शनिवार, 22 जून 2013

केदार त्रासदी ...

केदार त्रासदी ...
     रहिमन विपदा हू भली जो थोड़े दिन होए .
     हित अनहित या जगत में जान पड़े सब कोय .
केदार की त्रासदी ने इस देश के गिरते हुए चरित्र के वीभत्स रूप को दिखा दिया है .देश के गृह मंत्री को यह राष्ट्रिय आपदा नहीं लगती ...यह राजनीति की कुरूपता है ...और इनसे ऐसी आशा थी .सरकार की ओर से इन यात्रियों के लिए कोई संवेदना नहीं है ...इसे समझ लेना उन लोगों के लिए जरूरी है जो इन्हें चुनते हैं .
दूसरे ,असहाय यात्रियों को केदार ,बदरीनाथ इत्यादि प्रदेशों के निवासियों से कोई सहायता नहीं मिली ..यह ज्यादा चिंतनीय और अशोभनीय है .लोग लकडियाँ जलाने  के लिए माचिस मांगते हैं उन्हें कोई माचिस नहीं देता .क्या देव स्थानों पर राक्षस रहने लग गए हैं .?.
तीसरे ,और भी अधिक शर्मनाक ...मंदिर में चढ़े हुए धन की लूट ,...पतन की पराकाष्टा है ...किसने इस देश के लोगों को लोभी ,लालची और शवों के व्यापारी बना दिया ..विचारणीय होना चाहिए . मनमोहन ने ,तो धिक्कार है उसे ,वैसे वह आदमी नहीं कठपुतली है ..लानत है .
चौथे ,सरकार झूठी है ..इसमें कोई संदेह नहीं रहा .जो देश को मृत लोगों की सही संख्या नहीं बताना चाहते धिक्कार के पात्र होने चाहियें .
मोदी को वहां जाने से रोकना कांग्रेस के दिवालियापन को दिखाता है .
हमारा दुर्भाग्य है जो हम इस पतनोन्मुख भारत को देख रहे हैं ...राजनीतिज्ञों ने तय कर लिया है कि वे पार्टी हित को प्रमुख रखेंगे ,देश हित चाहे भाड़ में जाए .
सभी इंसानियत पसंद लोगों को राष्ट्रिय शर्म दिवस की घोषणा कर देनी चाहिए ...अरविन्द

गुरुवार, 20 जून 2013

केदार की त्रासदी

केदार की त्रासदी ...प्रकृति का दोष नहीं है ....
जब हमनें पहाड़ों में ब्लास्ट करके उनकी जीवनी शक्ति छीन ली हो ,जब हम बाँध बना कर जल की गति का अवरोधन कर दें ,वृक्ष हमारे तथाकथित विकास की बलि चढ़ जाएँ ,तीर्थ स्थानों को हम पर्यटन स्थल बना लें ,जहाँ तप ,साधना ,यम -नियम आवश्यक हों वहां हम विहार करने की मनोवृति से जाएँ ,वहां प्रकृति के प्रकोप की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता .
हम तीर्थ का अर्थ और यात्रा के पारंपरिक नियम भूल चुके हैं .जहाँ शुचिता आवश्यक है वहां मानवीय मल ,.. प्रकृति स्वीकार नहीं करती .
हम कितने असहाय ,बोनें और अदूरदर्शी हैं जिन्होंने अभी तक पहाड़ों की प्रकृति के अनुसार न तो सडकों का निर्माण किया है और न ही ऐसे पुल बना सके हैं ,जो पानी के प्रवाह को झेल सकें ..दिल्ली में सारा साल यमुना को हम गंदा करते हैं ,हर साल यमुना उसी गंदगी को वापिस हमें ही लौटा देती है ,क्यों नहीं हमारी सरकारों के प्रज्ञाचक्षु नदियों के प्रवाह को संरक्षित करते ?समाज भ्रष्ट हुआ है प्रकृति भ्रष्ट न हुई है और न ही भ्रष्टता को स्वीकार कर सकती है .
जब तक हम प्रकृति का शोषण और दोहन करते रहेंगे तब तक ये विनाश लीला भी होती रहेगी .
मुझे हिन्दुओं पर रोष और अफ़सोस हो रहा है क्योंकि इन्होंने कभी अपने तीर्थ स्थानों ,मंदिरों और देवताओं की स्वच्छता की ओर बिलकुल भी ध्यान नहीं दिया है .सभी मानवीय और प्राकृतिक नियमों की अवहेलना इनके मंदिरों और तीर्थों में देखि जा सकती है ..जो स्वयं सत्य से सुन्दर और सुन्दरता को सुरक्षित नहीं रख पाते ,तो शिव इनकी रक्षा क्यों करे ?
 सरकार और राजनीतिज्ञ अब कह रहे हैं कि केदार नाथ का रास्ता बनाने में और फिर से यात्रा आरम्भ करने में तीन साल लग जायेंगे ...किसी भी हिन्दू संघठन ने इस वक्तव्य पर आपत्ति नहीं की .कोई भी संघटन आगे आकर यह नहीं कह पाया कि हम अपने स्वयंसेवकों के साथ इस रास्ते को एक महीने में शुरू करेंगे .न किसी मठाधीश ने कहा और न किसी राजनीतिक दल ने ..
यह वह जाति है जो न अपने धर्म की ,न परम्परा की, न संस्कृति की , न संस्कारों की न अपने परमात्म विग्रह की रक्षा कर पायी है ,तो धर्म इस जाति की रक्षा क्यों करे ?ये लोग तो केवल अवतारों की प्रतीक्षा ही कर सकते है .इनका स्व -सामर्थ्य नष्ट हो चुका है ...कछुया मनोवृति ही पतन का कारण है और इसे ये छोड़ नहीं सकते ...काल इन्हें शेष करेगा हाथ ले कर्कश कशा .
इस मृत प्राय जाति में पुनर्जीवन कैसे लाया जाए ?कोई बिंदु नहीं सूझता ....फिर भी हाथ पर हाथ धर कर बैठा नहीं जा सकता ..इन्हें चींटियो से शिक्षा लेनी चाहिए, जो संकट के समय अपनी जाति की रक्षा के लिए, ये नहीं देखतीं की उनके द्वारा उठाया गया अंडा किसका है .....अरविन्द

