मंगलवार, 31 दिसंबर 2013

बाबा जी का ठुल्लु

बाबा जी का ठुल्लु
देखा नहीं ,जाना नहीं
हँसते हंसाते बना गया
हम सबको उल्लू। .
वाह ! बाबा जी का ठुल्लु !
भोली भाली जनता को
लूट के ले गए नेता जो
मिलता नहीं कहीं उन्हें
पानी भर का चुल्लू
बाबा जी का ठुल्लु !
सर्दी ठिठुराने को आयी
बिजली बिल ने चपत लगायी
ढूंढ ढूँढ कर थक गये हम
मिला नहीं कहीं --
कम्बल कुल्लू।
बाबा जी का ठुल्लु !
मित्र हमारे जितने प्यारे
आँखें फाड़े हमें निहारें
दूर दूर से सैन करें सब
घर में मिलते ताला मुल्लू
बाबा जी का ठुल्लु !
जितने तेल लगाये सारे
उड़ गए लम्बे बाल हमारे
चांद चाँद सा चमक रहा है
अब इस पर मारें बच्चे टिल्लू
वाह ! बाबा जी का ठुल्लु !............. अरविन्द





सुनो !

सुनो !
अंजुरी में अब भर तो लो
आंखड़ियों में धर तो लो।
कब तक खड़ा रहूँ द्वारे पर
अब अपना तो कर तो लो।
मुझे सदा बेगाना माना है
अपनों को अपना जाना है
दो फूल चढ़ा दें देहली पर
कुछ लोटा जल दे जाएँ जो
कुछ मीठी मीठी बातों से
तेरे गीतों को गा जाएँ जो
क्या वही अपने होते हैं ?
जो आँखे भर तकते रहते हैं।
मैं गीत न कोई गा सकता
झोली भर फूल न ला सकता
जगती का सब कुछ जूठा है
उच्छिस्ट नहीं मैं दे सकता।
मैं राह की चाहे धूल सही
बिखरा हुआ कोई फूल सही
देखा चाहूं तेरी दरियादिली
शबनम के इस कतरे को
चूम के दरिया कर तो लो
अंजुरी में अब भर तो लो।
बड़े शौक से प्रभु बन बैठे हो
बड़े शौक से सजदा सुनते हो
खुद खुदा बने बैठे हो प्यारे
मुस्का के अपना कर तो लो
अंजुरी में अब भर तो लो। ............. अरविन्द

सोमवार, 30 दिसंबर 2013

अरे ! यह साल भी बीता
अरे यह साल भी बीत।
समय तो नापता ,ले
अपने हाथ में फीता    .
अरे ! यह साल भी बीता।

उठो ! अब जाग जाओ ,
खोलो आँख तुम ,मूंदे द्वार खोलो।
नयी किरण संग संकल्प के
नव संसार को खोलो।
हिलाओ विचार का सागर
उठे कोई नयी लहर आकर
खोले रुद्ध कपाट प्रभाकर
पाएं सभी शांति सुधाकर।
न गिनो तुम बीते हुए पल ,घंटे।
न देखो तुम विगत दिन ,मास के टंटे
उठो स्वागत करो ,आगत वर्ष के
उत्थान के ,उत्कर्ष के विमर्श भरे धंधे।
बीतता हो दिन ,न बीते आदमीयत ये
बीत जाएँ मास ,न बीते आत्मीयता ये
शुभ संकल्प के शुभ क्षण न बीतें
जगे आत्म सभी का ,जगे परमात्म भी
मिटे द्वैत का दुःख ,भेद कारक ही।
आओ स्वागत करें नव रश्मि का ,
नव वर्ष का ,आगत सुबह का।
बीत गया जो ,बीता  सो बीता …………अरविन्द .          





