प्रेम मुक्ति का पंथ ,प्रेम नहीं बंधन होता
प्रेम अहं अतिक्रमण, स्व- विसर्जन सोता । गुरुवार, 31 जुलाई 2014
प्रेम मुक्ति का पंथ
सोमवार, 28 जुलाई 2014
असमर्थता
असमर्थता
किसी कूट काव्य की पंक्ति हो तुम ।
आज तक अर्थ ढूंढ़ नहीं पाया हूँ मैं।
किसी कूट काव्य की पंक्ति हो तुम ।
आज तक अर्थ ढूंढ़ नहीं पाया हूँ मैं।
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कण कण में रचा है खुदा ने खुद को
जानता हूँ फिर भी ढूंढ़ नहीं पाया हूँ मैं।
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बुतों को तराशना भी इबादत ही होगी
चाहते हुए भी इन्हें तोड़ नहीं पाया हूँ मैं.............. अरविन्द
जानता हूँ फिर भी ढूंढ़ नहीं पाया हूँ मैं।
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बुतों को तराशना भी इबादत ही होगी
चाहते हुए भी इन्हें तोड़ नहीं पाया हूँ मैं.............. अरविन्द
शुक्रवार, 25 जुलाई 2014
बुधवार, 23 जुलाई 2014
दरकती है ईष्टिका
दरकती है ईष्टिका
राग मंदिर की
मोह तान
मन -भावन। अतनु की । …………… अरविन्द
सोमवार, 21 जुलाई 2014
कविता में गधे
कविता में गधे
और गधों की कविता केवल जीवन के ,
गीद्ध --सा
झांकती है। खुदा खुद हैरान है
सच्च से आँख मिलाना कुछ मुश्किल तो है
दिलासे न होते ,तो और भी मुश्किल होती।-------
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शनिवार, 12 जुलाई 2014
गीता की सुनो ---
प्रकृतेर्गुणसम्मूढा: सज्जन्ते गुणकर्मसु |
तानकृत्स्नविदो मन्दान्कृत्स्नविन्न विचालयेत् || २९ ||
प्रकृतेः – प्रकृति के; गुण – गुणों से; सम्मूढाः – भौतिक पहचान से बेवकूफ बने हुए; सज्जन्ते – लग जाते हैं; गुण-कर्मसु – भौतिक कर्मों में; तान् – उन; अकृत्स्नविदः – अल्पज्ञानी पुरुष; मन्दान् – आत्म-साक्षात्कार समझने में आलसियों को;कृत्स्न-वित् – ज्ञानी; विचालयेत् – विचलित करने का प्रयत्न करना चाहिए |
भावार्थ
माया के गुणों से मोहग्रस्त होने पर अज्ञानी पुरुष पूर्णतया भौतिक कार्यों में संलग्न रहकर उनमें आसक्त हो जाते हैं | यद्यपि उनके ये कार्य उनमें ज्ञान के अभाव के कारण अधम होते हैं, किन्तु ज्ञानी को चाहिए कि उन्हें विचलित न करे |
तात्पर्य
अज्ञानी पुरुष स्थूल भौतिक चेतना से और भौतिक उपाधियों से पूर्ण रहते हैं | यह शरीर प्रकृति की देन है और जो व्यक्ति शारीरिक चेतना में अत्यधिक आसक्त होता है वह मन्द अर्थात् आलसी कहा जाता है | अज्ञानी मनुष्य शरीर को आत्मस्वरूप मानते हैं, वे अन्यों के साथ शारीरिक सम्बन्ध को बन्धुत्व मानते हैं, जिस देश में यह शरीर प्राप्त हुआ है उसे वे पूज्य मानते हैं और वे धार्मिक अनुष्ठानों की औपचारिकताओं को ही अपना लक्ष्य मानते हैं | ऐसे भौतिकताग्रस्त अपाधिकारी पुरुषों के कुछ प्रकार के कार्यों में सामाजिक सेवा, राष्ट्रीयता