शुक्रवार, 29 नवंबर 2013

कभी - कभी

कभी - कभी कुछ भी मन नहीं सोचता है
खाली आकाश में आवारा बादल घूमता है।
आदमियों की भीड़ में अपना नहीं मिलता
मुहं ढाँप कर अँधेरे में दुबकता है, सोता है।
अकेला होना ही तो कहीं क्या खुदा होना है
 दुनिया रचता है पर अलग रह नहीं पाता है।
संवेदनाएं भी यहाँ थिरकती तितिलियाँ  हैं
संभालना चाहते हुए भी पकड़ नहीं पाता  है। ………… अरविन्द


मंगलवार, 26 नवंबर 2013

वाह !वाह !!

नियति का धत्ता
गिरता हुआ पत्ता
            वाह !वाह !!
लोकतंत्र में सत्ता
खुले झूठ का भर्ता
            वाह ! वाह!!
कविता में भत्ता
सिलता न कुर्ता
          वाह ! वाह !!
परीक्षा में गत्ता
सफलता का रस्ता
          वाह ! वाह !!
अध्यापन का हाल
फटेहाल ,फटेहाल
          वाह ! वाह !!
पत्नी की  मुस्कान
लहुलुहान हुए महान
           वाह ! वाह !!
पुत्रों का सद्चरित्र
खुल गए वृद्धघर
          वाह ! वाह !!
भ्रष्ट हुए अधिकारी
व्यवस्था की बीमारी
          वाह ! वाह !!
मंदिरों का गृह गर्भ
अपढ़ पुजारी का दर्प
            वाह !वाह !!
परमात्मा की मुस्कान
पाखंडियों की दूकान
            वाह ! वाह !!
धूर्त हुए धनवान
पदों को पहचान
            वाह ! वाह !!
दुष्टों की खुली भर्ती
योग्यता रही भटकती
              वाह ! वाह !!
मूर्खों की सवारी
कुर्सी हुई बेचारी
           वाह ! वाह !!
कविता करे आह ,आह
भई वाह ! भई वाह ,
             वाह ! वाह !!………… अरविन्द





सोमवार, 25 नवंबर 2013

मुस्कुरा के

मुस्कुरा के जरा इशारा कीजिये
रूठने वालों को निहारा कीजिये। 
गीतोंमें झिलमिल लाया कीजिये 
आँखों का सुरमा चुराया कीजिये .
कंधे पे उनके सिर टिकाया कीजिये
कानों में होले फुसफुसाया कीजिये।
कपोलों पे गिरी लट झुलाया कीजिये
होठों से कभी तो गुदगुदाया कीजिये।
प्यार को प्यार से संभाला कीजिये
दूध को खुद भी तो उबाला कीजये . ………… अरविन्द


अपना है दर्द

 हम दर्दों को शब्दों में क्यों सुलाएं
क्यों न खुशियों के सौ दीप जगाएं  .
अपना है दर्द क्यों दूजों को दिखाएँ
हंसें ,मुस्कुराएं रोतों को भी हंसाएं।
सौगात यह पीड़ा अपनों से मिली है
अपना यह धन है क्यों इसे दिखाएँ।
बेगाने कभी हो नहीं सकते अपने
रूठा है जो अपना उसे तो मनाएं।
दीया जगा कर रखो दरवाजे पर
आओ न ,भटके को रास्ता सुझाएँ।
जिंदगी बोझ नहीं ,खिला कमल है
 जूड़े में लगाएं चाहे खुद को सजाएं .
आकाश बुलाता है ऊंचाइयां पुकारतीं
माथे पे धर हाथ क्यों निकम्मा कहाएँ। …………अरविन्द

