविन्द दोहे
मन्त्र जपे प्रभु मिले नहीं न तीरथ माहीं वास
निर्मल कर रे निज मानसा ताहि छवि निहार।
भटकत भटकत भटक गया ,मिटी न भव की चाह
गुरु न मिला विलक्खना या हौंस रही मन माहिं
माही मेरा बहुत  विचक्षना  जाने सब कुछ मोर
मैं मूरख अति विलक्षना कहूँ होर अति होर।
प्रभु की इच्छा करो मन ,प्रभु से इच्छा नाहिं
भव बंधन छूटेगा मना भव खंडन कर गाहिं।
साईं तो मौनी भया, नाहीं सुनत पुकार
किस भाषा टेरू तुझे ,प्रभु मेरी ओर निहार।
फाटा मेरा चोलना टूटा मम का ताग
आके अब उबार लो ,लागी उलटी धार।
कर कर कर कर ही गया ,करतब किया न कोय
करतब जो भी किया प्रभु , करतम करतम होय। ………. अरविन्द


सोमवार, 7 अक्तूबर 2013

कुपित ग़ज़ल

कुपित ग़ज़ल
हम अपने प्यारों के लिए गज़ल लिखते हैं
किस्मत के मारों के लिए गज़ल लिखते हैं।
दिखती नहीं चांदनी में भी अब हमें चांदनी
बेबसों की बेकसी मजलूम गज़ल लिखते हैं .
पदों पर जम गए खूंखार मगरमच्छों से वे
जालिमों के जुल्म को गज़ल में लिखते हैं।
सियार आके बस गए हैं इस जंगल में अब
हिरणियों की भीत आँखों की गज़ल लिखते हैं .
वोटों के लिए बिक गये जो शैतान हाथों में
सिसकते लोकतंत्र की हूक गज़ल लिखते हैं।
घोंसलों में महफ़ूज नहीं चिड़ियों के बच्चे
उल्लु की शातिर निगाहों की गज़ल लिखते हैं .
आशा की कोई किरण नहीं दीखती अब कहीं
बदकिस्मती से हम अंधेरों की गज़ल लिखते हैं। ……अरविन्द

मंगलवार, 1 अक्तूबर 2013

खुल कर खूब हँसे हम .

कुर्सी पर टटुआ आ बैठा
खुल कर खूब हँसे हम
व्यवस्था का उठा जनाजा
खुल कर खूब हँसे हम।
चोर चोर मौसरे भाई
मिल बैठ चखें मलाई
घात लगा के माल उड़ाते
बचा नहीं पाए अपना धन
खुल कर खूब हँसे हम।
भोले भाले साधु बनकर
लुच्चे ही अब अच्छे बनकर
टुच्चे सारे गुच्छे ले गए
कुर्सी पर आ बैठे धम धम
खुल कर खूब हँसे हम .
कैसी लीला तेरी प्यारी
कौए ने पिचकारी मारी
गोपी हुई बेहाल बेचारी
उल्लू खा गये माखन सारी
टुकुर ताकते रह गये हम
खुल कर खूब हँसे हम .
प्रमाण पत्र ले झूठे सारे
श्वेत केशी अध्यापक न्यारे
गंभीर मुखौटे भर ले गये लोटे
शिक्षक बन शौषण हैं करते
नियम कर दिए सारे दफ़न
खुल कर खूब हँसे हम।
तिलक लगाये धूनी रमाते
इच्छा पूरी के वारदाते
कृष्ण रूप ले रास रचाते
काम प्यारा चाम दिखाते
राम नाम की चादर ओढ़े
छुरी दिखाते चम चम चम
खुल कर खूब हँसे हम। ……. अरविन्द

बुधवार, 10 जुलाई 2013

यही तो...

बस ! यही तो अब  रोना है
दागियों का सांसद होना है
कक्षा में नहीं आते विद्यार्थी
अध्यापकों का जादू टोना है .
महंताई के लिए तड़पते साधू
मुफ्त के माल से भरा दोना है
रावणों में राम को तलाश रहे
कवियों के चमत्कार का रोना है
स्कूलों में कुटिलता पढ़ा  रहे
प्रिंसिपलों का अप्रिंसिपल होना है ......अरविन्द


गुरुवार, 4 जुलाई 2013

.हमारी जातिगत नपुंसकता ..