शुक्रवार, 20 दिसंबर 2013

साधना के मंदिर

             न काल देश का पता  ,न दयाल देश का पता
                                थोथी वाणी व्याख्या में पूरे सिध्दहस्त हैं।
              परमात्म तो बोले नहीं ,न आत्म ही है बोलता
                                 साधना के मंदिर में वे बैठे रिक्तहस्त हैं।
               त्रिकुटी को वेधा नहीं ,हृदय ग्रंथि छेदी नहीं
                                   आँख अधमुंदी झूठे तप में वे मस्त हैं।
                शून्य को न जानते , न देखा दसवां द्वार
                                    चरण पुजवाते स्वयं ,पुरे भ्रष्ट चित हैं।
                            .........................
   2 . कोई कहे मंदिरों में जाओ बांटो दाल भात
                   कोई कहे ग्रन्थ समक्ष् माथे को टेक दो।
         कोई कहे शुरू करो रोना उसे पाने हेतु
                    कोई कहे तीर्थों में बसो ,नहाओ डूब मरो।
          कोई कहे ब्रह्म तो है दसवें द्वार बैठा
                     कोई कहे तिल भीतर ब्रह्म प्रसार लखो।
           देखा नहीं किसी ने ,न ज्ञान हुआ आप
                      भ्रम के ललाट पर ब्रह्म का तिलक धरो।
                    .........................
3 .  कोई कहे जप करो तोते सा रटो नाम
              सुमिरनी ले हाथ काम सब निकाम करो।
      रूप नहीं जाना न अरूप गुण धाम प्यारे
               वृत्ति को सुधारा नहीं पंचाग्नि वास करो।
       मन में अनेक लास ,उमंग और कामनाएं
               सब कहें त्यागो इन्हें शांति सुख धाम वरो।
       सकाम, निष्काम ,अकाम सब प्यारे उसे
               सहज हो सहजता से सहज को आराध वरो।
               ………………………
4 .  गुरु तो वही जिसने खुद जप तप किया
               एकान्त में बैठ निष्काम हो के जाना है।
       अंतर्गत आराधा उसे अन्तर्गत पाया उसे
                बाहर के जगत में अनुभव को बखाना है।
        पोथियों को त्यागा छोड़े कर्म काण्ड सब
                प्रेम के प्रसार में उसे प्रेम से  नवाजा है ।
         ईर्ष्या द्वेष दम्भ और पाखण्ड सारे छोड़
                मोह ,माया ,मेरा तेरा भ्रम को त्यागा है। ............. अरविन्द
   
          
   

                

मंगलवार, 17 दिसंबर 2013

गाता है कृष्ण

गाता है कृष्ण ,गाती है प्रकृति
नाचता है कृष्ण नाचती है प्रकृति
बांसुरी की धुन पर गोपियाँ  भी नाचीं
नाची सारी कुदरत , पत्तियाँ भी नाची
बाल बाल नाचे ,गोपाल सब नाचे
सत्य मुखरित कर गया कण -कण
नाचा जब कृष्ण ,गाता जब कृष्ण।
जीवन के संघर्ष का मन्त्र है कृष्ण
स्वभाव में जीने का संकल्प है कृष्ण
अंधों की दुनिया में अंधे मत बनो
अंधों को पछाड़ कर प्रकाश को गुनो
आततायी कभी सगा नहीं होता
युद्ध रत होकर न्याय को चुनो।
प्यार में भी आदमी ,आदमी बनो
प्रिया संग कोमल बांसुरी सुनो
कदम्ब की छाहँ तले राधा जीओ
अमृत है प्रेम ,अमृत को पीयो।
जीवन भी तो युद्ध है ,प्रेम से जीओ।
मृत्यु तो है असत्य फिर भागना क्यों ?
मानवी देह में फिर क्लीवता क्यों ?
पुरुष हो पौरुष की पुकार को सुनो
गाता है कृष्ण ,कृष्ण गान को सुनो। ............. अरविन्द