शनिवार, 8 जून 2013

गजल

गजल
खामखाह लोगों को तराशा न कीजिये
गजलों को दोषों से नवाज़ा न कीजिये .
दर्पण तो दर्पण है प्रतिबिम्ब दिखायेगा
अपने आप को भी जाँच लिया कीजिये .
राजनीति ने चौसर तो बिछा रखी है यहाँ
अनाड़ी खिलाड़ी को बिठाया मत कीजिये .
बादल घेर लेते हैं आकाश सावन महीने में
बेमौसम की बरसात में  भीगा न  कीजिये .
हुस्न कोई नियामत नहीं  खुदा अपने की
आँखों को अंजन से भी आँज लिया कीजिये .
बहुत मासूम है अपने इन  दुश्मनों का चेहरा
हर मूर्ति के सामने माथा टिकाया न कीजिये .
लोग  बेबजह  हँसते नहीं रहते हर  किसी पर
अपने जख्म हर किसी को दिखाया न कीजिये .
मेमनों की तरह हम क्यों मिमियाते रहें हरदम
राम बालों के  बगल की छुरी पहचाना कीजिये ......अरविन्द



.



मंगलवार, 4 जून 2013

अरविन्द कुण्डलियाँ

कालेज की अब मैं कहूँ बड़ी अनोखी बात
इक दूजे के प्रति सब रचते घात प्रतिघात .
रचते घात प्रतिघात प्रकांड पंडित हैं रहते
ज्ञान झौंक दिया आग कभी उठते हैं गिरते
ख रहे अरविन्द कवि मिले नित नई नोलेज
काँव काँव सब कर रहे,अपना ऐसा है कोलेज .
.............................................................

प्रिंसिपल ऐसे मिले हमें,  न सिद्धांत न ज्ञान
लड़वा रहे एक दूजे को  अपनी  बघारें शान .
अपनी बघारें शान ,विप्र संग कर ली मिताई
धन गटक रहे मासूमों के  नित छकें मलाई .
कहे अरविन्द कवि चतुर्थ श्रेणी रोये प्रतिपल
फाइलों के ढेर पर  बैठा ठाला अपना प्रिंसिपल .
.....................................................................
विद्वान हमें नहीं चाहिए ,चाहिए चापलूस
डिग्री  उसकी  बड़ी हो ,पर तलवे चाटे  खूब .
तलवे चाटे खूब ,वाही  प्रिंसिपल  बन  जावे
प्राइवेट विद्यालय में ,झूला जो खूब झुलावे.
कहे अरविन्द कवि राय सजाये ज्ञान दूकान
नव रत्नों में बैठ सज रहे चापलूस  विद्वान .
.....................................................................
डोनेशन ,ग्रांट पर चलाओ शिक्षा की दुकान
यू .जी .सी .से धन मिले हो जाओ धनवान .
हो जाओ धनवान ,भाड़ में जाएँ सब बच्चे
हमें चाहिए फ़ीस बस ,बन जाएँ चाहे लुच्चे
कहे अरविन्द कविराय पायेगा वही प्रमोशन
हेरा फेरी जो  करे , भरे  नित डिब्बा डोनेशन
.......................................................................अरविन्द 

....................................................................

ग़ज़ल

पाँव भी सुंदर तेरे पायल भी तेरी सुंदर
तू झूम झूम नाचे कत्थक भी तेरा सुंदर .

आँखों में तेरे जानम मस्ती का समंदर है
पलकें भी तेरी सुंदर ,नजरें भी तेरी सुंदर .

