मंगलवार, 29 अक्तूबर 2013

हम

कहीं हीरा हुए हम ,कहीं पत्थर हुए हम
इच्छा है जैसी आपकी ,वैसे ही हुए हम।

सागर सी छलकती आँखें देखीं तो लगा
लहर हो गये हम ,खुले आकाश हुए हम।
आँखें  तरेर कर देखा उन्होंने जब हमें
शबनम नहीं रहे हम ,शोला ही हुए हम।
जीभ जो न बोली ,आँखों ने कह दिया
अर्थ सारे समझ गए ,सार्थक हुए हम।
किसे ढूंढते हो जंगलों में इन पहाड़ों पर
भीतर हुए जो खाली ,खुदा हो गए हम।
नहीं रही जरुरत अब किसी आशियाने की 
अपना ही हमको मिल गया अपना हुए हम।
सोई रात में कल  जगा दिया उस  प्रभु ने
नींद सारी उड़ गयी ,लो राम हो गये हम। ………………अरविन्द

गुरुवार, 24 अक्तूबर 2013

सर्दी उतर आयी है।

मौसम बदल गया है भाई,
सर्दी उतर आयी है।
आते ही सर्दी ने ,मुझे
गहरी जफ्फी पायी है।
पिंजर सारा हिल गया
दुहाई है ,दुहाई है।
सर्दी उतर आयी है।
शीत के सुस्पर्श ने 
सिर भारी मेरा कर दिया
कनपटियों में
दर्दीली लहर उमड़ आयी है।
नासिका बंद बंध
आँखों की बैरोनियों में
लाली उतर आयी है।
सर्दी उतर आयी है।
गला भारी भारी ,
कंठ थरथराता है।
बोलता हूँ जीभ से
नाक आगे आ जाता है।
जैसे शीत सारी
मेरी छाती में समायी है।
सां सां की ठंडी लहर
साँसों में उतर आयी है।
सर्दी उतर आयी है।
रामदेव फेल हुआ
झंडु ,डाबर मुहँ छिपाते

वैद्य नाथ कहीं नजर नहीं आया है।
दोशांदे सारे पीये ,
तुलसी मजूम बहुत खाया मैने
हमदर्द दर्द दे गया
अब चारपाई भायी है।
पत्नी ने मुहं फेरा ,
बच्चे दूर हो गये।
हालचाल पूछ मित्र भी
डरे ,परे हुए।
नजला ,जुकाम, खांसी
देह चरमरायी है।
विरहिणी का ताप जैसे
देह में समा गया --
जेठ के महीने का --
ताप तन तायी है।
कुदरत का ऐसा प्यार
हर साल आता है।
भुज पाश में आबद्ध कर
पूरा छा जाता है।
सर्दी का संयोग प्रेम
सप्ताह भर रहता है।
कोई भी बेगाना तब
पास नहीं आता है।
साप्ताहिक संयोग आनन्द
हम खुल कर मनाते हैं।
ताप चढ़ी देह में सर्दी को
सजाते हैं।
सर्दी को मानते हैं।
अभिसारिका सी सर्दी
दबे पाँव चली आती है .
मिलानातुरता उसे
खींच मेरे पास ,हर साल
लाती है।
खुले मन भोगती
परमानन्द मनाती वह
अन्तर -सुख भोग कर
प्रसन्न मन लौट जाती है।
मैं भी  उदास मन ,
बिस्तर को त्यागता हूँ .
अगले साल आएगी
प्रतीक्षा मन छाई है।
…………………………अरविन्द


