गुरुवार, 20 मार्च 2014

आत्यंतिक सुख

जो रचना करता है वह ,भाग्य ,देवता या परिस्थिति को दोष देते हुए अवसर की प्रतीक्षा नहीं करता। वह अपनी इच्छा ,प्रयास ,और सूक्ष्म विवेक की जादुई छड़ी से सुअवसरों का लाभ उठा लेता है या उन्हें उत्पन्न कर लेता है।
२ , भूल करना और गलत मार्गों पर चलना एक क्षणिक कमजोरी है। यदि हम अपने अनुभवों से सीख लें ,तो जिस धरती पर हम गिरते हैं उसी धरती का उपयोग सहारे के रूप में पुनः उठने के लिए कर सकते हैं।
३ ,अगर हम अपनी सक्रिय इच्छा शक्ति के साथ किसी विचार को पकड़े रखते हैं ,तो यह अंततः साकार रूप धारण कर लेता है।
४ , अपनी आत्मा से प्रकाश प्राप्त करना सीखें ,वाही हमारा पहला और अंतिम ईमानदार गुरु है ,जो हमें ठगता नहीं।
५ , शान्ति में सुख है। इसे सम्भालना सीखना चाहिए। उत्तेजना हमारे स्नायविक संतुलन को अस्तव्यस्त कर देती है और मानसिक अशांति का कारन बनती है।
६ , चिंता व्यक्ति के भीतर के संसार को अधिक गहरा कर देती है। तनाव रहित और शांत शरीर मानसिक शान्ति को आमंत्रित करता है  ।
७ ,अगर हम मानते हैं कि परमात्मा हमारे भीतर है ,तो डर कैसा  और क्यों ?
८ , हम वर्त्तमान में कम ,भूत और भविष्य में अधिक जीते हैं। यह जीना नहीं ,जीना वर्त्तमान है।
९ , सुखी रहना और सुख देना चाहते हो तो ,चिड़चिड़े मत बनो।
१० ,भयभीत चित तात्कालिक सुख और लाभ के लिए छोटे छोटे समझौते कर लेता है,जिससे आत्यंतिक सुख और आत्मिक आनन्द से वंचित रह जाता है।
                  -------- अरविन्द पराशर

मंगलवार, 18 मार्च 2014

…अरविन्द

तुम्हारा अंदाज ही है जो मुझे बदलने नहीं देता
अब भी खड़ी होकर छत पर से निहारती हूँ तुम्हें।
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सफ़ेद दाढ़ी में दिख जाता है कोई काला बाल
दौड़ कर तुम्हें चूम लेती हूँ कि अभी जवां हो।

यारे -साहिल को किनारा ही प्यारा है
गहरे में उतरने से ये  जनाब डरते हैं ।
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दूर नहीं जाना चाहते हम, दूर से निहारते हैं
सुना है हमने कि पहाड़ दूर से सुंदर लगते हैं।
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मालिक की चिंता छोड़ मेरे मन
वही  तो  हमारा  जिगरी यार है
यार की नवाजिश क्यों करें हम
गर्दन पकड़ कर बात कहा करते हैं। ………अरविन्द
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सोमवार, 17 मार्च 2014

कब तक ?

कब तक खुद को छिपाते रहेंगे
दर्पण दूजे को हम दिखाते रहेंगे
झुर्रियाँ अपनी ही सजाते रहेंगे
उलझी लटों  कोसुलझाते रहेंगे ?
कब तक ?
बंदरों से नाच हम नचते रहेंगे
दूसरों का जीवन ही जीते रहेंगे
सत्य से अपने ही भागते रहेंगे
मन की बातों को हम न सुनेंगे ?
कब तक ?
भोगे का भोग यूँ  लुभाता रहेगा
दिल की तड़प को छिपाता रहेगा
पढ़ी हुई पुस्तक पढ़ाता  रहेगा
बीते हुए समय को जीता रहेगा ?
कब तक ?
कब खुलेगी तेरी मुंदी हुई आँखें
कब हटेगा मोह का झीना परदा
कब जीयोगे जीवन यह अपना
कब कहोगे अंतर्मन का  सपना ?
कब तक ?
अनचाहे भार पशु सा ढोते रहोगे
सुविधा के सुखों में खोते  रहोगे
मृगतृष्णा जगत भटकते रहोगे
जागो प्रभु ! क्या तड़पते रहोगे ?
कब तक ?---------------------------------------अरविन्द