आज खबर सुन रहा था कि केदार नाथ में मृत शरीरों को कौए और कुते नोच रहे हैं ..सरकार कुछ नहीं कर रही .....मैं  हिन्दुओं और सनातन धर्मियों की मानसिकता पर सोचने लगा कि कैसी है यह कौम जो न तो  देवता की रक्षा कर रही है ,न ही तीर्थों की और न ही अपनी जाति की .बल्कि नपुंसकों के समान सरकारों की और देख रही है .हमारे सभी धर्म गुरु   ,सभी शंकराचार्य जो पूजा होनी चाहिए या नहीं ..इस विषय पर विवाद कर रहे हैं ..सभी बापू चुप हैं ...किसी ने भी जनता की सुध लेने की कोशिश नहीं की .हिन्दू गृहस्थ इन लोगों का पालन पोषण करता है ,इनमें से कोई भी न तो मंदिर के पुनर निर्माण के लिए आगे आया है न ही किसी ने शवों के दाह संस्कार की व्यवस्था में कोई योगदान दिया है ,न कोई आन्दोलन  हिन्दू  पीड़ितों के लिए हुआ और  न मंदिर के लिए ....उपदेशकों की इस लम्बी चोडी जमात को क्या हमने चाटना है ...लोग खुद जूझ रहे हैं और सरकार बेशर्म ताक  रही है ..क्यों न हम इन तथाकथित धर्माधिकारियों का तिरस्कार करें ..यह संकट, जाति की परीक्षा है ,जिसमें हम और हमारे  समस्त पीठाधीश्वर बुरी तरह   से असफल सिद्ध हुए हैं ...यह एक पराजित और त्रस्त कौम की त्रासदी है ....हमें राजनीतिज्ञों को छोड़ कर अपने आप और अपने धर्म गुरुओं की क्लीवता के बारे में सोचना होगा .संसार में शायद ही कोई कौम ऐसी हो जिसने  स्वयं को लुप्त कर देने और तिल तिल कर नष्ट होने के साथ समझोता कर लिया हो ...जिस जाति के साधू ही माया के प्रपंच से मुक्त नहीं हो पाए वे किसी का क्या उद्धार करेंगे ?... ..अब इन लोगों को प्रणाम तक करने को मन नहीं चाहता ..ये सभी संकट के समय हमें मंझधार में छोड़ देने वाले हैं ...अमानुष ................अरविन्द 

शनिवार, 22 जून 2013

केदार त्रासदी ...

केदार त्रासदी ...
     रहिमन विपदा हू भली जो थोड़े दिन होए .
     हित अनहित या जगत में जान पड़े सब कोय .
केदार की त्रासदी ने इस देश के गिरते हुए चरित्र के वीभत्स रूप को दिखा दिया है .देश के गृह मंत्री को यह राष्ट्रिय आपदा नहीं लगती ...यह राजनीति की कुरूपता है ...और इनसे ऐसी आशा थी .सरकार की ओर से इन यात्रियों के लिए कोई संवेदना नहीं है ...इसे समझ लेना उन लोगों के लिए जरूरी है जो इन्हें चुनते हैं .
दूसरे ,असहाय यात्रियों को केदार ,बदरीनाथ इत्यादि प्रदेशों के निवासियों से कोई सहायता नहीं मिली ..यह ज्यादा चिंतनीय और अशोभनीय है .लोग लकडियाँ जलाने  के लिए माचिस मांगते हैं उन्हें कोई माचिस नहीं देता .क्या देव स्थानों पर राक्षस रहने लग गए हैं .?.
तीसरे ,और भी अधिक शर्मनाक ...मंदिर में चढ़े हुए धन की लूट ,...पतन की पराकाष्टा है ...किसने इस देश के लोगों को लोभी ,लालची और शवों के व्यापारी बना दिया ..विचारणीय होना चाहिए . मनमोहन ने ,तो धिक्कार है उसे ,वैसे वह आदमी नहीं कठपुतली है ..लानत है .
चौथे ,सरकार झूठी है ..इसमें कोई संदेह नहीं रहा .जो देश को मृत लोगों की सही संख्या नहीं बताना चाहते धिक्कार के पात्र होने चाहियें .
मोदी को वहां जाने से रोकना कांग्रेस के दिवालियापन को दिखाता है .
हमारा दुर्भाग्य है जो हम इस पतनोन्मुख भारत को देख रहे हैं ...राजनीतिज्ञों ने तय कर लिया है कि वे पार्टी हित को प्रमुख रखेंगे ,देश हित चाहे भाड़ में जाए .
सभी इंसानियत पसंद लोगों को राष्ट्रिय शर्म दिवस की घोषणा कर देनी चाहिए ...अरविन्द