तथा परोपकार हैं | ऐसी उपाधियों के चक्कर में वे सदैव भौतिक क्षेत्र में व्यस्त रहते हैं, उनके लिए आध्यात्मिक बोध मिथ्या है, अतः वे इसमें रूचि नहीं लेते | किन्तु जो लोग आध्यात्मिक जीवन में जागरूक हैं, उन्हें चाहिए कि इस तरह भौतिकता में मग्न व्यक्तियों को विचलित न करें | अच्छा तो यही होगा कि वे शान्तभाव से अपने आध्यात्मिक कार्यों को करें | ऐसे मोहग्रस्त व्यक्ति अहिंसा जैसे जीवन के मूलभूत नैतिक सिद्धान्त तथा इसी प्रकार के परोपकारी कार्यों में लगे हो सकते हैं |
निहितार्थ ---
प्रकृति के गुणों से मोहित हुए पुरुष गुण और कर्मों में क्रमशः गुणों की ओर देख कर उनमें आसक्त होते हैं। उन अच्छी प्रकार न समझने वाले ---मन्दान् ---को हतोत्साहित न करें। अपनी शक्ति और स्थिति का आकलन करके कर्म में प्रवृत होने वाले ज्ञान मार्गी साधकों को चाहिए कि कर्म को गुणों की देन मानें , अपने को कर्ता मान कर अहंकारी न बनें। निर्मल गुणों के प्राप्त होने पर भी उनमें आसक्त न हों। किन्तु निष्काम कर्मयोगी को कर्म और गुणों में समय देने की आवश्यकता नहीं है। उसे तो समर्पित भाव से कर्म करते जाना चाहिए। कौन गुण आ रहा है या जा रहा है --- यह देखना इष्ट की जिम्मेदारी हो जाती है। ज्ञानयोगी, गुणों का परिवर्तन और क्रम क्रम से उत्थान -पतन इष्ट की ही देन है --यह मानता है। इसे अनन्यता भी कहते हैं। इसी कारण कर्ता का अहंकार या गुणों में आसक्ति होने की समस्या से बचा जा सकता है।
संकेत --
मन्दान् --वे आसक्ति के अंतर्गत बद्ध जीव जो केवल स्व स्व वृति से विमोहित हैं और गुणों को ही सत्य समझते हैं ,उन लोगों के प्रति ज्ञानी को प्रतिक्रिया से रहित होना चाहिए क्योंकि स्वभाव प्रकृति प्रदत्त है। परिवर्तित नहीं हो सकता।
तानकृत्स्नविदो मन्दान्कृत्स्नविन्न विचालयेत् || २९ ||
प्रकृतेः – प्रकृति के; गुण – गुणों से; सम्मूढाः – भौतिक पहचान से बेवकूफ बने हुए; सज्जन्ते – लग जाते हैं; गुण-कर्मसु – भौतिक कर्मों में; तान् – उन; अकृत्स्नविदः – अल्पज्ञानी पुरुष; मन्दान् – आत्म-साक्षात्कार समझने में आलसियों को;कृत्स्न-वित् – ज्ञानी; विचालयेत् – विचलित करने का प्रयत्न करना चाहिए |
भावार्थ
माया के गुणों से मोहग्रस्त होने पर अज्ञानी पुरुष पूर्णतया भौतिक कार्यों में संलग्न रहकर उनमें आसक्त हो जाते हैं | यद्यपि उनके ये कार्य उनमें ज्ञान के अभाव के कारण अधम होते हैं, किन्तु ज्ञानी को चाहिए कि उन्हें विचलित न करे |
तात्पर्य