सोमवार, 21 अक्तूबर 2013

तुम दोनों

तुम दोनों -----
जैसे पुखराज की आसक्ति
जैसे किरण की अभिव्यक्ति
जैसे नीलिमा की मस्ती
जैसे शिखरों पर की भक्ति
जैसे शक्ति में अनुरक्ति
जैसे कंदर्प और रति।
तुम दोनों ---
जैसे सौम्यता के भाव
जैसे चित चढ़ा चाव
जैसे स्पृहणीय हो लाड़
जैसे प्रेम का विभाव
जैसे कोमल हो अनुराग
जैसे शान्ति सद्भाव
जैसे पानी और प्यास
जैसे रक्तिमता गुलाब
तुम दोनों ---
जैसे शिशु की मुस्कान
जैसे नाचता भगवान्
जैसे उल्लास का वरदान
जैसे खुला आसमान
जैसे मॆत्रि परवान
जैसे चूड़ी की खनकार
जैसे पायल की झंकार
जैसे राधा का हो मान
जैसे कृष्ण की हो तान
जैसे वंशी की पुकार
जैसे माधवी सुकुमार
जैसे षोडशी की लाज
जैसे उल्लसित सुहाग
जैसे अपना मन मीत
जैसे विभावरी का गीत
जैसे कविता का मान
जैसे मेरी मुस्कान
जैसे ईशान का आलाप
जैसे प्रणव का हो जाप
जैसे आदित्य की पुकार
जैसे अनन्या की किलकार
लिख दूँ कुछ और
जैसे सागर की हो भोर
अब दे दूँ वरदान
सुखी रहो फलो -फूलो
हो सर्वविध कल्याण
करो सर्वविध कल्याण। …………… अरविन्द

शनिवार, 19 अक्तूबर 2013

हम क्यों देखें

उनको हम क्यों  देखें जो चले नहीं दो कदम
अपने पर हम क्यों न खोलें नापें खुला गगन।
आकाश किसी की नहीं बपौती ,अपना भी है
उठूँ धरा से, उडूं मैं ऊपर, देखूं  कौन खड़ा  है .
कब तक अपनी सीमा को मर्यादा कहते रहें
जीवन तो निर्बंध खड़ा है करें चुनौती नमन।
उनको हम क्यों देखें जो चले नहीं दो कदम।  
कौए ,गीदड़ ,हिरण साम्भर जीते पिता के घर
शेर नहीं ताकता धरोहर ढूंढ़ लेता नव वन वर।
गीदड़ बन अपना जीवन क्यों हम बर्बाद करें ?
जल्दी जल्दी इन शिखरों पर अपने कदम धरें.
आओ ! भीतर छिपी शक्ति का करें अभी वरण
उनको हम क्यों देखें जो चले नहीं दो कदम ?
वर्षा ,आंधी ,ओले ,झंझा सब छाती पर सहने हैं
ऊँचे टीले ,गहरे गह्वर नर ने ही तो गहने हैं।
कापुरुष नहीं कर पाते जीवन में आत्म हवन
न हो साथ कोई हो अपना अकेले जूझ पड़ेंगे
भाव का मंथन कर जीवन अमृत पान करेंगे
साहस अपना दिन धर्म हो संघर्षी हों चरण
उनको हम क्यों देखें जो चले नहीं दो कदम। ……………अरविन्द


