चमकता है प्रकृति का दर्पण
झाँक रहा ब्रह्म यहाँ निर्भ्रम
भवाम्बुद्धि के उस पार निर्विकार
कर्ता ही कृति को रहा निहार।
क्षण भंगुर सृष्टि का प्रसार
झलकता तव सौंदर्य अपार।
रूप सागर का लख अरूप
प्रसरित दिग्दिगंत सार असार।
तमिस्रा सी सुखद भ्रान्ति ,
उदित मार्तण्ड सी कान्ति ,
निरभ्र व्योम सी हो शान्ति
यही साधक मन की मौन पुकार।
लखुं तव रूप अरूप अपरूप
विभु व्यापक शुचि शुद्ध स्वरुप
नयन की ससीम असीम गुहार
प्रभु !तुम ही लो अब निहार।
जगे जीवन का सत्य प्रकाश
भग्न हो माया दुबिधा भास्
तोड़ दूँ अंध कूप का द्वार
मिले जो तेरा ज्ञान कुठार।
जगत तो छाया का आभास
असत्य मृदु संबंधों का लास
बहु वर्णी इह के हैं सब पाश
मुक्ति का मिले नहीं अवकाश।
गति ,अगति दुर्गति के कर्म
कर्ता अकर्ता सब विभ्रम
निर्गत झांक रहा निर्मम
ज्ञान भी छाया ग्रथित प्रकाश।
सुगत कि स्थिति कहीं है और
विगत से चिपक रहा मन मोर
व्यर्थ हैं कर्म बंधन के शोर
दिखेगी कब तव इंगित भोर
प्रतीक्षा में हूँ रहा पुकार
खोल दो हे प्रभु ये नव द्वार। ............. अरविन्द