अज्ञानी पुरुष स्थूल भौतिक चेतना से और भौतिक उपाधियों से पूर्ण रहते हैं | यह शरीर प्रकृति की देन है और जो व्यक्ति शारीरिक चेतना में अत्यधिक आसक्त होता है वह मन्द अर्थात् आलसी कहा जाता है | अज्ञानी मनुष्य शरीर को आत्मस्वरूप मानते हैं, वे अन्यों के साथ शारीरिक सम्बन्ध को बन्धुत्व मानते हैं, जिस देश में यह शरीर प्राप्त हुआ है उसे वे पूज्य मानते हैं और वे धार्मिक अनुष्ठानों की औपचारिकताओं को ही अपना लक्ष्य मानते हैं | ऐसे भौतिकताग्रस्त अपाधिकारी पुरुषों के कुछ प्रकार के कार्यों में सामाजिक सेवा, राष्ट्रीयता तथा परोपकार हैं | ऐसी उपाधियों के चक्कर में वे सदैव भौतिक क्षेत्र में व्यस्त रहते हैं, उनके लिए आध्यात्मिक बोध मिथ्या है, अतः वे इसमें रूचि नहीं लेते | किन्तु जो लोग आध्यात्मिक जीवन में जागरूक हैं, उन्हें चाहिए कि इस तरह भौतिकता में मग्न व्यक्तियों को विचलित न करें | अच्छा तो यही होगा कि वे शान्तभाव से अपने आध्यात्मिक कार्यों को करें | ऐसे मोहग्रस्त व्यक्ति अहिंसा जैसे जीवन के मूलभूत नैतिक सिद्धान्त तथा इसी प्रकार के परोपकारी कार्यों में लगे हो सकते हैं |
निहितार्थ ---
प्रकृति के गुणों से मोहित हुए पुरुष गुण और कर्मों में क्रमशः गुणों की ओर देख कर उनमें आसक्त होते हैं। उन अच्छी प्रकार न समझने वाले ---मन्दान् ---को हतोत्साहित न करें। अपनी शक्ति और स्थिति का आकलन करके कर्म में प्रवृत होने वाले ज्ञान मार्गी साधकों को चाहिए कि कर्म को गुणों की देन मानें , अपने को कर्ता मान कर अहंकारी न बनें। निर्मल गुणों के प्राप्त होने पर भी उनमें आसक्त न हों। किन्तु निष्काम कर्मयोगी को कर्म और गुणों में समय देने की आवश्यकता नहीं है। उसे तो समर्पित भाव से कर्म करते जाना चाहिए। कौन गुण आ रहा है या जा रहा है --- यह देखना इष्ट की जिम्मेदारी हो जाती है। ज्ञानयोगी, गुणों का परिवर्तन और क्रम क्रम से उत्थान -पतन इष्ट की ही देन है --यह मानता है। इसे अनन्यता भी कहते हैं। इसी कारण कर्ता का अहंकार या गुणों में आसक्ति होने की समस्या से बचा जा सकता है।
संकेत --
मन्दान् --वे आसक्ति के अंतर्गत बद्ध जीव जो केवल स्व स्व वृति से विमोहित हैं और गुणों को ही सत्य समझते हैं ,उन लोगों के प्रति ज्ञानी को प्रतिक्रिया से रहित होना चाहिए क्योंकि स्वभाव प्रकृति प्रदत्त है। परिवर्तित नहीं हो सकता।
शुक्रवार, 11 जुलाई 2014
गुरु पूर्णिमा
आज गुरु पूर्णिमा है। इसलिए गुरु तत्व पर विचार
करना अपेक्षित है। आजकल शिक्षित तथा अर्धशिक्षित समाज में अधिकांश लोग गुरु
के प्रति कोई विशेष आदर नहीं रखते बल्कि गुरु तत्व पर ही प्रश्न करते हैं
कि गुरु की आवश्यकता है या नहीं ? इनमें अधिकांश लोगों का विचार है कि
मनुष्य को जीवन के पथ पर स्वावलम्बी होकर चलना चाहिए ,उसे शक्ति अथवा भाव
के विकास के लिए किसी दूसरे पर आश्रित नहीं होना चाहिए। आध्यात्मिक पथ पर
भी मनुष्य का सम्बन्ध साक्षात परमात्मा के साथ है ,जिसके लिए भक्ति मार्ग
है। इन दोनों के बीच गुरु नामक किसी व्यक्ति के लिए स्थान कहाँ ? इस प्रकार
के चिंतन में गुरु की सत्ता के प्रति संदेह और अनास्था का स्वर सुनाई देता