दर्द ऐसे

दर्द ऐसे कि सुनाये नहीं जाते
आघात हैं कि सहे  नहीं जाते .
कब होगी पहाड़ सी यात्रा पूरी 
कदम  अब उठाये नहीं जाते ।
प्यार की चिड़िया मौन है यह
नुचे पंख  दिखाए नहीं जाते ।
पत्थर ही पत्थर मिले हैं  हमें
रिस रहे जख्म छुपाय न जाते ।
ज्ञान विज्ञान सब अज्ञान यहाँ
बूढ़े तोते समझाए नहीं  जाते ।
फोड़ लिया माथा हम बेचारों ने
अब ये  धक्के खाये नहीं जाते ।
किसी को कुछ क्यों कहें अब हम
लूट ले गये जो भुलाये नहीं जाते। 
अपनी अपनी पड़ी है अपनों में ही
पक्के हैं रंग ये मिटाय नहीं जाते। …………अरविन्द



शुक्रवार, 14 मार्च 2014

---------अरविन्द वाणी -------

जब मन शान्त होता है ,तो कितनी आसानी से ,सहजता से ,शीघ्रता और कितनी सुंदरता से प्रत्येक वस्तु को समझ लेता है।
2 . ज्ञान बाहर से भीतर नहीं भरा जा सकता ;यह व्यक्ति की आंतरिक ग्रहणशीलता की शक्ति एवं क्षमता है जो निर्धारित करती है कि मनुष्य सच्चे ज्ञान को कितनी मात्रा  में और कितनी शीघ्रता से ग्रहण कर सकता है।
3 . अपनी समस्या से बाहर निकलने का कोई न कोई रास्ता हमेशा होता है ;यदि हम स्पष्टता से विचार करने के लिए समय लगाएं ,केवल चिंता करने की अपेक्षा चिंता के कारण से छुटकारा पांने  पर विचार करें।
4 . सत्य वास्तविकता से सम्पूर्ण तदनुरूपता है।
5 . अनुभव करें कि हमारी श्रद्धा युक्त मांग के परदे के ठीक पीछे परमात्मा हमारी आत्मा के मौन शब्दों को सुन रहे हैं।
6 . हमारी अपनी अन्तरात्मा में एक दिव्य विवेक शक्ति विदयमान है ,सम्पर्क करना सीखें।
7 . भय ,क्रोध ,उदासी ,पश्चाताप ,ईर्ष्या ,शोक ,घृणा ,असंतोष हमारे स्नायविक विकार हैं ,इन्हें निश्चियात्मक होकर हटाया जा सकता है।
8 . प्रगति ,उन्नति और अभ्युदय का एक रहस्य आत्म -विश्लेषण है। अंतर्निरीक्षण के दर्पण के द्वारा हम मन के प्रत्येक कोने में झांक सकते हैं और अपनी त्रुटियों, अक्षमताओं को शक्ति और सामर्थ्य में बदल सकते हैं।
9 ज़िस दिन मनुष्य अपनी इच्छा को देखना सीख जाएगा उस दिन वह इच्छा को जीतना और इच्छातीत होना भी सीख जाएगा।
10 . अतीत को भूलना ही उन्नति के रास्ते पर पग धरना है।
                                                 ---------अरविन्द वाणी -------