गुरुवार, 20 जून 2013

केदार की त्रासदी

केदार की त्रासदी ...प्रकृति का दोष नहीं है ....
जब हमनें पहाड़ों में ब्लास्ट करके उनकी जीवनी शक्ति छीन ली हो ,जब हम बाँध बना कर जल की गति का अवरोधन कर दें ,वृक्ष हमारे तथाकथित विकास की बलि चढ़ जाएँ ,तीर्थ स्थानों को हम पर्यटन स्थल बना लें ,जहाँ तप ,साधना ,यम -नियम आवश्यक हों वहां हम विहार करने की मनोवृति से जाएँ ,वहां प्रकृति के प्रकोप की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता .
हम तीर्थ का अर्थ और यात्रा के पारंपरिक नियम भूल चुके हैं .जहाँ शुचिता आवश्यक है वहां मानवीय मल ,.. प्रकृति स्वीकार नहीं करती .
हम कितने असहाय ,बोनें और अदूरदर्शी हैं जिन्होंने अभी तक पहाड़ों की प्रकृति के अनुसार न तो सडकों का निर्माण किया है और न ही ऐसे पुल बना सके हैं ,जो पानी के प्रवाह को झेल सकें ..दिल्ली में सारा साल यमुना को हम गंदा करते हैं ,हर साल यमुना उसी गंदगी को वापिस हमें ही लौटा देती है ,क्यों नहीं हमारी सरकारों के प्रज्ञाचक्षु नदियों के प्रवाह को संरक्षित करते ?समाज भ्रष्ट हुआ है प्रकृति भ्रष्ट न हुई है और न ही भ्रष्टता को स्वीकार कर सकती है .
जब तक हम प्रकृति का शोषण और दोहन करते रहेंगे तब तक ये विनाश लीला भी होती रहेगी .
मुझे हिन्दुओं पर रोष और अफ़सोस हो रहा है क्योंकि इन्होंने कभी अपने तीर्थ स्थानों ,मंदिरों और देवताओं की स्वच्छता की ओर बिलकुल भी ध्यान नहीं दिया है .सभी मानवीय और प्राकृतिक नियमों की अवहेलना इनके मंदिरों और तीर्थों में देखि जा सकती है ..जो स्वयं सत्य से सुन्दर और सुन्दरता को सुरक्षित नहीं रख पाते ,तो शिव इनकी रक्षा क्यों करे ?
 सरकार और राजनीतिज्ञ अब कह रहे हैं कि केदार नाथ का रास्ता बनाने में और फिर से यात्रा आरम्भ करने में तीन साल लग जायेंगे ...किसी भी हिन्दू संघठन ने इस वक्तव्य पर आपत्ति नहीं की .कोई भी संघटन आगे आकर यह नहीं कह पाया कि हम अपने स्वयंसेवकों के साथ इस रास्ते को एक महीने में शुरू करेंगे .न किसी मठाधीश ने कहा और न किसी राजनीतिक दल ने ..
यह वह जाति है जो न अपने धर्म की ,न परम्परा की, न संस्कृति की , न संस्कारों की न अपने परमात्म विग्रह की रक्षा कर पायी है ,तो धर्म इस जाति की रक्षा क्यों करे ?ये लोग तो केवल अवतारों की प्रतीक्षा ही कर सकते है .इनका स्व -सामर्थ्य नष्ट हो चुका है ...कछुया मनोवृति ही पतन का कारण है और इसे ये छोड़ नहीं सकते ...काल इन्हें शेष करेगा हाथ ले कर्कश कशा .
इस मृत प्राय जाति में पुनर्जीवन कैसे लाया जाए ?कोई बिंदु नहीं सूझता ....फिर भी हाथ पर हाथ धर कर बैठा नहीं जा सकता ..इन्हें चींटियो से शिक्षा लेनी चाहिए, जो संकट के समय अपनी जाति की रक्षा के लिए, ये नहीं देखतीं की उनके द्वारा उठाया गया अंडा किसका है .....अरविन्द