मंगलवार, 19 नवंबर 2013

ओ ! आजा मेरे प्यारिया

ओ ! आजा मेरे प्यारिया
मेरी अखां  दे ओ तारिया .
मेरे साहां दे सोहने सहारिया
मेरी जिंदड़ी दे लिश्कारिया।
ओ ! आजा मेरे प्यारिया।
तैनूं बागी सैर करवाऊंगा
अम्बीआं थले ले जाऊँगा
तैनूं तेरी दुनिया दिखाऊंगा
झरने हेठ लै जाऊँगा
कुझ खिलदे फुल्ल दिखाऊंगा
घने जंगलां बिच्च लै जाऊँगा
चिड़ियाँ दे गीत सुनाऊंगा
मौरां दे नाच दिखाऊंगा
कोयल दी कूकां दे थल्ले --
बोरां दी महक महकाऊँगा  .
किंवें नदियां ही बल खांदियां ने
किंवें दरिया बिछदे जांदे ने
किंवें बोहड़ खुल्ल के हसदा ऐ
किवें पिप्पल झूमदा नच्चदा ऐ
किवें झूला पा के कुझ कुड़ियां
पींग हुलारे लैन्दियां ने
ऐ सुंदर दुनिया तेरी ऐ
हुन  आ तक्क मेरे प्यारिया 
ओ ! आजा मेरे प्यारिया।
चल्ल हुन लोकां नु बी तक्क लईए
तेरे सोहने पुतले तक्क लईए
ऐ बेहद प्यारा पुतला ऐ
तेरी रचना दा  ऐ सुतला ऐ
ऐ नच्चदा ,खेलदा ,टप्प्दा ऐ
ऐ रौंदा ,हस्सदा ,बोलदा ऐ
ऐ शास्त्र पडदा सारे ने
ऐ खोजां करे न्यारे ने
इस दे दिल दे अंदर बगदे --
स्वार्थां दे परनाले ने।
न आप सुखी हो बहँदा ऐ
न दूजे नु सुख देंदा ऐ
ऐ रोंदा कलपदा जिँदा ऐ
ऐ रोंदा कलपदा मरदा ऐ
क्यूँ सुंदर देह दे के तू
दित्ता श्राप प्यारिया
ओ ! आजा मेरे प्यारिया।
ऐ गीत प्यार दे गाउंदा ऐ
सोलहे नवें सुणाउंदा ऐ
होके फेर किसे दा ऐ --
घुटदा ते पछतान्दा ऐ
इह कल्ला नहीं रह पाउँदा ऐ।
कुझ कल्ले बन वन जाउन्दे ने
मत्थे तिलक लगाउँदै ने
अखां बंद कर बैह जांदे ने
लोकां तों मत्थे टीकौंदे ने
अपने मापे छड़ के ओ
मापे नवें बनाउँदै ने।
मायापति बन बन के ऐ
माया दे फंद छुड़ान्दे ने
रब्ब मिलेया नहीं कदे किसे नु
ऐ खुद रब्ब बन बैह जाऊन्दे ने।
कि देखें तू खेल प्यारिया
हुन आजा मेरे प्यारिया।
तू आखें लीला तेरी ऐ
ऐ आखे मेरी मेरी ऐ
सच्चाई किसे न हेरी ऐ
न मेरी ऐ , न तेरी ऐ
क्यों करदा  हेरा फेरी ऐ …………… अरविन्द