गुरुवार, 13 मार्च 2014

रास्ता ही कहीं नहीं

रास्ता ही कहीं नहीं मिल रहा। गुरुओं की भीड़ है ,पर सत्य संस्पर्शन नहीं। माया और प्रपंच इतना सघन होगा ,नहीं जानता था। तलाश समाप्त नहीं की है। शबरी भी तो प्रतीक्षा करती रही। आशा है ,पर निराशा भी है। क्या कहीं औपनिषदिक ऋषि गुरु हैं ?संसार जान लिया ,अध्यात्म सुन लिया ,भौतिकता के भी दर्शन हुए। शांति भी है। पर जिज्ञासा शांत नहीं हुई। प्रश्न समाप्त नहीं हुए। क्या करें ,क्या न करें --सब कुछ करने के बाद भी निश्चित नहीं हूँ। धर्म में व्यवसाय को स्वीकार नहीं कर पा रहा हूँ। सम्प्रदायों की भीड़ ,उपदेशकों की भीड़ ,असंतुष्टों की भीड़ ,मंदिरों में भीड़ ,आश्रमों की भीड़ ,पाखंडियों की भीड़ ,झूठों की भीड़ ,दम्भी और अहंकारियों की भीड़। क्या कहीं सत्य है भी ?नाचते हुए लोग ,कर्मकांडों में उलझाये हुए लोग ,शोषित और प्रताड़ित लोग ,आंतरिक मांगों के जंजाल में फंसे लोग ,माथे पर फल लगा कर वर देते झूठे उपदेशक।  परमात्मा भीतर ,सत्य भीतर ,सद्गुरु भीतर ,ज्ञान भीतर ,गुण भीतर ,प्रेम भीतर ,उपासना भीतर ,इष्ट भीतर,ध्यान भीतर ,उपलब्धि भीतर ,जप भीतर ,मन्त्र भीतर --तो भी बाहर भटकते लोग ---वाह ! मेरे प्रभु !! वाह तेरी लीला। माया का संसार है ,माया भीतर संत। माया के दरबार में मायिक पूरा कंत।

बुधवार, 12 मार्च 2014

अब तो

बूढ़े हो गये हैं जख्मों को सहेजते सहेजते
अब तो ये फूलों से खिलने मुस्काने लगे हैं 
नंगे पावं चले हैं हम जीवन की डगर पर -
अब तो कांटे भी दिल को लुभाने लगे हैं।
नहीं है चिंता अब  दर्द या किसी चुभन की
खुली छाती पर मूंग को पिसवाने लगे हैं।
अपने ही जब छुरियां तीखीं ले आयें तो ,
हम नहीं कायर न हम पीठ दिखने लगे हैं।
बिजली गिराओ चाहे तुम आंधियां गिराओ
हम तो अब वट वृक्ष हैं झूमने झुमाने लगे हैं। ……अरविन्द

सोमवार, 10 मार्च 2014

हल्का फुल्का