शनिवार, 8 जून 2013

गजल

गजल
खामखाह लोगों को तराशा न कीजिये
गजलों को दोषों से नवाज़ा न कीजिये .
दर्पण तो दर्पण है प्रतिबिम्ब दिखायेगा
अपने आप को भी जाँच लिया कीजिये .
राजनीति ने चौसर तो बिछा रखी है यहाँ
अनाड़ी खिलाड़ी को बिठाया मत कीजिये .
बादल घेर लेते हैं आकाश सावन महीने में
बेमौसम की बरसात में  भीगा न  कीजिये .
हुस्न कोई नियामत नहीं  खुदा अपने की
आँखों को अंजन से भी आँज लिया कीजिये .
बहुत मासूम है अपने इन  दुश्मनों का चेहरा
हर मूर्ति के सामने माथा टिकाया न कीजिये .
लोग  बेबजह  हँसते नहीं रहते हर  किसी पर
अपने जख्म हर किसी को दिखाया न कीजिये .
मेमनों की तरह हम क्यों मिमियाते रहें हरदम
राम बालों के  बगल की छुरी पहचाना कीजिये ......अरविन्द



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मंगलवार, 4 जून 2013

अरविन्द कुण्डलियाँ

कालेज की अब मैं कहूँ बड़ी अनोखी बात
इक दूजे के प्रति सब रचते घात प्रतिघात .
रचते घात प्रतिघात प्रकांड पंडित हैं रहते
ज्ञान झौंक दिया आग कभी उठते हैं गिरते
ख रहे अरविन्द कवि मिले नित नई नोलेज
काँव काँव सब कर रहे,अपना ऐसा है कोलेज .
.............................................................

प्रिंसिपल ऐसे मिले हमें,  न सिद्धांत न ज्ञान
लड़वा रहे एक दूजे को  अपनी  बघारें शान .
अपनी बघारें शान ,विप्र संग कर ली मिताई
धन गटक रहे मासूमों के  नित छकें मलाई .
कहे अरविन्द कवि चतुर्थ श्रेणी रोये प्रतिपल
फाइलों के ढेर पर  बैठा ठाला अपना प्रिंसिपल .
.....................................................................
विद्वान हमें नहीं चाहिए ,चाहिए चापलूस
डिग्री  उसकी  बड़ी हो ,पर तलवे चाटे  खूब .
तलवे चाटे खूब ,वाही  प्रिंसिपल  बन  जावे
प्राइवेट विद्यालय में ,झूला जो खूब झुलावे.
कहे अरविन्द कवि राय सजाये ज्ञान दूकान
नव रत्नों में बैठ सज रहे चापलूस  विद्वान .
.....................................................................
डोनेशन ,ग्रांट पर चलाओ शिक्षा की दुकान
यू .जी .सी .से धन मिले हो जाओ धनवान .
हो जाओ धनवान ,भाड़ में जाएँ सब बच्चे
हमें चाहिए फ़ीस बस ,बन जाएँ चाहे लुच्चे
कहे अरविन्द कविराय पायेगा वही प्रमोशन
हेरा फेरी जो  करे , भरे  नित डिब्बा डोनेशन
.......................................................................अरविन्द 

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ग़ज़ल

पाँव भी सुंदर तेरे पायल भी तेरी सुंदर
तू झूम झूम नाचे कत्थक भी तेरा सुंदर .

आँखों में तेरे जानम मस्ती का समंदर है
पलकें भी तेरी सुंदर ,नजरें भी तेरी सुंदर .

नागिन सी तेरी वेणी लहरा कर झूमती है
नितम्बिनी तू सुंदर गजगामिनी तू सुंदर .