दोहे

दोहे
स्वप्नों का संसार है ,सत्य न इसे मान।
मृगतृष्णा में फंसा , तड़प  रहा इन्सान।
नीति रही न मर्यादा ,न रह पाया है ज्ञान
शिक्षालयों में आ घुसे , चाटुकार  इन्सान।
सिद्धान्त झौंके भाड़ में ,कुर्सी को सत्कार।
गर्दभ चंद नव नेता हुए ,दुलत्तियां भरमार।
राम नाम तो जीभ पर ,मन कपटी बटमार।
विश्वास कहाँ टिक सके ,हाहाकार चीत्कार।
कैसी विधि विडंबना ,परखो इसके काम।
काम मंदिर में बैठ कर ,जपता राम राम।
जैसी जिसको रूचि मिली ,वैसा बने स्वभाव।
कीचड़ किसी को प्रिय है ,छुवे कोई आकाश।
न अच्छा न बुरा कोई ,न कोई लुच्चा होए।
खुल गयी जो आँख जब ,सब कुछ सच्चा होये।  …………… अरविन्द

शनिवार, 14 दिसंबर 2013

सबने सबको नोचा है

सबने सबको नोचा है ,
लोकतंत्र का लोचा है।
वह बूढ़ा भी तो बंदा है
राजनीति ने सोचा है।
बेंदी ,सुर्खी ,पाऊडर
सुंदरता का धोखा है।
आंदोलन में भीड़ भाड़
जनता ढूंढ़ती नेता है।
झूठों की दूकान सजी
परमात्म तो धोखा है।
जनता बलि पशु बनी है
शातिर हाथों में सत्ता है। …………अरविन्द




मंगलवार, 10 दिसंबर 2013

जीओ

जीओ तो अपना जीवन जीओ
उधार का जीना जीना नहीं है
कब तक आवरणों में छिपे रहोगे
मुखौटों को होना ,होना नहीं है।
होना तो सूरज की तरह होना
चाँदनी की तरह होना भी होना है
किसी को ओढ़ कर होना होना नहीं है।
न अँधेरा बुरा ,न अँधेरे में रहना बुरा
बेगानी मोमबत्ती सा होना ,होना नहीं है।
रेट रटाये शब्द छोड़ जाते हैं साथ
झूठ का जीना ,सच जीना नहीं है।
परिंदों के बच्चे भी छलांग लगा देते हैं
अपने सुरक्षित घौंसलों से ,
सत्य को समझना ही सत्य होना है।
दुबकना पराजय है होने की
धरती को चीर
बीज का फूल होना ही
सत्य होना है। ……………… अरविन्द



शनिवार, 7 दिसंबर 2013

कुर्सी

जोड़ तोड़ करके जो भी कुर्सी पर बैठने आया है
अहंकार की खूंटी पर दिमाग टांग कर लाया है।
पद मद, दुष्टता, धन, चापलूसी  और बेईमानी
मूर्खता से भरा टोकरा वही अपने साथ लाया है।
कुर्सी पर  बैठते  ही धृतराष्ट्र  हो  जाते  हैं कुछ
अपना ही घर भरना आजकल कुर्सी की माया है .
समता समानता ,परहित कल्याण को छोड़िये
कुर्सी पर तो किसी शातिर शैतान का साया है।
मासूम सा चेहरा झुकी आँखें ,मीठी भाषा लेकर 
खूंखार जानवरों ने आज कुर्सी को हथियाया है।
चापलूसों की भारी भीड़ ने घेर लिया है कुर्सी को
आम आदमी को इन कुर्सी वालों ने तड़पाया है।
धर्म ,राजनीति ,व्यवस्था और विद्यालयों में
कुर्सी पर बैठे अमानुष ने खूब आतंक मचाया है ।
भले मानस ,बड़े पंडित ,आम विद्वान ये सारे
कुर्सी के स्तुतिगान में सबने दिमाग खपाया है ।
षड्यंत्र , मक्कारी, कमीनगी  और  अन्याय
कुर्सी के चारों पैरों पर इन्हीं का घना साया है। …………अरविन्द