हल्का फुल्का सोचना भी मन के लिए बहुत अच्छा होता है। आओ कुछ हल्का फुल्का सोचें। क्या कभी आपने विचार किया है कि आधुनिक संत अपने नाम संज्ञा के आगे अनेक विशेषण क्यों लगाते हैं ?हालाँकि विशेषण भी तो नाम ही हैं। वे कहेंगे कि उनके भक्तों ने ही लगा दिए ,यह सफ़ेद झूठ है। हम जो ठीक नहीं है ,केस भी क्यों न हो उसे स्वीकार क्यों करें ?ये विशेषण देखिये ---परम  संत ,स्वामी ,अनंत श्री विभूषित ,महाराज ,महाराजाधिराज ,प्रज्ञा -पुरुष ,स्व नाम धन्य इत्यादि। कभी इन विशेषणों की अर्थ संगति के विषय में आपने  विचार किया है ? नहीं किया ,तो अब करें। इसी प्रकार इंटरनेट पर गुरु मां लिखें और एंटर करें --सैंकड़ों गुरु माँ उपलब्ध हैं। जबकि भाषा और व्याकरण में यह शब्द है ही नहीं। माँ केवल माँ है ,उसे गुरु कहलवाने की क्या आवश्यकता ?वह तो गुरु की भी माँ है। आश्रमों में ऋषि पत्नियों को बालक विद्यार्थी गुरु माँ कहते थे --वे बालक थे और सन्दर्भ ग्राम्य होता था ,जहाँ भाषा नहीं ,बोली की प्रधानता थी। बोली का कोई व्याकरण नहीं होता। तो इन स्त्रियों को, जो स्त्रियां गले में माला डाले ,तिलक लगाये ,कुछ उपदेश देने के लिए ,किसी परम संत या स्वामी के समीप हैं --वे गुरु माँ कैसे हो गयीं? उनमे कौन - सी ऐसी गुरुता है ,भारीपन है जिसे केवल माँ शब्द व्यक्त नहीं कर सकता था कि उन्हें माँ की शुचिता को ढकने के लिए गुरु शब्द की आवश्यकता पड़  गयी ? है न विचारणीय।
शब्द बहुत खतरनाक होते हैं ,वे वह भी कह जाते हैं जो  हम कहते नहीं ,छिपाते हैं। संत अपने आप में परम है फिर परम के भार को क्यों ढोना ? सबको कहें कि हलके हो जाओ ,सब भार  उतार दो ,लेकिन खुद परम के भी  परम भार  को कितनी विनम्रता से हम उठा लेते हैं। है न हैरानी ?स्वामी को देख लो --अपने सब काम दूसरों से करवाते हैं,स्वयं पर स्वामित्व नहीं ,भक्त कहें यहाँ बैठो ,अब उठो --पर स्वामी कहला कर इठलाते हैं। कभी सोचिये आप। हम कितने दीन हीन हैं। अभी तक हमने राजा ,महाराजा कहलाने की इच्छा का ही त्याग नहीं किया और खुद को निस्पृह कहते हैं। क्या यही  हमारा अध्यात्म है। अगर यही है तो अध्यात्म में शब्दों की मनोवैज्ञानिक विवेचना तो हमें करनी ही चाहिए। उपनिषद् कहता है कि सत्य को हिरण्य ने ढका हुआ है। देखना है तो इस के ढक्क्न को उठाना ही होगा। फिर चेहरा कैसा  होगा ?आप खुद सोचिये। मैं तो हल्का फुल्का सोच रहा हूँ। आवारा चिंतन करता हूँ। ………अरविन्द