है। अध्यात्म क्षेत्र में गुरु की आवश्यकता है अथवा नहीं , इस विषय पर
विचार करने से पूर्व साधारणत: हम इसी निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि जीवन में
पहले -पहल ऐसी एक अवस्था विद्यमान रहती है , जब जीव को शक्ति ,ज्ञान ,भाव
आदि सभी विषयों में परमुखापेक्षी रहने को बाध्य होना पड़ता है। ऐसा ही
प्रकृति का नियम है। तदनन्तर , भीतरी शक्ति और बुद्धि वृति के विकास के साथ
बाहरी सहायता इतनी अपेक्षित नहीं रहती। बाहरी सहायता की अपेक्षा न रहने
पर भी भीतर किसी अचिन्त्य शक्ति की अधीनता तब भी उसे रहती है। उसके बाद
जीवन -पथ पर पूर्ण और चरम स्थिति प्राप्त होने पर स्वाधीनता का विकास होता
है एवं अन्य किसी की भी अपेक्षा नहीं रहती। स्वभाव होने से ही जो होने वाला
होता है ,वह निरपेक्ष रूप से हो जाता है।
साधारणतः आरम्भिक अवस्था में प्रत्येक व्यक्ति को निर्देशक
की आवश्यकता रहती है। दूसरी तरफ आध्यात्मिक जीवन अत्यंत गहन , दुर्गम है।
इसलिए इस पथ पर बाहरी सहायता के बिना चलना ,विकास को अर्जित करना , साध्य
को उपलब्ध होना सम्भव नहीं है क्योंकि अध्यात्म व्यक्ति विकास की
चरमोपलब्धि है। इसी बाहरी सहायता को प्राप्त करने के लिए गुरु आवश्यक है।
यह भी जानना चाहिए कि सभी अध्यात्म -पथ के पथिक नहीं हो सकते। क्योंकि जीवन
की भौतिक सुख सुविधाओं को प्राप्त करना ही ऐसे लोगों के लिए महत्वपूर्ण
है। परन्तु वे ,जो परम तत्व के अभिलाषी हैं ,अध्यात्म पथिक हैं ,उन्हें
गुरु की सहायता अवश्य चाहिए। इस विषय में विशद् आलोचना से पूर्व गुरु तत्व
क्या है ,गुरु का वास्तविक कार्य क्या है ,गुरु कितने प्रकार के होते हैं
,गुरु के साथ शिष्य का तथा शिष्य के साथ गुरु का वास्तविक सम्बन्ध क्या है
,गुरु -शिष्य भाव की चरम परिणति कहाँ होती है ? इत्यादि विषयों की
आवश्यकतानुसार आलोचना भी जरुरी है। हमारी मासूमियत
शिकस्तें भी हमारी मासूमियत ही हैं
संभाल ली हैं किताबों में फूलों की तरह।
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डगमगाते कदमों ने ही चलना सिखाया है
लड़खड़ाना आज हमने आदत बना ली है ।
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पूजते रहे जिन्हें हम भगवानों की तरह
पत्थरों ने भी कभी क्या स्वभाव बदला है?……… अरविन्द
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क्षणिका
जिंदगी कुत्ते की नहीं पूंछ जो कभी सीधी न हो
कुत्ते की है पूंछ केवल आदमी जो कभी सीधा न हो ।
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इल्जाम लगा दिए उन्होंने जी भर के कुत्ते की है पूंछ केवल आदमी जो कभी सीधा न हो ।
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गुरुवार, 10 जुलाई 2014
अनुभूतियाँ
अनुभूतियाँ जो हो रहीं हैं
नित नई ,अचानक जाग कर .