होंठ फूल गुलाबी ,लगते हैं मुझे शराबी
रस भी तेरा सुंदर ,मुस्कान तेरी सुंदर .

कटि केहरि लरजती कुछ कह कर जाती है
शरमाना तेरा सुंदर ,लहराना तेरा सुंदर .

सुकंठ तेरे माला ,कुचद्व्य को चूमे है
नाभि भी तेरी सुंदर ,त्रिवली भी तेरी सुंदर .

प्रभु की लिखी कविता तू मोहे भासती है
श्यामा सी तू सुंदर ,कृष्णा सी तू सुंदर ,............अरविन्द

सोमवार, 3 जून 2013

कलयुगी संहिता

                    कलयुगी संहिता
भागवत को पढ़ लिया भागवत न हो सके .
शतश: पढ़ी रामायण पर राम के न हो सके .
काम के चाकर बने दुर्वासनाओं में हम पगे .
न इधर के ही रहे ,न उधर के  हम  हो सके .
कर्म ऐसे किये कि रावण भी शरमा गया .
कंस फीका पड़ गया ह्रिन्याक्श लजा गया .
संतत्व के आवरण में हम पर द्रव्य छक गए .
स्वार्थ के हिमवान की चोटी पर हम चढ़ गए .
दुःख दैन्य पीड़ा संताप अवसाद सबको दिया .
दूसरा भी अपना है ,स्वीकार न हमने किया .
भ्रष्टता के दुष्टता के आसुरी भावनाओं के -
हम खिलोने बने और  नाचे दुरात्माओं से .
सदात्मा का तिलक माथे पर न हम लगा सके
भागवत को  पढ़ लिया, भागवत न हो सके .
प्रेम पाखण्ड हमारा ,परमार्थ ईर्ष्या द्वेष है .
विष पूर्ण घट का आवरण हिरण्य कोष है .
पंथ न अपना कोई न दीन ,न मजहब हुआ .
दूसरों को दुःख देना ,यही  तो कर्तव्य हुआ .
क्लेश में जन्में पले हम क्लेश ही माता पिता
क्लेश ही जीवन हमारा ,क्लेश ही दाता हुआ .
क्लेश ही कलयुग का मंत्र ,क्लेश ही नामदान
क्लेश के ही कर्म सारे ,क्लेश ही महान दान .
सुख ,सौन्दर्य ,समाधि ,शिव न हम जी सके .
शतश: पढ़ी रामायण हम राम के न हो सके .
पर पीड़ा है साधना ,पर  दुःख  अपना देवता.
दूसरों को रोता देख, हँसता है अपना देवता .
क्यों स्वर्ग की इच्छा करें क्यों पुण्य की कामना
दूसरे को दुःख देना यही हमारी हठ  साधना .
माता ,पिता, भाई ,बन्धु जगत सब व्यर्थ है
हम ही समर्थ ,हम ही समर्थ, हम यहाँ समर्थ हैं .
परदोष -दर्शन ही हमारा चिरंतन महा यज्ञ है
पर निंदा आहुतियाँ ,पर सर्वस्व हरण हव्य है .
होता है हम स्वार्थ के, अध्वर्यु आत्म पूजन के
ब्रह्मा आत्म सुख के हम ,पुरोहित मनभावन के .
मृत्यु निश्चित है यहाँ पर, मरण शील संसार है
क्यों न करें आत्म सुख कामना ये ही व्यवहार है .
हमें नहीं चिंता कि हम भागवत न हो सके
शतश: पढ़ी रामायण ,हम राम के न हो सके .
निराश हो कर कृष्ण को भी यहाँ से जाना पड़ा
मौन होकर मर्यादित राम को सरयू गहना पड़ा .
दूसरों को सुख देकर क्या मिला अवतार को  ?
थोड़ी पूजा ,धूप बत्ती मिला रुक्ष प्रशाद  हो ..
एक कौन स्थिर किया और जोड़ दिए हाथ दो
सर झुकाया आरती की भिड़ा दिए किवाड़ दो .
मन लगाया दस्यु युक्ति में ,मंत्र सारे जप लिए
फिर पाप सारे कर लिए ,दुष्कर्म सारे कर लिए .
क्या करें भगवान् का जो दीखता नहीं संसार में
खुदा  ही के नाम पर सब पाप होते हैं  संसार में .
फिर क्यों डरें हम कुकृत्य से ,असत दुष्कर्म से .
जीना यहाँ ,मरना यहाँ स्वप्न व्यर्थ स्वर्ग के .
एक ही है सत्य सारे जगत में जो है जागता
हम ही अपना कर्म हैं और हम ही अपने भोक्ता .
पुण्य कर्मा दुःख भोगें या सहें अपघात वे
राम के चाहे बने या हो जाएँ भागवत वे .
कर्म उनका उन्हें मिलेगा फल भी वही भोगें
स्वर्ग में रहें ,वैकुण्ठ या रहें गो धाम में
हमें नहीं चिंता कि हम नित नर्क वास करें
जगत भी तो नर्क क्यों मृगतृष्णा दुःख सहें .
क्यों न भोगें देह सुख क्यों न मन मानी करें
जीना अपना है तो चाहे उल्टा जीयें सीधा मरें .
निन्दित जग में भले हम ,जीभ का रस मिले
रूपसी नारी मिले और आँख का भी सुख मिले
इन्द्रियों का शक्ति से रस पूरा ही निचोड़ लें
गात कोमल सा मिले ,देह का सुख भोग लें .
यही दर्शन है जगत का ,यही जीवन ज्ञान है
सुख अपरिमित, व्यक्ति सुख ही महान है
भागवत भी यहाँ के धर्म का पाखण्ड है
राम कथा धन -साधना का स्रोत प्रचंड है .
राम इतना नहीं प्रिय धन धाम जितना है प्रिय
भागवत की ओट में केवल गोपियाँ ही हैं प्रिय
यही कलयुग मन्त्र ,यही कलयुग साधना
संहिता कलयुग की ,यही युग की आराधना ............अरविन्द