रविवार, 9 मार्च 2014

चंद्रमा के पास चलें प्रिये !

चंद्रमा के पास चलें प्रिये !
कुछ चाँद को निचोड़ेंगे
रस है छिपा भीतर
उस अमृत को बिलो देंगे।
रात्रि जागरण के
इस उत्सव में
चाँद -
अंतर नदी डुबो देंगे।
रस पर है
अपना भी अधिकार
यह
बुढ़िया जो बैठी है चाँद में
उसे भी झिझोड़ेंगे।
चलो चाँद के पास प्रिये !
गोलाईयाँ इसके मौन
हम समो लेंगे। ............. अरविन्द

"स्वभावः अध्यात्म "

आज के धार्मिक ,भक्ति मार्गी और आध्यात्मिक मार्गों ,सम्प्रदायों की पद्धतियों को समझना दर्शन ,विश्लेषण और आत्म -लाभ के लिए आवश्यक है। हालाँकि हमारे शास्त्रों ने बेहद ईमानदारी से इस विषय में चिंतन किया है और प्रभावशाली निष्कर्ष भी दिए हैं ,तो भी वर्त्तमान चिंतन  में बैसी गम्भीरता दिखायी नहीं दे रही है। जैसे जीवन अपना है ,वैसी ही परमात्म -तत्व भी अपना है ,तो अपने की परीक्षा करना ,समीक्षा करना या शोधन करना भी हमारा ही कर्त्तव्य है ,ताकि हम अपने आत्म -परक दृष्टिकोण को दिशा, क्षिप्रता और गति दे सकें।
मैं यह नहीं कहता कि संतों का अकाल पड़ गया है ,मैं यह भी नहीं कहता कि ईमानदार ,त्यागी ,तपस्वी ,निस्वार्थी ,सर्व जन प्रेमी ,निस्पृह और सर्व कल्याणकारी संत नहीं हैं। हैं ,परन्तु हमारा भी कर्म है कि हम स्वयं भी शास्त्र का आलोड़न करें और आत्म निर्भर हीकर आत्म अनुसन्धान करें। लोक में जो कहा जा रहा है या जो व्याख्याएं या उद्बोधन दिए जा रहे हैं --क्या वे सत्य और शास्त्र की संगति में हैं या संत के साक्षात् व्यक्तिगत अनुभव हैं। प्रश्न उठाना न तो बुरा है और न ही प्रश्न अप्रसांगिक हो सकते हैं। हर युग और हर छोटे बड़े सत्य साधक ने प्रश्न किये हैं और ऋषियों ने ,संतों ने ,साधकों ने ,तपस्वियों ने उनके प्रश्नो के उत्तर भी दिए हैं। जबकि आजकल प्रश्न करने वाले ,समीक्षा या जिज्ञासा करने वाले आम सम्प्रदायों में स्वीकृत नहीं। इसीलिए इस मार्ग में केवल व्यक्ति समक्ष समर्पण को ही प्रमुखता दी जा रही है और कुछ संत अपनी नैतिकता ,शुचिता को भी खो चुके हैं। सत्य के प्रति प्रेम को कटुता माना जाने  लगा है।
सो ,यह जरुरी हो जाता है कि हम चाहे गृहस्थी हैं ,तो जो भी हमें उपदेश दिया जा रहा है ,उसकी प्रमाणिकता को तो परखें। हम खाने पीने ,जीने ,पहनने में शुद्ध को चाहते हैं तो ज्ञान और भक्ति में शुद्धि की इच्छा क्यों न हो ?
गीता में अध्यात्म मार्गियों के लियर एक स्पष्ट संकेत  है --- "स्वभावः अध्यात्म "---इसे समझते हैं।
कृष्ण संकेत करते हैं कि प्रत्येक साधना का जो स्वाभाविक मार्ग है ,व्ही श्रेष्ठ है। कृत्रिम उपायों से भी कर्म ,ज्ञान ,प्रेम अथवा भक्ति की साधना होती है ,परन्तु वह आभास -रूप मात्र है। यथार्थ साधना स्वभाव आधारित भाव साधना है। भाव साधना स्वभाव की साधना है। शास्त्र का कोई विधि निषेध इस पर लागू नहीं होता --कितन बड़ी सुविधा है। स्वभाव का अर्थ है --निज भाव। पूर्ण मौलिकता --मौलिक के साक्षात् के लिए मौलिक तो होना ही होगा और उस मौलिकता को अधिगत करने का रास्ता केवल स्वभाव से ही प्रस्फुटित होता है ,किसी के कहने से नहीं । श्रेष्ठ गुरु केवल स्वभाव की ओर संकेत करता है। बस ,और कुछ नहीं।
स्वभाव की प्राप्ति --जब तक देह का अभिमान रहता है या माया अथवा आवरण और चैत्तिक विक्षेप रहता है ,तब तक उपलब्ध नहीं हो सकती। न हम अपने अभीष्ट से प्रेम कर सकते हैं ,न तब तक भाव में ही उतर सकते हैं। जो ,आधुनिक साधनात्मक  क्षेत्र में ध्यान साधना करवायी जाती है ---उसमें आदेश दिए जाते हैं --यह ध्यान नहीं ,केवल मिसमरेजुम है।
माया के आवरण से हमारा स्वभाव आच्छन्न है। हमें सबसे पहले इस आवरण को हटाना है। इस आवरण को हटाने के लिए कुछ उपाय हैं ,यथा --नाम स्मरण ,मन्त्र ,दीक्षा ,प्रभु कृपा ,आंतरिकता ,उपासना ,स्व -संशोधन और साधन -सुचिता। दैहिक शुचिता नहीं और कहीं- कहीं कार्मिक शुद्धता की भी आवश्यकता इतनी ज्यादा नहीं है। नीच और निकृष्ट कर्मों में भी परमात्म -कृपा और दर्शन हुआ है। अनेक उदहारण विद्यमान हैं। ………… इन उपायों पर शास्त्र के संकेतों का आलोड़न क्रमशः करेंगे ,ताकि हम सत्य के समीप जा सकें और भ्रम तथा माया से मुक्त हो सकें। …………अरविन्द पराशर। ९ -३ -२०१४।

शुक्रवार, 7 मार्च 2014

विष योग : कारण और निवारण

विष योग : कारण और निवारण

कुण्डली में विषयोग.....यह किस प्रकार बनता है एवं इसका क्या प्रभाव होता है, आइये देखते हैं।