क्या तुम कह सको --
कुछ बिन कहे।
शब्द के वे मन्त्र सारे सब निष्फल हुए।
जिन्हें है भोगता।
बुधवार, 9 जुलाई 2014
छोटे छोटे सत्य
छोटे छोटे सत्य समझने ,
लग जाते हैं साल कभी।
आँख खोल कर जिसे मानता ,
वहीं छल ,छद्म महा छाया।
भ्रम को सत्य ,सत्य को भ्रम ही
सदा सभी ने माना है।
सरल सरल को सदा जटिल कर
रचते सब अपना तानाबाना है ।
जगती सारी प्रपंचमयी है ,
जानबूझ कर फंसता है नर।
जब तक गैया दूध है देती ,
तब तक दुलत्ती सहते सब।
पशु नहीं फिर भी पशुता को ,
त्याग नहीं पाता है जग।
राम नाम का सत्य समझ में
आता नहीं जिंदगी भर। …………अरविन्द
सोमवार, 7 जुलाई 2014
अरविन्द दोहे
अरविन्द दोहे
परमात्मा के नाम पर , मची हुई खच पच्च।
अंधों हाथ हाथी लगा , सबका अपना सच्च।
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अद्भुत कलयुगी भजन है ,अद्भुत है आचार।
मंदिर मस्जिद फैल गया ,माया का व्यापार ।
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भगवानों की आजकल ,सजी हुई दूकान।
मूर्तियों में राम को ,बेचें सु संत महान । ।
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कवि का हृदय उदार हो ,सब भाव करे विचार।
श्रृंगार वीर ओ करूँ सब ,शांत भजन स्वीकार।
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बहुते बड़े औलिया देखै ,देखे बहुत ही महंत
राम प्यारा न मिला हमें ,दिखे अर्थ प्यारे संत ।
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अपने इस संसार में ,बड़ी प्रेम प्रेम की सोच।
दाढ़ी बेचारी क्या करे ,बैठ गोद में नोच ।
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कहीं कहीं सज्जन मिलें ,कछु एक संत समान
उनके चरनन मैं करूँ , साष्टांग हो प्रणाम। …………अरविन्द
परमात्मा के नाम पर , मची हुई खच पच्च।
अंधों हाथ हाथी लगा , सबका अपना सच्च।
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अद्भुत कलयुगी भजन है ,अद्भुत है आचार।
मंदिर मस्जिद फैल गया ,माया का व्यापार ।
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भगवानों की आजकल ,सजी हुई दूकान।
मूर्तियों में राम को ,बेचें सु संत महान । ।
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कवि का हृदय उदार हो ,सब भाव करे विचार।
श्रृंगार वीर ओ करूँ सब ,शांत भजन स्वीकार।
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बहुते बड़े औलिया देखै ,देखे बहुत ही महंत
राम प्यारा न मिला हमें ,दिखे अर्थ प्यारे संत ।
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अपने इस संसार में ,बड़ी प्रेम प्रेम की सोच।
दाढ़ी बेचारी क्या करे ,बैठ गोद में नोच ।
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कहीं कहीं सज्जन मिलें ,कछु एक संत समान
उनके चरनन मैं करूँ , साष्टांग हो प्रणाम। …………अरविन्द
अंधों हाथ हाथी लगा , सबका अपना सच्च।
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अद्भुत कलयुगी भजन है ,अद्भुत है आचार।
मंदिर मस्जिद फैल गया ,माया का व्यापार ।
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भगवानों की आजकल ,सजी हुई दूकान।
मूर्तियों में राम को ,बेचें सु संत महान । ।
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कवि का हृदय उदार हो ,सब भाव करे विचार।
श्रृंगार वीर ओ करूँ सब ,शांत भजन स्वीकार।
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बहुते बड़े औलिया देखै ,देखे बहुत ही महंत
राम प्यारा न मिला हमें ,दिखे अर्थ प्यारे संत ।
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अपने इस संसार में ,बड़ी प्रेम प्रेम की सोच।
दाढ़ी बेचारी क्या करे ,बैठ गोद में नोच ।