संत और संतत्व

                                   संत और संतत्व
भारत में सदा से संतों का महत्व रहा है। संतों ने देश के विकास में अभूतपूर्व योगदान भी दिया है। राष्ट्र भक्त ,देशभक्त और सदाचारी बलिदानियों की परम्परा के निर्माण में संतों के योगदान से इनकार नहीं किया जा सकता। यह भी दुर्भाग्यपूर्ण है कि जीवन के विविध क्षेत्रों में संतों के अवदान पर किसी भी विश्वविद्यालय में शोध की विस्तृत योजना का निर्माण नहीं किया क्योंकि हमने भारत की पुरा परम्परा में उपलब्ध ज्ञान से मुहं मोड़ लिया है। इस देश में ज्ञान विज्ञान की अनेक शाखाएँ थीं। आज  न समाज शास्त्र ,न साहित्य ,न धर्म और न ही मनोविज्ञान इस क्षेत्र में कोई खोज ,शोध ही कर रहा है। हमनें कुछ निकम्मे ,जाहिल और पाखंडियों को संतों की  पारंपरिक वेश भूषा में देख लिया और सत्य के अनुसंधान के सभी प्रयत्न बंद कर दिए। हमारी विचारधारा कितनी पंगु है ,इसको जानना कठिन नहीं है।
कम्युनिस्ट संतत्व को स्वीकार नहीं करते तो उन्हें प्रसन्न करने के लिए ,हमने भी अपनी ज्ञानात्मक धरोहर का त्याग कर दिया। राजनीति ने धर्म निरपेक्षता का आवरण ओढ़ लिया।  परिणाम समस्त पुरातन ज्ञान पौन्गापंथी कहलाने लगा। किसी ने भी शोध और खोज के आधार पर साधनात्मक ज्ञान की परीक्षा नहीं की। यह हमारी अपनी सामर्थ्य हीनता है।
हमने मन के चेतन ,अचेतन ,अतिचेतन की तो खोज की परन्तु अतिचेतन में उतरने का कोई प्रयास नहीं किया। संतों की निष्ठां और ज्ञान को भक्ति कह कर सीमित करने के प्रयास तो सभी विद्या केन्द्रों में हुए ,किसी भी विद्वान् ने यह कभी विचार नहीं किया कि संत केवल भक्त ही नहीं थे ,वे सत्य के शोधक भी थे। केवल अदेखे परमात्मा तक ही उन्हें सिमित करके हमने ज्ञान के उन दरवाजों पर  दस्तक देनी बंद कर दी ,कहीं जग हंसाई न हो।
जिस देश में चौसठ कलाओं की शोध हुई हो और उन्हें बाद में सौलह तक अकारण सीमित कर दिया गया हो ,आप स्वयं ही इन तथाकथित पंडितों का निकम्मापन देख लीजिये।
हमारी गतानुगतिक प्रवृति और तुष्टिकरण की नीति के साथ गंभीर परिश्रम का अभाव हमें गंभीर शोध करने से रोकता रहा है और वे लोग भी दोषी हैं जिनमें योग्यता नहीं थी ,पर वे येन केन प्रकारेण पदासीन रहे अथवा हैं।
इतिहास लेखन किसी स्वतंत्र चिन्तक के द्वारा नहीं लिखा गया बल्कि स्वतंत्रता के बाद भी आश्रितों के ही अधीन रहा। इसीलिए पुराकालीन ज्ञान शाखायों के प्रति अवहेलना की वृति रही है। आधुनिकों ने भी इस ओर सोचना नहीं चाहा ,क्योंकि आधुनिकता खतरे में पड़ने की संभावना से ग्रसित रही। यूजी सी जैसी संस्था भी इधर नहीं सोच रही। पुरातन ज्ञान की धारा को लुप्त करने में ही पुरुषार्थ समझाने वाले पंडितों ने हमें आवृत कर लिया है।
आज एक संत ने स्वर्ण का स्वप्न क्या देख लिया कि सभी भौतिक विद तिलमिला उठे। धुर से वाणी भी उतरती है,  इस ओर कोई ध्यान नहीं दे रहा। हिन्दोस्तान में भूगर्भवेत्ताओं की बीस से अधिक  श्रेणियां विद्यमान रही हैं , यह वही देश है जहाँ अनपढ़ आदमी छड़ी की नोक से धरती में पानी कहाँ और कितना गहरा है ,जान जाते थे।
हमें यह समझना चाहिए कि कथावाचकों और अपनी ही पूजा करवाने के लिए उत्सुक लोगों को इस देश ने कभी संत नहीं माना . न ही पंडित और पुरोहित भी ज्ञानियों ,ऋषिओं और संतों की परम्परा में परिगणित हुए हैं।
संत अंतर्गत साधक ,मौन चिन्तक ,और प्रयोगात्मक ऋषि रहे हैं ---इस और ध्यान देना आवश्यक है। ………… क्रमश :……………. अरविन्द

गुरुवार, 17 अक्तूबर 2013

ग़ज़ल

भावों के जंगल के अजीब परिंदे हैं
पर जला के अपने फिर मुस्कुराते हैं .
प्यार को तो बेवजह हम दोष देते हैं
मूर्खों के सिरों पर सींग नहीं होते हैं।
यार  दरख्त का पका फल नहीं होता
अंधे हैं वे जो तोतों की  चोंच होते हैं .
संभालना नहीं आता जिन्हेंखुद दुपट्टा
जिन्दगी की धार में बेतरतीब होते हैं।
उनके लिए तो हम बस नंग मलंग हैं
अनिकेतों के लिए घर घर नहीं होते हैं।
क्यों  भेजूँ ख़त मैं  अपने प्रियतम को
हर जगह उसके जो दर्शन मुझे होते हैं।
किसी की आँख का पर्दा क्यों उठायें हम
अंधों की बस्ती में दर्पण नहीं होते हैं। ………………. अरविन्द ग़ज़ल