ज्योतिषशास्त्र में शुभ योग है तो अशुभ योग भी है.शुभ योग अपने गुण के अनुसार शुभ फल देते हैं तो अशुभ योग अशुभ फल प्रदान करते हैं.अशुभ योगों में एक योग है विषयोग।
विषयोग की स्थिति:-
कुण्डली में विषयोग का निर्माण शनि और चन्द्र की स्थिति के आधार पर बनता है.शनि और चन्द्र की जब युति होती है तब अशुभ विषयोग बनता है. लग्न में चन्द्र पर शनि की तीसरी,सातवीं अथवा दशवी दृष्टि होने पर यह योग बनता है.कर्क राशि में शनि पुष्य नक्षत्र में हो और चन्द्रमा मकर राशि में श्रवण नक्षत्र का हो और दोनों का परिवर्तन योग हो या फिर चन्द्र और शनि विपरीत स्थिति में हों और दोनों की एक दूसरे पर दृष्टि हो तब विषयोग की स्थिति बनती है.सूर्य अष्टम भाव में, चन्द्र षष्टम में और शनि द्वादश में होने पर भी इस योग का विचार किया जाता है. कुण्डली में आठवें स्थान पर राहु हो और शनि मेष, कर्क, सिंह या वृश्चिक लग्न में हो तो विषयोग भोगना होता है.

विषयोग में शनि चन्द्र की युति का फल:
जिनकी कुण्डली में शनि और चन्द्र की युति प्रथम भाव में होती है वह व्यक्ति विषयोग के प्रभाव से अक्सर बीमार रहता है.व्यक्ति के पारिवारिक जीवन में भी परेशानी आती रहती है.ये शंकालु और वहमी प्रकृति के होते हैं.जिस व्यक्ति की कुण्डली में द्वितीय भाव में यह योग बनता है पैतृक सम्पत्ति से सुख नहीं मिलता है.कुटुम्बजनों के साथ इनके बहुत अच्छे सम्बन्ध नहीं रहते.गले के ऊपरी भागों में इन्हें परेशानी होती है.नौकरी एवं कारोबार में रूकावट और बाधाओं का सामना करना होता है.

तृतीय स्थानमें विषयोग सहोदरो के लिए अशुभ होता है.इन्हें श्वास सम्बन्धी तकलीफ का सामना करना होता है.चतुर्थ भाव का विषयोग माता के लिए कष्टकारी होता है.अगर यह योग किसी स्त्री की कुण्डली में हो तो स्तन सम्बन्धी रोग होने की संभावना रहती है.जहरीले कीड़े मकोड़ों का भय रहता है एवं गृह सुख में कमी आती है.पंचम भाव में यह संतान के लिए पीड़ादायक होता है.शिक्षा पर भी इस योग का विपरीत असर होता है.षष्टम भाव में यह योग मातृ पक्ष से असहयोग का संकेत होता है.चोरी एवं गुप्त शत्रुओं का भय भी इस भाव में रहता है.

सप्तम स्थान कुण्डली में विवाह एवं दाम्पत्य जीवन का घर होता है इस भाव मे विषयोग दाम्पत्य जीवन में उलझन और परेशानी खड़ा कर देता है.पति पत्नी में से कोई एक अधिकांशत: बीमार रहता है.ससुराल पक्ष से अच्छे सम्बन्ध नहीं रहते.साझेदारी में व्यवसाय एवं कारोबार नुकसान देता है.अष्टम भाव में चन्द्र और शनि की युति मृत्यु के समय कष्ट का सकेत माना जाता है.इस भाव में विषयोग होने पर दुर्घटना की संभावना बनी रहती है.नवम भाव का विषयोग त्वचा सम्बन्धी रोग देता है.यह भाग्य में अवरोधक और कार्यों में असफलता दिलाता है.दशम भाव में यह पिता के पक्ष से अनुकूल नहीं होता.सम्पत्ति सम्बन्धी विवाद करवाता है.नौकरी में परेशानी और अधिकारियों का भय रहता है.एकादश भाव में अंतिम समय कष्टमय रहता है और संतान से सुख नहीं मिलता है.कामयाबी और सच्चे दोस्त से व्यक्ति वंचित रहता है.द्वादश भाव में यह निराशा, बुरी आदतों का शिकार और विलासी एवं कामी बनाता है.
यद्यपि ज्योतिष  शास्त्र में विष योग निवारण के अनेक उपाय और प्रयोग उपलब्ध हैं तथापि वरेण्य उपाय शिव उपासना है। जातक अपनी कुंडली के आधार से भी ग्रह के बलाबल को जान कर उपाय करे तो अधिक लाभ की सम्भावना है। दुर्गा भगवती के स्तोत्र पाठ भी उपकारी हैं। विशेष कर पंचमी तिथि को।
कल वैवाहिक विलम्ब के स्वरुप पर तथा समाधान पर विचार करते हैं। यह भी जिज्ञासा का एक महत्वपूर्ण बिंदु है।