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कहीं कहीं सज्जन मिलें ,कछु एक संत समान
उनके चरनन मैं करूँ , साष्टांग हो प्रणाम। …………अरविन्द
शनिवार, 5 जुलाई 2014
दोहे
इश्क़ सौगात खुदा की किस्मत वालों के लिए
आंसुओं का अमृत सबको मिल नहीं सकता।
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इश्क़ को इबादत से अलग न करो यारो
आग है दोनों तरफ बराबर ही लगती है ।
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छिप के बैठना खुदा की आदत है
देह का पर्दा हटाओ और ढूंढ लो। ……… अरविन्द दोहे
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शुक्रवार, 4 जुलाई 2014
गीत
गीत
सारी धरती आकाश हमारा ,हम वसुधा के वासी
भांति भांति के लोग भी अपने ,ये ब्रह्माण्ड प्यारा।
क्षीण क्षुद्र सी काया चाहे ,मन सागर सा है गहरा
इस सागर की भी सीमा है , असीम हमारा प्यारा।
भाषा चाहे भिन्न हो सबकी ,भिन्न रूप रंग सारे
भिन्न भिन्न पहरावा सबका ,भिन्न न भाव हमारे।
फिर भी मानव सारे जग में मानव ही कहलावें
अपना अपना जीवन जीवें ,जग को सुभग बनावें।
तोड़ें सीमा हम सब अपनी क्यों क्षीण क्षुद्र को चाहें।
बाहों में इस गगन को भर लें ,सारा आकाश हमारा
हम असीम के अंश सभी हैं ,अखण्ड हमारा सारा।
हम बसुधा के वासी सारे ,सुंदर ब्रह्माण्ड हमारा । ………… अरविन्द
अरविन्द दोहे
मन जिसका हो बहुगुणी ,निर्मल चित्त निहार
सो संगी ही दे सद्गति , साधु कहत पुकार।-------
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सुक्ख शांति आनंद सब , निर्मलता में जोय।
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अरविन्द श्रृंगार
पानी में लहराता है तेरा ये गुलाबी बदन
बंद पलकेँ हैं पुकारे तेरा ये गुलाबी बदन । मेरी सुबह चुप है , श्यामल शाम चुप है ।
सुन, न मेरा मन चुप है न तेरा तन चुप है
आओ छेड़ें सितार के तार, मेरी गुलबदन ।
पानी में लहराता है तेरा ये गुलाबी बदन । ।
सागर की लहरों पर नील कमल खिला है ,
या आकाशी नीलिमा में सूरज ही ढला है। .
संध्या की लाली तेरे आनन की चमक है
नदिया की जांघ पर गुलमोहर खिला है।
जगमग झिलमिलाते दीपक सा ये बदन
पानी में लहराता है तेरा ये गुलाबी बदन। ………अरविन्द श्रृंगार
बुधवार, 2 जुलाई 2014
इहाँ नहीं ,उहाँ नहीं
अच्छे खैरख्वाह हैं हमारे ,
जख्म देकर हाल पूछते हैं।
लौट आओ ,लौट आओ ,
निशाने के लिए सर ढूंढते हैं।
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मंदिरों में बैठा मेरा रब्ब देखो रो रहा
क्यों बाँध लिया मुझे तुमने
मंदिर मस्जिद की जंजीरों में ?
मैं तो उन्मुक्त सब विकल्पों से शून्य हूँ
पुकारते हो क्यों मुझे
नाम की लकीरों में ?
अक्षर परब्रह्म हूँ
न जात पात लिंग है
अलिंग होकर सबमें
सलिंग हुआ रहता हूँ।
आदमी ही नहीं --
जड़ चेतन के समस्त तत्व
रचता भी मैं और मैं ही समाहर्ता हूँ।
पशु पक्षी ,जीव जंतु
पेड़ पौधे जल जीव
किसी को न चिंता -
मैं कहाँ हूँ और कैसा हूँ !
आदमी के पेट में
ये किसने विभेद डाला
मेरा रब्ब मेरा
उसका रब्ब नहीं हूँ ?
बड़े बड़े जपी -तपी
संत और प्रतापी पति
मेरे भीतर बैठ कर ,
मुझे ही ध्या गए।
कण -कण में समाया देख
मेरा रूप रच खुद
मुझमें समा गए।
आज ये वितंडावाद
रच रहे कई आचार्य
अर्थ का ध्यान करें ,
मुझे न बुला रहे।
शास्त्र सभी व्यर्थ हुए
तर्क भी असमर्थ हुए
पाखंडी शब्दजाल में
जन -मन को उलझा रहे।
कहाँ नहीं मैं ?--मैं पूछता सभी से हूँ --
यहाँ नहीं ,वहां नहीं
इहाँ नहीं ,उहाँ नहीं
कहें सभी दम्भी ,
भ्रम सबको भरमा रहे। ………....... अरविन्द
जख्म देकर हाल पूछते हैं।
लौट आओ ,लौट आओ ,
निशाने के लिए सर ढूंढते हैं।
------
मंदिरों में बैठा मेरा रब्ब देखो रो रहा
क्यों बाँध लिया मुझे तुमने
मंदिर मस्जिद की जंजीरों में ?