शुक्रवार, 15 नवंबर 2013

s

जिस प्रकार शिक्षा के केंद्र में मनुष्य है ,उसी प्रकार धर्म के केंद्र में भी केवल मनुष्य ही है। कोई पूजा पद्धति या गुरु नहीं। अगर ऐसा होता तो कबीर को यह न कहना पड़ता कि गुरु को मानुष जानते ते नर कहिये अंध अथवा वह परमात्म दर्शन से पूर्व गुरु को प्रणाम कर विदा न करता। अत: यहाँ यह विचारणीय है कि मनुष्य का ,शिक्षा और धर्म का उद्देश्य क्या है ? क्या जीविकोपार्जन के योग्य हो जाना ही उद्देश्य है ?क्या शिक्षा केवल जीविका के निमित्त ही है ?अगर ऐसा है तो धर्म कि कोई आवश्यकता ही नहीं है। न अच्छी नौकरी ,न अच्छी सेवा , न अच्छा व्यवसाय , न अच्छी गद्दी ,न ही अच्छी आर्थिक स्थिति मनुष्य का लक्ष्य या उद्देश्य है। जब तक हम इन्हें ही उद्देश्य मानते रहेंगे तब तक हम किसी भी प्रकार के शोषण के शिकार होते रहेंगे।
   मनुष्य ,शिक्षा और धर्म का उद्देश्य केवल ---ज्ञान ,सुख और स्वतंत्रता है। ज्ञान के विषय में तो सभी जानते हैं ,फिर भी संक्षेप में सभी प्रकार के भ्रमों से मुक्ति का साधन ज्ञान है। कैसे इसे प्राप्त किया जाए --इस पर अभी विचार नहीं करते ,
सुख भी हमारे यहाँ पूर्णतया पारिभाषित है। यह कोई हैप्पीनेस या प्लेजर नहीं। और न ही वैयक्तिक धारणा के आधार पर इसे अपरिभाषित छोड़ा जा सकता है।
स्वतंत्रता स्वछंदता नहीं ,मानवीय विकास की उपलब्धि का मूलभूत कारण  है। इन तीनों उद्देश्यों कि प्राप्ति से  मनुष्य में गुणात्मक विकास की चरम परिणति सम्भव है। इसके लिए शिक्षा और धर्म दोनों समान रूप से संबद्ध हैं।
बालक अपने साथ कुछ लेकर नहीं आता है। समाज को ही उसके सर्वांगीण निर्माण में सहयोग करना होता है। जबकि इस निर्माण कार्य में हम अभी सफल नहीं हो पाये हैं। व्यक्ति का वैयक्तिक और सामाजिक चरित्र अभी अधूरा है ,इसमें कोई संदेह नहीं होना चाहिए। तो कारन तो तलाशना ही होगा। बालक के निर्माण के लिए जिस सामग्री का हम उपयोग कर रहे हैं ,उसमें मात्रा और कोई  महत्वपूर्ण वस्तु छूट गयी है।
भारतीय राजनीति ने कभी इस विषय में नहीं सोचना है। क्योंकि वह भेदवादी नीतियों के सृजन कर जातियों कि तंग गलियों से अपना रास्ता बनाना जान चुकी है। इसीलिए धर्म के प्रति पाखंडपूर्ण दुष्प्रचार निरंतर हो रहा है। विचार करने वाले प्रज्ञावान विद्वान भी खेमों में बाँट चुके हैं ,जो खेदजनक है।

पुकार भरी बातें

सुख पहुंचाती हैं तेरी कवितायी बातें
अनुभव दिखलाती हैं तेरी यही बातें।
कुछ मीठी मीठी कुछ उदास सी बातें
कहीं दुलराती कहीं फटकारती  बातें।
उलझनों को खूब सुलझाती सी बातें
दर्द की मीठी सौगात संभालती  बातें .
दोस्तों की घातें- मुलाकातों की बातें
दुश्मनों की प्यारी चालबाजी की बातें।
रातों को जागती हैं  मनुहार भरी बातें
सुबह सुबह शरमाती लाज भरी बातें।
आम के बौर की तुर्श सुगंध सजी बातें
कोयल की कूक सी पुकार भरी बातें। ............. अरविन्द



गुरुवार, 14 नवंबर 2013

शिक्षा के क्षेत्र में धर्म

शिक्षा के क्षेत्र में धर्म ,विशेष रूप से विचारणीय है क्योंकि स्वतंत्रता के बाद हिन्दोस्तान  में अगर कुछ शब्दों के साथ अत्याचार हुआ है ,तो धर्म उनमें से एक है। हमने सम्प्रदाय को ही धर्म मान लिया है। कुछ पूजा -पद्धतियां धर्म नहीं हो सकतीं।  कुछ ग्रंथों का केवल पाठ --धर्म नहीं है  क्योंकि
धर्म आचरण और विचार की  वस्तु  है। यह मात्र किसी एक मूर्ति ,मंदिर या स्थान में सीमित नहीं किया जा सकता। दुर्भाग्य यही  है की हमने साम्प्रदायिक श्रेष्ठा ग्रंथि से मुक्त हो कर धर्म के  विषय
में कभी सोचा ही नहीं है। हम कर्म काण्ड को ,मूर्ति -पूजा को ,गण्डे ताबीज को,जादू टोने को ,मंत्रोच्चार को ,प्रार्थनाओं को ,धर्म मानने लग गए हैं जो कि है नहीं। इन्हीं धारणाओं के कारण धर्म के विरुद्ध अनेक मतवाद उत्पन्न हो गए हैं और अत्यंत महत्वपूर्ण तत्व विचार की परिधि से बाहर कर दिया गया है। यह दुरभिसंधि भी हो सकती है। बिना जाने खंडन करना या नकारना या अवहेलना करना सत्यान्वेषण के विरुद्ध है। इसलिए धर्म और शिक्षा के अन्तर्सम्बन्ध पर निरपेक्ष चिंतन ,विचार और बहस होनी चाहिए।
जिस प्रकार शिक्षा मनुष्य के विविध विकास पर आधारित है उसी प्रकार धर्म भी मानव के  बहुमुखी विकास से ही सम्बन्धित है। क्या अंतिम सत्य की तलाश करना शिक्षा का उद्देश्य नहीं ?क्या मानव के चरम उत्कर्ष को प्राप्त करना शिक्षा की अवधारणा में नहीं ?चेतना को जीवन की उच्चतम परिणति तक पहुँचाना क्या शिक्षा की सीमा से बाहर है ?नहीं ऐसा नहीं हैं।
धर्म भी व्यक्ति जीवन में इन्हीं अपेक्षाओं को पूर्ण करता है। शिक्षा की ही तरह धर्म भी जीवन से सम्बंधित है और वह भी मनुष्य ले देह ,मन,  बुद्धि ,चित्त और आत्म से जुड़ा हुआ है। इसलिए शिक्षण के क्षेत्र में हमें धर्म और शिक्षा के अन्तर्सम्बन्ध पर सम्प्रदायों से मुक्त चिंतन कर वास्तविक तथ्यों को प्रकट करना चाहिए।