बुधवार, 16 अक्तूबर 2013

आवारा चिन्तन

                                         आवारा चिन्तन
                                      सत्संग  का निहितार्थ
आज परमात्म दर्शन की अनेक दुकानें खुल चुकी हैं। अधिकाधिक मात्रा में अदृश्य का व्यापार हो रहा है। कितनी विचित्रता है कि जो दीखता नहीं वही सबसे ज्यादा बिक रहा है। और परिणाम सुखद नहीं मिल रहे। इसलिए धर्म और अध्यात्म भौतिक जगत की सत्यता को समझना मेरे जैसे सामान्य व्यक्ति के लिए आवश्यक है। क्योंकि मेरी मान्यताएं प्रचलित धारणाओं को स्वीकार करने में असमर्थ हैं। मैं अनास्थावादी नहीं हूँ ,न ही मैं ईश्वर के अस्तित्व को अस्वीकृत करता हूँ। मैं भी परमात्मा को चाहता हूँ और परम्परा से प्राप्त ग्रन्थों का पारायण भी करता हूँ। मन्त्र पाठ ,भजन मुझे भी अच्छे लगते हैं परन्तु परमात्मा के नाम पर स्थापित मत मतान्तर कुछ प्रिय नहीं लगते। आजकल के धर्माधिकारियों के प्रवचनों के साथ ,पाखण्ड और अनर्थ कारी अर्थों और व्याख्याओं के साथ मेरा मन नहीं मिलता है। मुझे लगता है कि इन दुकानों से अलग होकर ही उस तक पहुंचा जा सकता है।
हमारा आर्ष चिंतन ,हमारे ऋषि ,हमारे कबीर ,नानक ,दादू ,सुंदर दास ,मलूक सहजो ,दया ,तुलसी सूर ,मीरा आदि अच्छे लगते हैं क्योंकि उनमें मौलिकता है। सृजन है। और असंगता है। इन निर्मल संतों, साधकों ने सामान्य मनुष्य के लिए धर्म और अध्यात्म के मार्ग को सुगम करने के लिए सत्य कहा है। इनकी वाणी और कर्म एक है। इनके द्वार खुले हैं। ये खिडकियों से नहीं झांकते। इन्होनें परमात्म प्राप्ति के लिए सत्संग ,समर्पण ,गुरु सिमरन ,एकांतिकता ,निर्मलता ,करुणा ,प्रेम और सद्भाव को महत्व दिया है। दुर्भाग्य यह है कि संतों के यही शब्द आज हमारे दोहन का कारण बन रहे हैं। जिस मनमुखता का इन संतों ने तिरस्कार किया वही मनमुखता आज दिखाई दे रही है ,इसीलिए समाज में भ्रम और अज्ञान है ,द्वेष और दुर्भाव है ,पाखण्ड और भौतिक सुखों की उपासना है। और अन्ततोगत्वा पश्चाताप है।
भक्ति का एक मात्र अर्थ विशुद्ध ,निष्कलुष और निस्वार्थ प्रेम है। एक ऐसा भाव ,जहाँ भी अनन्यता होगी। आत्मीयता होगी वहीँ भक्ति का संवाहक बन जाता है। इसी प्रेम से अनुरक्ति उत्पन्न होती है ,जो ईश्वरानुरक्ति में परिणत हो जाती है। इसी ईश्वरानुरक्ति को प्राप्त करने के लिए सत्संग के महत्व को सभी स्वीकार करते हैं।
सत्संग का अर्थ सत का संग है ,किसी व्यक्ति या संत का संग नहीं। परन्तु आज तथाकथित कथावाचकों ,प्रवचनकर्ताओं ,व्याख्याकारों और असधाकों के संग को ही सत्संग माना जाने लगा है। इसीलिये एकान्तिक साधना लुप्त हो चुकी है और माया ,प्रपंच ,पाखण्ड का नग्न नृत्य दृष्टिगोचर है। परिणाम यह है कि मनुष्य परमानन्ददायिनी भक्ति की मधुमती भूमिका में  प्रवेश नहीं कर पाते।
सत्संग का अर्थ किसी के पास जाकर कथा श्रवण करना नहीं है बल्कि यह व्यक्तिगत साधन की अनुभूति की शांत स्वीकृति है। व्यक्ति के संग से दोष उत्पन्न होता है और बहुश्रुत होने से ज्ञान की प्राप्ति नहीं होती। उपनिषद भी कहता है ,नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो ,न मेधया न बहुना श्रुतेन। सत का संग अर्थात रजस और तामस से मुक्ति क्योंकि राजसिकता और तामसिकता हमें बहिर्गत करती है ,इंद्रिय सुख की ओर ले जाती है जबकि सत हमें अंतर्जगत की ओर उन्मुख करता है। यहीं से परमात्म दर्शन का मार्ग खुलता है।
मनुष्य त्रिगुणात्मक है जबकि परमात्मा त्रिगुणातीत। सत का संग ही त्रिगुण से मुक्ति का साधन है। तो क्या आज के तथाकथित संत कथावाचक या प्रवचनकर्ता हमें त्रिगुण से मुक्त कर पा  रहे हैं नहीं ,बल्कि आज जिनके पास भीड़ साष्टांग दण्डवत करती है उनका व्यक्तित्व और जीवन दैहिक ,भौतिक और मानसिक सुखों का अभ्यस्त है। वे संगीत की लहरियों पर एन्द्रिय सुख की ओर ले जा रहे हैं। यह सत्संग नहीं हो सकता। इसीलिए आज समाज का दोहन हो रहा है। और वास्तविक संत ढूंढे नहीं मिल रहे। ………………अरविन्द