रविवार, 2 जून 2013

कुण्डलिया छन्द

कुण्डलिया छन्द
कविताओं के राज में नहीं पड़ा अकाल
कविता  के पीछे भगे कवि हुए बेहाल .
कवि हुए बेहाल गिरे जो एक भी पत्ता
लिख दसियों भाव ज्यों लत्ते पे लत्ता।
कहे अरविन्द कवि सजे जैसे कोई वनिता
ऐसे ही सज रही आज कविता पर कविता ....अरविन्द
 

मुहब्बत ही इबादत है .

इबादत ही मुहब्बत है ,मुहब्बत ही इबादत है .
आदमी की ही नहीं यह ,खुदा की रियासत है .
मुहब्बत का नहीं मजहब न है  कोई किताब
हिसाब मुहब्बत का, आदमी की सियासत है .
इजाजित लें मुहब्बत करे कोई हो नहीं सकता
मुहब्बत पहरेदारों के प्रति खुदा की बगाबत है .
कोई मुल्ला ,कोई पंडित न ठेकेदार मुहब्बत का
जड़ हो चुके धर्म विरुद्ध प्रेमियों की बगाबत है .
मुहब्बत खुदा की आग हर कोई ले नहीं सकता
दिल के मंदिर में यह खुदा की ही हिफाजत है .
न जिस्म ,न जां कभी  मिलते है मुहब्बत में
रूह की पुकार मुहब्बत ,खुदा का स्वागत है .
डर डर कर कभी कोई मुहब्बत कर नहीं पाया 
मुहब्बत बंदगी है वहाँ खुदा माशूक सलामत है ..........अरविन्द
......................कवी श्री सूद के लिए ....................

शनिवार, 1 जून 2013

झूठ कहते हैं कि आदमी में ईश्वर का वास है ,
असभ्य जंगली जानवर आदमी का आवास है,
क्रूरता ,पशुता ,आक्रमण ,भय और आतंक में
कंठी ,तिलक ,छाप ,माला छद्म परिहास है

यह तरक्की दीखती जो जगत के आकाश में
विज्ञान के प्रकाश में ,ज्ञान के आभास में --
अहंकार के परचम लहरा रहा है आदमी .
दंभ और पाखण्ड मिले हैं इसे अभिशाप में

अभिशप्त से करुणा ,कृपा ,प्रेम की इच्छा ?
सहानुभूति ,दया ,ममता ,परमार्थ की इच्छा ?
आकाश कुसुम मिला क्या कभी आकाश में ,
नहीं रह सकता ईश्वर इस आदमी के पास में!

