सोमवार, 29 अक्तूबर 2012

यां चिन्तयामि

विचार था कि विजयदशमी के  दिवस  पर अपना ब्लॉग --यां  चिन्तयामि आरम्भ   करूँ . शीर्षक  के विषय में  अचानक भर्तृहरि  के  शतक  का  श्लोक कौंध  गया '--यां  चिन्त्यामी  सततं--.मयी  पर मैं  भर्तृहरि  नहीं  हूँ .न  ही जिनके विषय में  मैं सोचता  रहता  हूँ  वे  मुझसे विरक्त हैं  .परन्तु  चिंतन तो  है--इसलिए  यां  चिन्तयामि  ही उपयुक्त  शीर्षक  लगा . इसी  से  आरम्भ  करता  हूँ .

सोचना ,विचारना ,मीमांसा , समीक्षा ,परीक्षण , पर्यवेक्षण, निरीक्षण ,अनुभवन  आदि  स्वाभाविक  क्रिया  है .आकाश में  टिमटिमाते  तारों  तरह भिन्न -भिन्न  विचार कोंधते  रहते  हैं . अनुभूति  अभी  मृत  नहीं हुई , नए -नये  अनुभवों  ने  अभी  पीछा  नहीं  छोड़ा  है ,इसीलिए  स्थितियो , संबंधों , व्यक्तिओं , लक्ष्यों आदि  विचार तितलिओं  के  समान  नाचते  रहते  हैं .

धर्म ,अध्यात्म ,परमात्म ,आत्म , अनात्म ,कर्म , कर्मकांड ,पुस्तकें , साहित्य ,आत्मीयता , अनात्मीयता , अंतरंगता , सामाजिकता ,राजनीति ,पाखण्ड,  वयक्तिक मापदण्ड , ईर्ष्या , हेल्ला ,विव्वोक , रस , रास ,नीरसता , शान्ति -अशान्ति ...पता नहीं  कितने  बिंदु  ऐसे  हैं  जिनकी  ओर  मन  अपने  आप  आकर्षित  हो  जाता है .

डायरी  लिखनी  तो  अब  बंद -प्राय  है , तो  ब्लॉग ही सही .  मेरे मित्र -अमित्र  सब पढें . अपनी  प्रतिक्रिया  दें . इसी इच्छा  से  यह   ब्लॉग समर्पित  है . हमारी  समस्याएँ  भी समान  हैं  और समाधान  भी .

अगर  हम  दुराग्रही  या  पूर्वाग्रही  होकर  सीमित  रह गये  तो जीवन  के निरंतरता  को , उसके  प्रवाह  को  नकार देंगे . तो क्यों  हम मानस -प्रवाह  को रोकें ? थोडे -बहुत  अपने  हैं . कुछ हैं जो दूर  प्रतीत  होते  हैं --क्यों  न उन्हें  समीप लाने  का प्रयास  करें ? सबकी उपलब्धिया  हैं . क्यों  न उनका सदुपयोग  करें ?

मानवीय  आत्मीयता  के  भव्य  द्वार  पर दस्तक  दें --सम्भावनाओं  का रुद्ध द्वार  खुले ....आओ  आगत  को  जगाएँ .

कविताएँ  हमारी  बाट  जोह  रही हैं ,संस्मरण  हमारी  प्रतीक्षा कर रहे  हैं .हमारे व्यंग्य  हमें मुस्कुराना  चाहते  हैं
अनुभवों की नित नवीनता  का इन्द्रधनुष  आभा मान  है .

परमात्मा  के  इस मायाजन्य  मोहकता से  मुक्त  हों .........