रविवार, 10 नवंबर 2013

अरविन्द दोहे

घर से निकसे घर किया ,
घर में मिला ना  घर।
घर घर करते घर जी लिए ,
रहे हम बेघर के बेघर।
      ------------
चाहते चाहते अचाहे हुए
अब चाहत रही न कोय .
अनचाहे ही चाहा मिले,
 फिर क्यों चाहे कोय।
       -----------
यह जग सारा रब्ब का ,
रब्ब इस जग में नाहिं
कलरव तो सब कर रहे ,
अर्थ मिले कुछ नाहीं।
       ---------
गुरु जिना दे हों टप्पने
चेले जान उन छड़प्प,
गुरु चेले दियाँ जोड़ियाँ
रब्ब ते मारन गप्प।
     -----------
बहुत दिनों से हम देख रहे,
राजनीति की जंग .
दोषारोपण कर रहे
जो हैं दोषों के संग।
-----------------------------------------------अरविन्द दोहे  






शुक्रवार, 8 नवंबर 2013

चेतना की देशना

श्रवण कर नित चेतना की  देशना।
जन्म जीवन है अकिंचन
देह भी नहीं  है चिरन्तन
सत्य केवल भासता है
मिथ्या माया जाल रोपण .
किसलिए बद्ध हो रहे तू
गतिशीलता मुक्ति प्रवीणा
श्रवण कर नित चेतना की देशना।
तू जिसे निज है समझता
वह कहीं  भिन्न विचरता
भूति की यह भाव वीथि
मानसिकता की दुरुहता
क्यों अब अवकाश चाहे -
अनात्म का आभास चाहे
प्रत्यक्ष सब कुछ मृन्मना
श्रवण कर नित चेतना की देशना।
किरण भीगी ऊषा भीनी
दीप्त यौवन दान कीनी
घनी क्षपा में उडुगणों की
खिल रही  आँख मिचौनी
संसरणशील संसार सारा
नित करे  मृष -कलपना
श्रवण कर नित चेतना की  देशना।
विगत ,गत विदित है क्या ?
सत्य मिल पाया कभी क्या ?
वय निरन्तर अग्रगामी -
रूप रह पाया कभी क्या ?
मृणमयी संसार सारा -
उपदिष्ट हो पाया कभी क्या ?
विचार तो सब खोखले हैं
तर्क वितर्क सब भोथरे हैं
खुल नहीं पाया रहस्य --
क्यों करे फिर चिन्तना
श्रवण कर नित चेतना की देशना।
सम्भूति भी तो व्यर्थ है
असम्भूति निरर्थक अर्थ है
तमसावृत देहागर्त है
अव्यर्थ भी तो व्यर्थ है
समर्थ रिक्त हस्त है .
सौंदर्य के उपकरण सारे
मरणधर्मा आनन्द सारे
विल्लोल वीचि है कल्पना
श्रवण कर नित चेतना की देशना। ................... अरविन्द





