गुरुवार, 23 मई 2013

आदमी


न समझा है न समझ सकता है आदमी
न बदला है न बदल सकता है  आदमी .
    बगुलों  की  पांत में  हंस बैठ  नहीं सकते
    सागर की गहराई तिनके माप नहीं सकते
    मिट्टी ने कब आकाश की नीलिमा को छुआ
    अपने ही जीवन में जो कभी अपना न हुआ
.    कैसे कोई कहे की जीवन जी रहा है आदमी
न समझा है न समझ सकता है आदमी .
     आदर्शों  के महल में यह  निर्लज्ज सा बैठा
      अपनों से ही  दुश्मनी ले आप  ही  भटका
     श्मशान  के  एकांत  में  जो  भूत सा लहरे
      अहंकार का पुतला स्वयं ही स्वयं को मारे
      नि :स्वार्थ प्रेम नहीं कभी कर पाया आदमी
न बदला है न बदल सकता है आदमी .
     पराये धन पर परभक्षी गिद्ध सी आँख लगी है
    परायी नार  सदा सुन्दर  इसे  प्यारी  लगी  है
     मलिन  दुर्वासना के पंक में आकंठ  डूबा हुआ
     परमात्म प्रेम  का भावनामय पाखण्ड रच रहा
     भेद भाव ,दुर्भाव का भरापूरा  प्याला है आदमी
न समझा है न समझ सकता है  आदमी .
      उदारता के,प्रेम  धर्म के ,और सहन शीलता के
      त्याग के , भक्ति और अपनेपन के मुखोटे सजे
    दंभ पूर्ण हृदय के पंकिल सरोवर में मगर मगर है
     दुर्दांत है , आततायी  है ,हिंसक  और  बर्बर  है
     कैसे कहें कि शतदल कमल सा निर्लिप्त आदमी ?
न बदला है न बदल सकता है आदमी .
      वाणी विष बुझी इसकी  तीर  बहुत पैने  हैं
      निघ्रिन कर्म आचरण के अप्रकट बाने हैं .
       सत्ता मोह, पद -मद मदिरोन्मत्त  है .
       मदान्ध भव -कूप का मनुजाद मत्त है .
       प्रकृति की  भूल, क्यों न कहें, आदमी
न बदला है न बदल सकता है आदमी .
        मंदिर ,मठ ,मस्जिद अहंकारी कंगूरे .
        शंख ,ढोल ,घंटे  ,भजन जमूरे ,मंजीरे
         बीमार मन सेंक रहा अग्नि के धूरे .
        पाषाण मूर्ति की आड़ में हिंस्र व्याघ्र है बैठा
        धर्म के आवरण में कुत्सित अधर्म  है पैठा।
        कंठस्थ किये शास्त्र सारे तोता है आदमी .
न समझा है न समझ सकता है आदमी .
         उपदेश देने में कुशल उपदेश न माने .
         पर को सुधारने का संकल्प है ठाने .
         ताप तप्त अग्नि यज्ञ हवन ये सारे
         हिंस्र आदमी के हैं हथियार ये सारे .
         मोहान्ध अज्ञान का पाखण्ड आदमी
न बदला है न बदल सकता है आदमी .
           नित नयी कुदरत की मार सहता है
           रोता है ,कलपता है और पछताता है .
           आवारा पशु जैसे सीधी राह न आवे
           कपट भरा कंट मार्ग छोड़ न पावे .
           देह धरी धूर्तता दंभ  पाखंडी आदमी
न समझा है न समझ सकता है आदमी
न बदला है न बदल सकता है आदमी ................अरविन्द
 
      

   

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