लम्बी कविता---1.

कविता में उपदेश ,उपदेश में कविता है
कविता में है बोध ,बोध में कविता  है ।
कविता है निस्वार्थ प्रेम ,प्रेम ही कविता है
कविता सुखद सौंदर्य ,सौंदर्य ही कविता है।
कविता नृत्य तरंगिनी ,कविता उसकी भविता है।
कविता सम्बन्ध मधुर ,कटु भी कविता है।
कविता षोडशी तन्वी ,कविता वृद्धा सविता है।
कविता श्रृंगार की धरा ,सर्व रस रसिका कविता है।
कविता बाल का मन ,खिलती बालिका कविता है।
कविता शोषण रुद्ध ,विरुद्ध भी कविता है।
कविता भोग-सौगात ,विरह का ताप
शुक्लाभिसार देह का रंग, मिलन की बात
खिला वासंत ,वासन्ती संग  ,प्रिया की रात ,
मधुर मन तात ,उडीक -संताप ,
कृशा सी देह ,आह का मेह ,रास की भोर
प्रणय गभीर ,संध्या के तीर ,चिहुँक भी कविता है।
छनकती पायल ,खनकता कंगन ,
तवे की रोटी ,आँख का मोती ,
लरजती कटि ,स्वेद के कण ,
फिसलती चुनरी ,कुंतल मन -जगाता तन
अबोले बोल ,आमंत्रण अनमोल ,
बालिका की जाग ,जगा दीपक बेहाल।
रक्तिम सी लाज , विहग विहाग
लोरी की तान ,मधुर मुस्कान
पूर्व राग आनंद ,प्रतीक्षित मन भी कविता है।
-------------------2 -----------------------------------अरविन्द
( सम्भावना है यह भाव एक लम्बी कविता का रूप लेगा। शेष फिर। )