मंगलवार, 15 अक्तूबर 2013

हम कितने अच्छे होते थे

हम कितने अच्छे होते थे
जब दांत हमारे सच्चे थे।
हीरे मोती दमकते थे ,
मुस्काते थे ,बहलाते थे।
वे दांत नहीं ,वे पत्थर थे ,
सब कुछ पीसते जाते थे।
माता जब चुगती दाल सुघर
फिर भी आ जाता कंकड़ पत्थर
वे किर्च किर्च पिस जाते थे ,
जब दांत हमारे सच्चे थे।
भटियारिन की भट्टी पर
हम नित शाम को जाते थे
पक्की मक्की के दानों को
हम दांतों तले चबाते थे।
बूढ़े हमको तब देख देख
पछताते थे ,कुढ़ जाते थे ,
हम हँसते थे ,मुस्काते थे।
जब दांत हमारे सच्चे थे ,
दस्सी,पंजी ओ अठन्नी को
दुहरी तिहरी कर जाते थे।
बर्फ के मोटे टुकड़ों को हम
तड तड कर खा जाते थे।
हम कितने अच्छे होते थे।
अब बड़ी  मुसीबत भारी है
मुहं पोपल पोपल पोपल है
स्वार्थी मित्रों की तरह
दगा दे गए दांत, अब खोखल है।
अब ठंडा भी कड़वा लगता है ,
अब मीठा भी कडुवा लगता है
पकी कचोड़ी भाती है ,पर
जख्म बड़े दे जाती है।
गोलगप्पे ललचाते हें
मसूड़े  सह नहीं पाते हैं।
जब बच्चे दाने खाते हैं --
हम उठ छत पे आ जाते हैं।
एक और मुसीबत भारी है
भाषा नहीं रही शुद्ध ,लाचारी है।
प,फ पर जीभ फिसल जाती
य र ल व् सब फंसता है।
तालव्य हुए अब सभी ओष्ट
मूर्धन्यों के अब फटे हौंठ
संध्यक्षरों पर जीभ तिलकती है
हिन्दी अब हिब्रू लगती है।
संस्कृत का है बुरा हाल
संगीत हुआ अब फटे हाल
तब मौनी बाबा हो जाता हूँ
क्लिष्ट शब्दों को लिख कहता हूँ .
अब जीवन का रस बीत गया
न वक्ता ही रहा ,न भोक्ता ही रहा
सब रस विरस ,नीरस ही हुआ
दन्त हीन हुआ ,वेदान्त हुआ।
अहंकार गया पानी भरने ,
व्याख्यान गया पानी भरने
उपदेश सभी अब व्यर्थ हुए
अब आत्म शोध के मार्ग खुले।
अब अंतर चिंतन प्यारा है
अब अंतर मंथन प्यारा है।
वेदान्त हुआ ,वेदांत मिला
आत्म दर्शन का द्वार खुला। ……………. अरविन्द