ईश्वर बेबस ,असहाय ,मौन कर बद्ध नहीं,
आदमी के कर्म कांड जंजाल पाश बद्ध नहीं,
मन्त्रों से पूजता नर केवल उसे अहंकार वश,
स्वार्थ वश ,आर्त्त  या केवल संस्कार वश

पाखण्ड पूजा अर्चना ,पाखण्ड इसके पाठ हैं
पाखण्ड उठना बैठना ,पाखण्ड वाणी वाक् हैं .
पाखण्ड इसका भजन,  पाखण्ड कर्म काण्ड है .
पाखण्ड इसकी प्रार्थना ,पाखण्ड इसका ध्यान है .

दो लोटा जल ,खंडित पुष्प कर में लिए
बेसुरी घंटी ,घंटा नाद, शंख ध्वनि भर दिए .
जाने बिना उसे, अगणित गीत इसने रच दिए .
दंभ पूर्ण भक्ति के सब पाठ इसने पढ़ लिए .

चढ़ पहाड़ों के शिखर पर नाचता .
बाहें ऊपर उठा ऊंचे उसे पुकारता
या मौन हो किसी नदी या घाट किनारे
भीतर कहीं डूब उतरे जा कहीं गहरे

विक्षिप्त नर ऐसे में कैसे रह सके परमात्मा
सब में नहीं देख पाया जो उसकी ही आत्मा ? .
दूसरों को दर्द ,दुःख ,संताप पीड़ा दे
नहीं रह सकता है प्रभु इसमें आकर के .

हवा बहती , किरण बहती , जल नहीं रुकता .
सौन्दर्य है शिव सत्य मल सह नहीं सकता .
जो भी दिया उसने सभी कल्याण कारी है .
पुरुष ही केवल अधम अति अत्याचारी है .

परमात्मा को योग ,जप ,तप ,यज्ञ न चाहिए
आदमी में उसे केवल आदमी चाहिए .
आदमी होकर भी जो न आदमी बन पाया
कैसे कहूँ ईश्वर ने इसे अपना घर है बनाया ?

पेड़ में ,हर पत्ते में है ईश्वर का वास .
गाय ,बैल ,साँप बिच्छु ,सिंह उसके पास .
आदमी का है वहाँ चिरकाल से अकाल
रह नहीं सकता उसके पास ये कलंकित कंकाल .

प्रेम सागर सा उदारता आकाश सी चाहिए
गर आदमी को उसके घर आवास ही चाहिये .
सबके सुख की कामना नर कर नहीं सकता .
निर्बंध वह ,बंधन ग्रस्त उसे वर नहीं सकता .........अरविन्द