गुरुवार, 7 नवंबर 2013

आओ ! कुछ बात करें घर की

आओ ! कुछ बात करें घर की। 
दशहरा बीता ,करवा बीता 
अहोई अष्टमी साथ बिताई है 
कुछ पास हमारे बैठो प्रिये 
अब घर की करनी सफाई है। 
मकड़ी के जाले लगे हुए 
मच्छरों ने धूम मचाई है। 
मिट्टी की परतों ने भी प्रिय 
दीवारों पर गर्द जमायी है। 
धुएं से अपने चौंके में 
कालिख ही पुत आयी है। 
मेरी किताबों के ऊपर भी 
धूल बहुत चढ़ आयी है। 
झाड़ू पौंछा तुम छोड़ चुकी 
खाती हो , सो जाती हो ,
टी वी के आगे बैठ प्रिये 
तुम नाटक देखती रहती हो। 
अपनी गृहस्थी के नाटक में 
कुछ सेवा कर लें खटमल की 
आओ ! कुछ बात करें घर की। 
तुम कितनी सुंदर होती थीं 
ज्यों कनक छरी लहराती सी 
छम छम आँगन में प्यारी 
मुस्काती थी ,कुछ गाती थीं। 
वह लाल दुपट्टा तो तेरा 
आदित्य पकड़ लहराता था 
घर के सब बच्चों के संग 
छुपा छुपायी होती थी। 
याद करो अपना यौवन 
इस घर में जब तुम आई थी 
थापी लेकर इन हाथों में 
नित वसनों की करे धुलाई थी। 
थापी की थाप प्यारी से --
तुम मोटी नहीं हो पायी थी। 
अब जबसे मशीन घर आई है 
तुम बटन दबा कर सोती हो। 
कपडे बेचारे तरस गए ---
तेरे हाथों की स्पर्श लुनाई को। 
टुक बात सुनो इन कपड़ों की ,
आओ ! कुछ बात करें घर की। 
मैं अब भी हूँ कृश काय प्रिये 
सौ सीढ़ी झट चढ़ जाता हूँ। 
पर तेरी स्थूलता के आगे 
अब पस्त हुआ मैं जाता हूँ। 
हिरनी जैसी चाल तुम्हारी ,
हथिनी जैसी  हो गयी है। 
सड़क किनारे खड़ा ,तुम्हारी 
प्रतीक्षा में थक जाता हूँ। 
कहाँ गयी वे सब बातें ?
कहाँ गयीं मदमस्ती की गतियाँ ?
मैं खुद ही सोचा करता हूँ 
जब भुज वल्ली लहराता था 
हे मुष्टि मध्यमा तुम्हें पकड़,
झूला भी खूब झुलाता था। 
बीते युग की सुंदर बातें --
सब बात हुई सुख सपने की 
आओ !कुछ बात करें घर की। 
अभी तो कुछ बिगड़ा नहीं प्रिये 
बिखरे बेरों को संभाल अभी 
घर के सारे कामों में लग 
सेहत की करो संभाल अभी। 
इस माई को घर से करो बाहर 
जो बर्तन मांजने आती है। 
फर्शों को साफ़ नहीं करती 
बस ,आधा झाड़ू लगाती है। 
चम्मच भी चिपचिप करते हैं 
थाली में शक्ल नहीं दिखती 
गिलासों के किनारों पर ,तेरी 
लिपस्टिक नजर आ जाती है। 
तुम बहुत सफाई पसंद रही 
आओ ! कुछ बात करें घर की। 
अब बच्चों ने शादी कर ली 
वे बाप बने उलझे रहते 
गृहस्थी के सब सुख दुःख वे 
मिल जुल कर तुमसे कहते। 
उनको माता  प्यारी है ,
वे बात सभी तुमसे करते। 
तुम भी तो हँस हँस के अब 
उनसे ही बतियाती हो। 
यह वृद्ध अपने कमरे में 
किताबों में उलझा रहता है 
लिखने ,पढ़ने ,बतियाने में 
समय व्यर्थ गंवाता है --
या बैठे ठाले कुछ न कुछ 
कहते जाता है। 
बातें इसकी क्यों तुझे नहीं सुहातीं 
आओ ! कुछ बात करें घर की। ………………अरविन्द 