गुरुवार, 10 अक्तूबर 2013

आवारा चिन्तन

                                        आवारा चिन्तन
भारतीय संस्कृति में दो अत्यन्त महत्वपूर्ण शब्द हैं ---विद्या और शिक्षा। आज इन दोनों शव्दों पर विचार करना इसलिए आवश्यक प्रतीत हो रहा है क्योंकि हमारे समस्त तथाकथित विद्या केंद्र अपना चरित्र और आधार खो चुके हैं। स्कूल ,कॉलेज ,यूनिवर्सिटीज --सर्वत्र अकुशल प्रबंधन के कारण असुरक्षित अस्तित्व में जी रहे हैं। ईमानदारी और मूल्य -निष्ठां को संघर्षशील होना पद रहा है।
प्रसिद्ध लोकोक्ति है --विद्या विचारी ता परउपकारी। कहीं किसी भी केंद्र में आपको इस लक्षण का कोई भी उदहारण मिल रहा है ?विद्या व्यक्ति को सद्भाव ,प्रेम,सत्य -शीलता ,उदारता और साधना जन्य संतोष प्रदान करती है ,जबकि आज के तथाकथित विद्या वान, कुर्सीवान ,पदवान न सद्भावी हैं ,न सहनशील ,न प्रेमी ,न उदार और न ही करुणापूर्ण हैं। बल्कि स्वार्थ ,निजी हितसाधन ,चाटुकारिता और लिप्सा के मूर्त रूप हैं। इसी कारण सभी शिक्षा केन्द्रों में गहरा असंतोष विद्यमान है।
विद्या के केंद्र हों और असंतोष हो ,तो सर्वतंत्र स्वतंत्र  ज्ञान के द्वार तो रुद्ध ही रहेंगे। इसका अर्थ है कि ये केंद्र ज्ञान और विद्या के नहीं रहे बल्कि ऐसी शिक्षा के केंद्र बना दिए गये हैं ,जो समस्त अमानवीयता की जननी है।
विद्या उद्घाटन है जबकि शिक्षा अर्जन। अपने स्कूल तथा कॉलेज के विद्यार्थियों में अर्जित दुर्गुणों की संख्या गिनें। हमने क्या अर्जन किया है समझ आ जाएगा।
अधिकतर शिक्षित व्यक्ति आज मानसिक रूप से बीमार हैं ,परपीडन को अपनी शक्ति समझने वाले ,दूसरों के अधिकारों का हनन करने वाले ,प्रतिस्पर्धा में उतरने के स्थान पर गोटी बिठाने वाले ----स्वस्थ नहीं हो सकते। और अधिकतर संख्या इन्हीं लोगों की है। केंकड़ा वृति का सबसे ज्यादा प्रयोग शिक्षा संस्थानों में देखा जा सकता है।
वर्तमान शिक्षा प्रणाली ने समाज का हित साधन नहीं किया ,केवल रोजी रोटी कमाना या हथियाना ,हड़पना ही सिखाया है। आप तुलना करें ---तक्षशिला से आदमी बन कर निकलते थे आज तंत्र के पुर्जे या नौकर निकल रहे हैं।
विद्या या ज्ञान अनुभव का हस्तांतरण है ,पुस्तक तो केवल साधन है।
आज नकटा समाज है जो अपनी संख्या को ही बढ़ा रहा है क्योंकि प्रजातंत्र में संख्या का बल ही वास्तविक बल माना जाता है। इसी कारण मूल्य हीनता जन्म ले चुकी है ,पदों का दुष्प्रयोग इसीलिए है। असुरक्षा और उत्पीड़न भी इसीलिए है। और इसीलिए ईमानदार कर्मशील व्यक्ति को संघर्ष करना पड़ता है ---यह बेहद आवश्यक भी है। हम क्यों नकटा सम्प्रदाय के सदस्य बनें।
मित्रो !बीमार व्यवस्था पर विचार करना भी जरूरी है क्योंकि हम कहीं पर भी स्वस्थ और सुरक्षित नहीं हैं।
1 .  आज न धर्म स्वस्थ और सुरक्षित है क्योंकि वहां आसारामी वृति घुसपैठ कर चुकी है।
2 . न राजनीति स्वस्थ है क्योंकि वहां असहाय मौन स्थापित कर दिया गया है।
 3 . न ज्ञान सुरक्षित है क्योंकि साम्प्रदायिक चिन्तन  ने उसे खंडित कर दिया है।
 4 .  न खान --पान सुरक्षित है क्योंकि वहां जहर भरा जा चुका है।
 5 .  न प्रबन्धन स्वस्थ और सुरक्षित है क्योंकि वहां भेड़िया धसान और भ्रष्टाचरण प्रवेश कर चुका है।
 6 .  न गलियाँ और सड़कें सुरक्षित हैं वहां बटमार ताक लगाए बैठे हैं।
      