मंगलवार, 4 मार्च 2014

अध्यात्म -दर्शन

अध्यात्म -दर्शन
मेरे कुछ मित्र बड़ी शिद्दत के साथ अध्यात्म मार्ग के पथिक हुए हैं। आजकल अध्यात्म की दुकानों का बाजार भी सजा हुआ है। ऐसे में कुछ तत्व स्पष्ट करना भी जरूरी है। सबसे पहले यह समझना चाहिए कि अध्यात्म क्या नहीं है। प्रवचन अध्यात्म नहीं ,पूजा ,आरती ,कीर्तन ,सामूहिक नाच गान ,तालियां --अध्यात्म नहीं है। न ही इस मार्ग पर इनकी आवश्यकता है क्योंकि अध्यात्म आंतरिक और व्यक्तिगत ,निजी आत्म यात्रा है। यही हमारा निसर्ग भी है। हम तब तक जन्म लेते रहेंगे जब तक हम इस मार्ग के पथिक ईमानदारी से नहीं होते हैं। मंदिर ,पूजा ,कीर्तन, भजन ,कर्मकाण्ड सब इसी यात्रा की आरंभिक  तैयारी है। उपकरण हैं। साध्य कुछ और है। तो प्रश्न उठता है कि अध्यात्म का यंत्र क्या है। ,साधन विचारणीय है।
सबसे पहले हमें यह स्वीकार लेना चाहिए कि प्रभु सर्वान्तर्यामी है। व्यापक और अंतरंग- बाह्य सर्वत्र  विदयमान है और अत्यंत समीपस्थ है। इन्हें  किस यंत्र के द्वारा अपने में उत्थापित करें ,यही अध्यात्म का प्रश्न है और होना भी चाहिए। शरीर क्षेत्र है जिसमें हमारा मन ही एकमात्र इस यात्रा का साधन अथवा यंत्र है। हमें मन के द्वारा ही इष्ट -सिद्धि करनी होगी। एक अन्य महत्वपूर्ण बिंदु समझना चाहिए कि इस मन की आवश्यकता तभी तक है जब तक जीव स्वाधीनता लाभ नहीं करता। कर्म ,ज्ञान ,भक्ति --इनमें से प्रत्येक में मन की आवश्यकता है। इसलिए पहली अवस्था में मन को निरुद्ध करने की चेष्टा नहीं करनी चाहिए। क्योंकि करने पर भी हम सफल नहीं होंगे। अनेक उदाहरण विदयमान हैं।
हम मन को डुबाने के लिए कृत्रिम चेष्टा करते हैं --इसी कृत्रिम चेष्टा से हानि भी होती है। मन को त्याग करने की चेष्टा न कर ,शुद्ध करने पर ,यह समझ आएगा कि साधक के अध्यात्म जीवन में मन का क्या उपयोग है। अवशीभूत मलिन मन ही साधक का  शत्रु है ,स्वायत और निर्मल मन ही उसका मित्र है। परम मित्र है।
मन सर्वदा ही चंचल है ,सर्वदा ही अस्थिर है और सर्वदा ही भ्रमणशील है। इसका एक मुख्य कारण यह है कि मन में सदा एक अभाव  विदयमान रहता है। एक अस्पष्ट और विपुल अतृप्ति उसको शांत नहीं रहने देती। इस विपुल अतृप्ति का अर्थ है कि मन कुछ मांगता है। मन की कोई गहरी  मांग है। जब तक हम मन की इस मांग को नहीं समझते हैं तब तक मन का यह यंत्र हमारे लिए काम ही नहीं करता बल्कि हमें ही अपना दास बना लेता है।
तो मन क्या मांगता है ?मन की केवल तीन मांगें हैं। मन मांगता है ज्ञान ,आनन्द और ऐश्वर्य। यही मन की खाद्य सामग्री है। इसको न पाकर मन निरन्तर हाहाकार कर रहा है। अधिकाँश लोग इन नैसर्गिक मांग के विषय में नहीं जानते। गलदश्रु भावुकता में आप देखते होंगे। अतः यह निश्चित है कि जब तक हम मन की इस क्षुधा को तृप्त नहीं करते तब तक चंचलता ,गति ,अस्थिरता और बेचैनी बनी रहेगी।
मन जो मांगता है ,वह है कहाँ ? उसका स्वरुप क्या है ? उसकी उपलब्धि कैसे होगी ?यह हमारे अगले प्रश्न होंगे। इन प्रश्नों पर विस्तार से विचार करेंगे क्योंकि हम एक ही मार्ग के सहयात्री हैं।
-----------------------------------------------आचार्य डॉ  अरविन्द पराशर

शनिवार, 1 मार्च 2014

आँख कहीं ओर

आँख कहीं ओर और ध्यान कहीं ओर है
भक्ति की भीड़ में पाखंडियों का शोर है।
उपदेश देना आजकल है अच्छा व्यापार
धन बल सेवा सम्पदा मिलें सुख अपार।
सुनहले कपडे पहन के सुनो सबकी बात
हार गले में पहन कर बांटो सब परसाद।
ऊँचे आसन मंच सजो मुस्काओ अभिराम
अहंकार के पहाड़ चढ़ धिक्कारो गुण ग्राम ।
सत्संगियों से नित कहो तजो तजो ये गेह
माया तजो ,काया तजो मिथ्या जीवन नेह।
आसन पास रखो टोकरी बरसे धन का मेह
लुटे पिटे असंतुष्ट सब करो गुरु चरण स्नेह।
कैसे ये सब संत हैं रचें नाम दान की माया
झूठे शब्दजाल में भोला मानव है भरमाया।
सीधी सच्ची बात कहूं समझें नाहीं ये लोग
गुरु सब भोग है भोगते शिष्य रोग व सोग । ……… अरविन्द