आवारा चिंतन...... उत्सवप्रियता

   आवारा चिंतन।                             उत्सवप्रियता
विगत कुछ दिनों में कर्क चतुर्थी ,दशहरा ,दीपावली ,भाई दूज इत्यादि उत्सव आये ,जिन्हें पूर्ण उल्लास के साथ हिन्दू समाज ने अलंकृत होकर संपन्न किया। उत्सव प्रियता हिंदुओं कि महती विशिष्टता है। इनके यहाँ उत्सव का अर्थ है --सामंजस्य पूर्ण सामाजिक सौहार्द्र ,सुख ,समृद्धि ,कल्याण और दैहिक ,मानसिक और आत्मिक आनन्द।
परम्परा से प्राप्त , इस प्रकार की सामूहिक आनन्द वेला को, इस जाति ने चिरकाल से संभाला हुआ है। इस जाति के पञ्चांग का  अगर ध्यान और गम्भीरता से अवलोकन किया जाए ,तो विदित होता है कि यहाँ की प्रत्येक तिथि, यानि कि दिन ,अपनी विशिष्टता के साथ उदित होता है। हर दिन यहाँ उत्सव है। केवल जन्म ही नहीं बल्कि मृत्यु भी यहाँ  उत्सव ही है--ससीम का असीम से मिलनोत्सव,
आत्मा का परमात्मा से मिलन। प्रत्येक हिन्दू तिथि के अनुसार दिवस को आरम्भ करता है। तदनुकूल आचरण इस जाति की उदारमना संस्कृति का और सर्व -कल्याणकारी प्रज्ञा का उद्घाटन है।
विशेषता यह है कि अधिकांश उत्सवों का केंद्र स्त्री है। केवल यही जाति अपनी स्त्रियों को सर्वांगीण श्रृंगार से सुसज्जित करना जानती है। हिंदुओं के उत्सवों का अगर विश्लेषणात्मक अध्ययन किया जाए तो इस सत्य की प्रतीति होगी कि पुरुषों के लिए केवल गिने चुने उत्सव हैं। कर्क चतुर्थी ,दीपावली, भाई दूज , रक्षाबंधन ,लोहड़ी इत्यादि पर्व स्त्रियों के सौंदर्य ,आनंद तथा प्रेम कि अविरल आस्था तथा आकांक्षा के प्रतीक हैं। सुखदा अनुभूति होती है कि स्त्री पुरुष में से कोई नहीं जानता कि किसने किस योनि से मुक्त होकर स्त्री या पुरुष के रूप में जन्म लिया है परन्तु पारस्परिक प्रेमानुभूति संकल्प और सहचरी भावना का अंतर्ग्रथित सम्बन्ध सदा से है और भावी जीवनों की अनवरत सम्बन्धों की धारा में बना रहेगा।  हम बार -बार मरें भी ,बार -बार जन्म भी लें और बार -बार इन्हीं सम्बन्धों के आंतरिक आनंद के उपभोक्ता भी रहे ---कर्क चतुर्थी यही सन्देश तो देती है। भविष्य अदृश्य है परन्तु कामना बलवती है। प्रेम परमात्मा का अनुपम वरदान है ,इसलिए सम्बन्धों का चिरंजीवी  स्थायित्व स्थाणु वत संरक्षणीय और सम्पूजनीय है।
नर नारियों कि सौंदर्य सज्जित प्रतिमाओं में जिन्होंने आस्था ,प्रेम ,विश्वास और समर्पण नहीं देखा ,वे इन उत्सवों में निहित पारमात्मिक सौंदर्य से भी वंचित हैं।
दीपावली ,जिसे लक्ष्मी पूजन से अभिहित किया जाता है ,क्या स्त्री सौंदर्य के प्रति अनुग्रह और प्रकृति के समक्ष पुरुष का विनम्र समर्पण नहीं ?क्या ये उत्सव मनुष्य के अंतरस्थ ईश्वरत्व का उद्दीपन नहीं ?दशहरा यद्यपि पौरुष का पर्व है ,तथापि व्यंजनात्मक सन्दर्भ में यह पर्व स्त्री की गरिमा संरक्षण का महनीय पर्व नहीं ?हमें समझना चाहिए की हिन्दू संस्कृति में स्त्री केवल भोग्या नहीं बल्कि अनंतदायी आनंद के जागतिक सत्य के सुख की सौंदर्यमयी प्रतिमूर्ति है।
जिस जाति में उत्सवों कि वृहद श्रृंखला नहीं होती वे जातियां हिंस्र और वैयक्तिक सुख संधान के स्वार्थ मार्ग पर चलने को बाध्य हो जाती हैं तथा समाज में असंतुलन ,उदासी ,अवसाद, जिघांसा और अनैतिकता को प्रश्रय देने लग जाती हैं। परिणाम शेष जातिओं और वर्गों को झेलना पड़ता है। इसलिए भिन्न भिन्न मतवादों की धमाचौकड़ी में इस उत्सव प्रियता का संरक्षण अनिवार्य है,क्योंकि यही जीवन कि जीवनंतता है। ……………अरविन्द