सोचिये तो सही कि हम कहाँ सुरक्षित हैं ----यह सब शिक्षा में मूल्यों के अभाव और गुणों की अनुपस्थिति के कारण तो नहीं कहीं ?………. अरविन्द


मंगलवार, 8 अक्तूबर 2013

अरविन्द दोहे

अरविन्द दोहे
मन्त्र जपे प्रभु मिले नहीं न तीरथ माहीं वास
निर्मल कर रे निज मानसा ताहि छवि निहार।
भटकत भटकत भटक गया ,मिटी न भव की चाह
गुरु न मिला विलक्खना या हौंस रही मन माहिं
माही मेरा बहुत  विचक्षना  जाने सब कुछ मोर
मैं मूरख अति विलक्षना कहूँ होर अति होर।
प्रभु की इच्छा करो मन ,प्रभु से इच्छा नाहिं
भव बंधन छूटेगा मना भव खंडन कर गाहिं।
साईं तो मौनी भया, नाहीं सुनत पुकार
किस भाषा टेरू तुझे ,प्रभु मेरी ओर निहार।
फाटा मेरा चोलना टूटा मम का ताग
आके अब उबार लो ,लागी उलटी धार।
कर कर कर कर ही गया ,करतब किया न कोय
करतब जो भी किया प्रभु , करतम करतम होय। ………. अरविन्द


सोमवार, 7 अक्तूबर 2013

कुपित ग़ज़ल

कुपित ग़ज़ल
हम अपने प्यारों के लिए गज़ल लिखते हैं
किस्मत के मारों के लिए गज़ल लिखते हैं।
दिखती नहीं चांदनी में भी अब हमें चांदनी
बेबसों की बेकसी मजलूम गज़ल लिखते हैं .
पदों पर जम गए खूंखार मगरमच्छों से वे
जालिमों के जुल्म को गज़ल में लिखते हैं।
सियार आके बस गए हैं इस जंगल में अब
हिरणियों की भीत आँखों की गज़ल लिखते हैं .
वोटों के लिए बिक गये जो शैतान हाथों में
सिसकते लोकतंत्र की हूक गज़ल लिखते हैं।
घोंसलों में महफ़ूज नहीं चिड़ियों के बच्चे
उल्लु की शातिर निगाहों की गज़ल लिखते हैं .
आशा की कोई किरण नहीं दीखती अब कहीं
बदकिस्मती से हम अंधेरों की गज़ल लिखते हैं। ……अरविन्द

मंगलवार, 1 अक्तूबर 2013

खुल कर खूब हँसे हम .

कुर्सी पर टटुआ आ बैठा
खुल कर खूब हँसे हम
व्यवस्था का उठा जनाजा
खुल कर खूब हँसे हम।
चोर चोर मौसरे भाई
मिल बैठ चखें मलाई
घात लगा के माल उड़ाते
बचा नहीं पाए अपना धन
खुल कर खूब हँसे हम।
भोले भाले साधु बनकर
लुच्चे ही अब अच्छे बनकर
टुच्चे सारे गुच्छे ले गए
कुर्सी पर आ बैठे धम धम
खुल कर खूब हँसे हम .
कैसी लीला तेरी प्यारी
कौए ने पिचकारी मारी
गोपी हुई बेहाल बेचारी
उल्लू खा गये माखन सारी
टुकुर ताकते रह गये हम
खुल कर खूब हँसे हम .
प्रमाण पत्र ले झूठे सारे
श्वेत केशी अध्यापक न्यारे
गंभीर मुखौटे भर ले गये लोटे
शिक्षक बन शौषण हैं करते
नियम कर दिए सारे दफ़न
खुल कर खूब हँसे हम।
तिलक लगाये धूनी रमाते
इच्छा पूरी के वारदाते
कृष्ण रूप ले रास रचाते
काम प्यारा चाम दिखाते
राम नाम की चादर ओढ़े
छुरी दिखाते चम चम चम
खुल कर खूब हँसे हम। ……. अरविन्द