मैं तो उन्मुक्त सब विकल्पों से शून्य हूँ
पुकारते हो क्यों मुझे
नाम की लकीरों में ?
अक्षर परब्रह्म हूँ
न जात पात लिंग है
अलिंग होकर सबमें
सलिंग हुआ रहता हूँ।
आदमी ही नहीं --
जड़ चेतन के समस्त तत्व
रचता भी मैं और मैं ही समाहर्ता हूँ।
पशु पक्षी ,जीव जंतु
पेड़ पौधे जल जीव
किसी को न चिंता -
मैं कहाँ हूँ और कैसा हूँ !
आदमी के पेट में
ये किसने विभेद डाला
मेरा रब्ब मेरा
उसका रब्ब नहीं हूँ ?
बड़े बड़े जपी -तपी
संत और प्रतापी पति
मेरे भीतर बैठ कर ,
मुझे ही ध्या गए।
कण -कण में समाया देख
मेरा रूप रच खुद
मुझमें समा गए।
आज ये वितंडावाद
रच रहे कई आचार्य
अर्थ का ध्यान करें ,
मुझे न बुला रहे।
शास्त्र सभी व्यर्थ हुए
तर्क भी असमर्थ हुए
पाखंडी शब्दजाल में
जन -मन को उलझा रहे।
कहाँ नहीं मैं ?--मैं पूछता सभी से हूँ --
यहाँ नहीं ,वहां नहीं
इहाँ नहीं ,उहाँ नहीं
कहें सभी दम्भी ,
भ्रम सबको भरमा रहे। ………....... अरविन्द
मंगलवार, 1 जुलाई 2014
चुपके से..
चुपके से छोड़ आया हूँ --
अपनी क्षीण "मैं " को ,
सागर की लहरती भुजाओं में ,अपनी क्षीण "मैं " को ,
अरविन्द क्षणिकाएँ
लोगों की चिंता छोड़ अब अपना ही जीवन जियो
कब तक दुनिया के ख्याल में खुद को तबाह करें हम।
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पीने का सरूर है या तेरी यारी का दम
ख्वारी ऐसी चढ़ी है कि उतरती नहीं ।
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खुले हुए हैं मयकदे कदम कदम पर
तुम भी आ जाओ यहां साकी भी हैं।
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बड़े दिनों से इच्छा थी कि झूम जाए हम
मुद्दत के बाद दोस्तों का बुलावा आया ।
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दुश्मनों की तबियत कुछ नासाज है
आराम फरमा रहे हैं इसीलिए हम ।
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खुले हुए हैं मयकदे कदम कदम पर
तुम भी आ जाओ यहां साकी भी हैं।
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बड़े दिनों से इच्छा थी कि झूम जाए हम
मुद्दत के बाद दोस्तों का बुलावा आया ।
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दुश्मनों की तबियत कुछ नासाज है
आराम फरमा रहे हैं इसीलिए हम ।
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शिखरों बीच क्यों न अपनी नाक रख दें
क्या कर लिया इसको इतना संभाल कर ?
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हमने नहीं जिया कोई हमको जी गया
पल भर के लिए भी अपने न हुए हम।
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लिख लिख के उसने पन्ने भर दिए
सीधी सी बात उसको कहनी नहीं आई।
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जनाब ! बड़ी दूर से आँखें तरेरते हैं
प्यार का चश्मा टूट गया लगता है।
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न किताब है ,न कमरा है ,न छत ही यहां है
कहाँ जाके बैठूं कि सिर को खुजाया जाए ?………अरविन्द क्षणिकाएँ
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