गुरुवार, 5 दिसंबर 2013

बहुत बुरा लगता है

बहुत बुरा लगता है
जब कोई छोटा आदमी
छोटी नीयत और
छोटी मंशा का आदमी
बड़ी कुर्सी पर बैठ
छोटे काम करता है।
बहुत बुरा लगता है।
बहुत बुरा लगता है-
 जब पढ़े लिखे लोग
अकारण भयभीत हो कर
अन्याय के पक्ष में खड़े होकर
बड़ी कुर्सी पर बैठे
छोटे आदमी की हाँ में हाँ मिलाते हैं
और उस छोटे आदमी की
पहाड़ जैसी गलतियों को
ढ़ोने  के लिए
अपने कंधे लगाते हैं।
बहुत बुरा लगता है।
आदर्शों के मुखोटों में छिपे
लालची कुत्ते मुस्कुराते हैं।
बहुत बुरा लगता है।
छोटा आदमी कुर्सी पर बैठ कर
कुर्सी के जोर पर
धमकाता है,
अपने अधीनस्थों पर घिघियाता है
पढ़े लिखे लोग पूंछ दबाये
गर्दन झुकाये
चुपचाप लुटे पिटे निकल जाते हैं।
बहुत बुरा लगता है .
क्योंकि यही छोटा आदमी उनका आदर्श है
इसकी कमीनी चालाकियों को
ये लोग बड़ी बारीकी से देखते हैं
उसके द्वारा फैंके गए टुकड़ों को
बड़े प्रेम से सहेजते हैं,
अपने से छोटों के ऊपर
आँखें तरेरते हैं
उन्हें अपने झुण्ड में शामिल करते हैं
रक्तबीज इसी तरह बढ़ते हैं।
संस्थाओं में नित नए पाप फलते हैं।
बहुत बुरा लगता है। ………………… अरविन्द







मंगलवार, 3 दिसंबर 2013

दोहे

भारत के लोकतंत्र के तीन बचे आधार
गरीबों को मुफ्त अन्न ,पैसा और शराब।
नेता हमारे खो चुके सब दीन ,धर्म ईमान
शराब पिला कर जीतते सांसद हैं बेईमान .
जनता भूखी लालची बेच रही निज  वोट
नेता तो सब गिद्ध हुए लोकतंत्र का खोट।
जैसे लोगों के कर्म हैं वैसा होगा भाग्य
बेच दिया है देश को यही बड़ा दुर्भाग्य।
देशभक्ति दफ़न हुई चुनाव तंत्र लाचार
मन के रुग्ण नेता हुए दुष्टों कि भरमार।
कैसे हम जी पायंगे कैसे बच पाये ये देश
बाढ़ खा रही देश को ,मचा चतुर्दिक क्लेश ………… अरविन्द


 

आज फिर जीने की तमन्ना है।

आज फिर जीने की तमन्ना है।
कब तक मुहं ढाँप सोते रहोगे ?
कब तक दर्द बेगाना ढोते रहोगे ?
कब तक करवटें यूँ बदलते रहोगे ?
कब तक यूहीं सोचते रहोगे ?
आज फिर जीने की तमन्ना है।
जीना है तो दर्द को उड़ा कर जीओ
जीना है तो खुल कर मुस्कुरा कर जीओ
जीना  है तो ललकार मार कर जीओ
जीना है तो तलवार की धार पर जीओ
जीना है तो फूल सा खिलखिला कर जीओ
जीना है तो किसी को अपना बना कर जीओ
जीना है तो दर्द को भुला कर जीओ
जीना है तो बस अपना ही जीओ
जीना है तो प्रभु को मना कर जीओ
जीओ तो जलती मशाल सा जीओ
जीओ तो भारी तूफ़ान सा जीओ
जीओ तो तड़पते प्यार सा जीओ
जीओ तो किसी के कंठहार सा जीओ
जीना ,चुप चुप नहीं रोना है।
आज फिर जीने की तमन्ना है।
जीओ तो घिरते हुए बादल सा जीओ
जीओ तो बरसते सावन सा जीओ
जीओ तो उमड़ते सागर सा जीओ
जीओ तो लहराते हुए दामन सा जीओ
जीओ तो बनिए की दूकान सा न जीओ
जीओ तो सर्वस्व दान सा जीओ
जीओ तो शिशु की मुस्कान सा जीओ
जीना , गुमसुम नहीं होना है।
आज फिर जीने की तमन्ना है। ................ अरविन्द
               (अपने अभिन्न मित्र डा० के.के. शर्मा के लिए )