बुधवार, 6 नवंबर 2013

खोल दो हे प्रभु ये नव द्वार

चमकता है प्रकृति का दर्पण
झाँक रहा ब्रह्म यहाँ निर्भ्रम
भवाम्बुद्धि के उस पार निर्विकार
कर्ता ही कृति को रहा निहार।
क्षण भंगुर सृष्टि का प्रसार
झलकता तव सौंदर्य अपार।
रूप सागर का लख  अरूप
प्रसरित दिग्दिगंत सार असार।
तमिस्रा सी  सुखद भ्रान्ति ,
उदित मार्तण्ड सी  कान्ति ,
निरभ्र व्योम सी हो शान्ति
यही साधक मन की मौन पुकार।
लखुं तव रूप अरूप अपरूप
विभु व्यापक शुचि शुद्ध स्वरुप
नयन की ससीम असीम गुहार
प्रभु !तुम ही लो अब निहार।
जगे जीवन का सत्य प्रकाश
भग्न हो माया दुबिधा भास्
तोड़ दूँ अंध कूप का द्वार
मिले जो तेरा ज्ञान कुठार।
जगत तो छाया का आभास
असत्य मृदु संबंधों का लास
बहु वर्णी इह के हैं सब पाश
मुक्ति का मिले नहीं अवकाश।
गति ,अगति दुर्गति के कर्म
कर्ता अकर्ता सब विभ्रम
निर्गत झांक रहा निर्मम
ज्ञान भी छाया ग्रथित प्रकाश।
सुगत कि स्थिति कहीं है और
विगत से चिपक रहा मन मोर
व्यर्थ हैं कर्म बंधन के शोर
दिखेगी कब तव इंगित भोर
प्रतीक्षा में हूँ रहा पुकार
खोल दो हे प्रभु ये नव द्वार। ............. अरविन्द









शुक्रवार, 1 नवंबर 2013

बापू के कुछ बंदर

बंदर ---2 .
जहाँ भी देखो आ बैठे हैं बापू के कुछ बंदर
धमा चौकड़ी खूब मचाते बापू के कुछ बंदर
अनुशासन की धज्जी उड़ाते बापू के कुछ बंदर
मेज कुर्सी पर तन कर बैठे बापू के कुछ बंदर
नकली डिग्री ले कर आ गए बापू के कुछ बंदर
अहंकार के भरे गुब्बारे बापू के कुछ बंदर
धोखा देकर चखें मलाई बापू के कुछ बंदर
व्यवस्था को धत्ता बताते बापू के कुछ बंदर
फसल हमारी सारी खा गये बापू के कुछ बंदर
अपनी खों खों आप मचावें बापू के कुछ बंदर
ज्ञानी बन कर रौब जमाबे बापू के कुछ बंदर
दिल्ली के दरबारी बन गए बापू के कुछ बंदर
धर्मों के अधिकारी बन गए बापू के कुछ बंदर
पाठ पढ़ाते ,जाप कराते बापू के कुछ बंदर
रटे रटाये तोते हो  गये बापू के कुछ बंदर
तंत्र को अब नोच रहे हैं बापू के कुछ बंदर
गली गली धमकाने लग गए बापू के कुछ बंदर
संस्थायों के नेता बन गए बापू के कुछ बंदर
अध्यक्ष बने मुस्कान भूल गए बापू के कुछ बंदर
काम क्रोड़ में उत्फुल्ल झूलें बापू के कुछ बंदर
सामर्थ्य हमारी हर कर ले गए बापू के कुछ बंदर
जात बिरादरी रौब दिखाते बापू के कुछ बंदर
जनता को धिक्कार रहे हैं बापू के कुछ बंदर .
बापू प्यारे अब ले जाओ अपने प्यारे बंदर ,
बहुत चिढ़ाया और न चिढ़ाओ ले जाओ ये बंदर
आदमियों में घर कर बैठे तेरे ही ये बंदर
पकी पकायी ले कर चाटें तेरे ही ये बंदर
क्या सोच कर ले आये तुम ये तीनों बंदर ?
कैसा बदला लिया तुमने दे दिए ये बंदर ?
तीन नहीं अब अगनित हो गए तेरे बंदर। ……………अरविन्द