गुरुवार, 23 मई 2013

आदमी


न समझा है न समझ सकता है आदमी
न बदला है न बदल सकता है  आदमी .
    बगुलों  की  पांत में  हंस बैठ  नहीं सकते
    सागर की गहराई तिनके माप नहीं सकते
    मिट्टी ने कब आकाश की नीलिमा को छुआ
    अपने ही जीवन में जो कभी अपना न हुआ
.    कैसे कोई कहे की जीवन जी रहा है आदमी
न समझा है न समझ सकता है आदमी .
     आदर्शों  के महल में यह  निर्लज्ज सा बैठा
      अपनों से ही  दुश्मनी ले आप  ही  भटका
     श्मशान  के  एकांत  में  जो  भूत सा लहरे
      अहंकार का पुतला स्वयं ही स्वयं को मारे
      नि :स्वार्थ प्रेम नहीं कभी कर पाया आदमी
न बदला है न बदल सकता है आदमी .
     पराये धन पर परभक्षी गिद्ध सी आँख लगी है
    परायी नार  सदा सुन्दर  इसे  प्यारी  लगी  है
     मलिन  दुर्वासना के पंक में आकंठ  डूबा हुआ
     परमात्म प्रेम  का भावनामय पाखण्ड रच रहा
     भेद भाव ,दुर्भाव का भरापूरा  प्याला है आदमी
न समझा है न समझ सकता है  आदमी .
      उदारता के,प्रेम  धर्म के ,और सहन शीलता के
      त्याग के , भक्ति और अपनेपन के मुखोटे सजे
    दंभ पूर्ण हृदय के पंकिल सरोवर में मगर मगर है
     दुर्दांत है , आततायी  है ,हिंसक  और  बर्बर  है
     कैसे कहें कि शतदल कमल सा निर्लिप्त आदमी ?
न बदला है न बदल सकता है आदमी .
      वाणी विष बुझी इसकी  तीर  बहुत पैने  हैं
      निघ्रिन कर्म आचरण के अप्रकट बाने हैं .
       सत्ता मोह, पद -मद मदिरोन्मत्त  है .
       मदान्ध भव -कूप का मनुजाद मत्त है .
       प्रकृति की  भूल, क्यों न कहें, आदमी
न बदला है न बदल सकता है आदमी .
        मंदिर ,मठ ,मस्जिद अहंकारी कंगूरे .
        शंख ,ढोल ,घंटे  ,भजन जमूरे ,मंजीरे
         बीमार मन सेंक रहा अग्नि के धूरे .
        पाषाण मूर्ति की आड़ में हिंस्र व्याघ्र है बैठा
        धर्म के आवरण में कुत्सित अधर्म  है पैठा।
        कंठस्थ किये शास्त्र सारे तोता है आदमी .
न समझा है न समझ सकता है आदमी .
         उपदेश देने में कुशल उपदेश न माने .
         पर को सुधारने का संकल्प है ठाने .
         ताप तप्त अग्नि यज्ञ हवन ये सारे
         हिंस्र आदमी के हैं हथियार ये सारे .
         मोहान्ध अज्ञान का पाखण्ड आदमी
न बदला है न बदल सकता है आदमी .
           नित नयी कुदरत की मार सहता है
           रोता है ,कलपता है और पछताता है .
           आवारा पशु जैसे सीधी राह न आवे
           कपट भरा कंट मार्ग छोड़ न पावे .
           देह धरी धूर्तता दंभ  पाखंडी आदमी
न समझा है न समझ सकता है आदमी
न बदला है न बदल सकता है आदमी ................अरविन्द
 
      

   

सोमवार, 20 मई 2013

पहेलियाँ

पहेलियाँ
1 .  प्रभु को वह लेकर आवे .
      आँचल उसका सबको भावे .
      जग में उसका नाता प्यारा .
      उसके बिन घर बेघर सारा .
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2 .   सुंदर हो तो सबको भावे .
       मन हो मैला नरक बनावे .
       वह सुख दुःख का है दाता .
       बच्चे बूढ़े सबको भाता .
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3 .       पंख नहीं पर उड़ता है .
        बिन वाणी का वक्ता है .
         सदा जागता रहता है .
        निश्चल बैठ न पाता है .
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4 .      टिक टिक चलती रहती है .
          जीवन में रस भरती है .
          जिस दिन चुप कर जायेगी .
          नींद नहीं खुल पाएगी .
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5.       बिल्कुल सीधा साधा है .
          दुष्ट उसे न भाता है .
          सुरक्षा में सदा सहायी
           आगे बढ़ कर करे लड़ाई .
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6.       मौका मिलते छुरी चलावे
          अपना हित ही उसको भावे .
          संकट में न करे सहायता .
           पहचान उसे तुम मेरे भ्राता .
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7.        दिन में स्वप्न दिखावे जो
            रातों को जगावे वोह
            हाथ नहीं कभी आवे जो
            बूझ इसे जो पायेगा
            मित्र वही कहलायेगा .
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8.        खिलखिलाता खिलता है .
           इतराता झूला करता है .
            कुदरत रंग उसे है देती
            इठलाता मुस्काता है .
            वेणी उसके मन को भावे
            हर ललना का जी ललचावे .
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9.        प्रथम पाँव पर गिरता है
            कानों में रस भरता है .
           चुपके से फिर चूंटी काटे
            अन्धकार में काटे चाटे ......अरविन्द