मंगलवार, 5 अगस्त 2014

जिंदगी गीत है

कठिनाइयां बहुत आती हैं रास्ते में
जिंदगी गीत है क्यों नहीं गुनगुनाते हो।
चेहरा मुस्कुराने के लिए मिला है जालिम
क्यों मासूम महबूब को पत्थर बनाते हो ?
थाम लो हाथ रास्ता आसान कर देंगे
क्यों नहीं सहयात्री को हाथ थमाते हो ?
मंजिल जब एक हो ,रस्ते अलग नहीं होते
क्यों इधर उधर अपने पाँव डगमगाते हो ?
तेरे लिए तो खोल दिए है दरवाजे हमने
रौशनी में कदम रखने से क्यों घबराते हो ?………… अरविन्द







आसमान पर

आसमान पर जाकर ज्योंही देखता हूँ नीचे
हर चीज छोटी हो जाती है ऊँचे उठकर ।
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बिखरने पर आ ही गए हैं
तो बिखर जाएंगे मिट्टी की तरह।
किसी के तो काम आएंगे
सिर पर छत बनाने के लिए।
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ख्वाहिशों नहीं ये मेरी बस रक्तबीज हैं
जितना दफ़नाऊँ कई गुणा जन्म लेती हैं।
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कैसे होंगे वे ,जो तोड़ नहीं पाये बंदिशें
न कविता ही समझते हैं ,न भावना को।
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हमने भी कुछ बाज पाल रखे हैं मन की कोटर में
अपना ही माँस खिलाते हैं और मुस्कुराते हैं हम ।
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नित सुबह उठ शाप देना यही काम है
अक्सर जो लोग मंदिरों में माथा टेकते हैं।
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दूसरों में दोष देखना गिन  गिन  कर
दोस्तों ने आजकल यही शुगल रखा है। ………… अरविन्द






सोमवार, 4 अगस्त 2014

तुम्हारे घर के सामने

तुम्हारे घर के सामने बैठ कर पीयूंगा शराब ऐ खुदा
तुम्हें भी पता चले कि तेरी दुनिया कितनी ख़राब है ।
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खुदा के घर के सामने बैठ पीयूंगा शराब।
सुना है बिगड़ों को पहले संभालता है वह।
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शराब न  होती, बड़ा मुश्किल होता जीना
उसने मुश्किलें दीं ,शराब ने आसां कर दिया।
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तेरी मस्जिद के बाहर बैठ नित शराब पीता हूँ
तू मुझे बना कर भूल गया ,मैं तुम्हें पीकर भूलता हूँ । ………अरविन्द

रविवार, 3 अगस्त 2014

आज अभिव्यक्त

दोस्ती की हो तो दोस्ती का अहसास जानोगे ।
व्यापारियों के लिए दोस्ती बसशुगल होती है।
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दुःख,दर्द, कष्ट, पराजय सब सह लेता है आदमी।
नहीं सहा जाता वह दर्द जो पाखंडी दोस्त देता है।
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दोस्ती के अहसास ने ही जिन्दगी आसान कर दी ।
वरना इस जिन्दगी में जीने लायक रखा ही क्या है ।
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दोस्ती के भी दिन होते हैं, यह तो अभी पता चला।
यह तो सदा बहार उत्सव है, हर दिन मनाया जाता है।
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तुम्हें वासंती रंग में देखता हूँ ,वसंत उतर आती है ।
हमारे यहाँ तो सारा साल पतझड़ ही रहा करती थी।
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यार दिलदार मिले ,रब्ब की इनायत है ।
ज्यादातर तो लोग मुहं में राम राम रखते हैं।
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बड़ी मासूमियत से आते हैं , दिल चीर जाते हैं।
यार हैं अपने कि हम परदे उठा नहीं सकते ।
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दिल से बने रिश्ते को दिल से सम्भालियेे
दिल में न रखा तो दिल दिल ही न रहेगा।
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ढूंढता था मैं जिसे नित गिरि कन्दराओ में
वह प्रतीक्षा में था मेरी ही अपनी गुफाओं में ।
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चिंता क्यों करता है मेरे मन ।
मुक्त करो अभिव्यक्ति
खोलो रे , जड़ बंधन।

चेतना में सत्य विराजित
अनुभूति अखंड
अविभाजित,
तू सोच रहा पर को
जो है बंधन ।
कटु नहीं सत्य,
न मधु है।
कटुता , मधुता
मोहित के मूढ़  बंधन।
रे मन !
अभिषेक करो
अपने ललाट पर
अनुभूति के सत्य का
बेलाग
अभिव्यक्त
सुरभित चन्दन ।

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दिल से मिले दिल जख्म दे नहीं सकते।
शर्त एक ही केवल दिल बनावटी न हो।...अरविन्द