नागिन सी तेरी वेणी लहरा कर झूमती है
नितम्बिनी तू सुंदर गजगामिनी तू सुंदर .

होंठ फूल गुलाबी ,लगते हैं मुझे शराबी
रस भी तेरा सुंदर ,मुस्कान तेरी सुंदर .

कटि केहरि लरजती कुछ कह कर जाती है
शरमाना तेरा सुंदर ,लहराना तेरा सुंदर .

सुकंठ तेरे माला ,कुचद्व्य को चूमे है
नाभि भी तेरी सुंदर ,त्रिवली भी तेरी सुंदर .

प्रभु की लिखी कविता तू मोहे भासती है
श्यामा सी तू सुंदर ,कृष्णा सी तू सुंदर ,............अरविन्द

सोमवार, 3 जून 2013

कलयुगी संहिता

                    कलयुगी संहिता
भागवत को पढ़ लिया भागवत न हो सके .
शतश: पढ़ी रामायण पर राम के न हो सके .
काम के चाकर बने दुर्वासनाओं में हम पगे .
न इधर के ही रहे ,न उधर के  हम  हो सके .
कर्म ऐसे किये कि रावण भी शरमा गया .
कंस फीका पड़ गया ह्रिन्याक्श लजा गया .
संतत्व के आवरण में हम पर द्रव्य छक गए .
स्वार्थ के हिमवान की चोटी पर हम चढ़ गए .
दुःख दैन्य पीड़ा संताप अवसाद सबको दिया .
दूसरा भी अपना है ,स्वीकार न हमने किया .
भ्रष्टता के दुष्टता के आसुरी भावनाओं के -
हम खिलोने बने और  नाचे दुरात्माओं से .
सदात्मा का तिलक माथे पर न हम लगा सके
भागवत को  पढ़ लिया, भागवत न हो सके .
प्रेम पाखण्ड हमारा ,परमार्थ ईर्ष्या द्वेष है .
विष पूर्ण घट का आवरण हिरण्य कोष है .
पंथ न अपना कोई न दीन ,न मजहब हुआ .
दूसरों को दुःख देना ,यही  तो कर्तव्य हुआ .
क्लेश में जन्में पले हम क्लेश ही माता पिता
क्लेश ही जीवन हमारा ,क्लेश ही दाता हुआ .
क्लेश ही कलयुग का मंत्र ,क्लेश ही नामदान
क्लेश के ही कर्म सारे ,क्लेश ही महान दान .
सुख ,सौन्दर्य ,समाधि ,शिव न हम जी सके .
शतश: पढ़ी रामायण हम राम के न हो सके .
पर पीड़ा है साधना ,पर  दुःख  अपना देवता.
दूसरों को रोता देख, हँसता है अपना देवता .
क्यों स्वर्ग की इच्छा करें क्यों पुण्य की कामना
दूसरे को दुःख देना यही हमारी हठ  साधना .
माता ,पिता, भाई ,बन्धु जगत सब व्यर्थ है
हम ही समर्थ ,हम ही समर्थ, हम यहाँ समर्थ हैं .
परदोष -दर्शन ही हमारा चिरंतन महा यज्ञ है
पर निंदा आहुतियाँ ,पर सर्वस्व हरण हव्य है .
होता है हम स्वार्थ के, अध्वर्यु आत्म पूजन के
ब्रह्मा आत्म सुख के हम ,पुरोहित मनभावन के .
मृत्यु निश्चित है यहाँ पर, मरण शील संसार है
क्यों न करें आत्म सुख कामना ये ही व्यवहार है .
हमें नहीं चिंता कि हम भागवत न हो सके
शतश: पढ़ी रामायण ,हम राम के न हो सके .
निराश हो कर कृष्ण को भी यहाँ से जाना पड़ा
मौन होकर मर्यादित राम को सरयू गहना पड़ा .
दूसरों को सुख देकर क्या मिला अवतार को  ?
थोड़ी पूजा ,धूप बत्ती मिला रुक्ष प्रशाद  हो ..
एक कौन स्थिर किया और जोड़ दिए हाथ दो
सर झुकाया आरती की भिड़ा दिए किवाड़ दो .
मन लगाया दस्यु युक्ति में ,मंत्र सारे जप लिए
फिर पाप सारे कर लिए ,दुष्कर्म सारे कर लिए .
क्या करें भगवान् का जो दीखता नहीं संसार में
खुदा  ही के नाम पर सब पाप होते हैं  संसार में .
फिर क्यों डरें हम कुकृत्य से ,असत दुष्कर्म से .
जीना यहाँ ,मरना यहाँ स्वप्न व्यर्थ स्वर्ग के .
एक ही है सत्य सारे जगत में जो है जागता
हम ही अपना कर्म हैं और हम ही अपने भोक्ता .
पुण्य कर्मा दुःख भोगें या सहें अपघात वे
राम के चाहे बने या हो जाएँ भागवत वे .
कर्म उनका उन्हें मिलेगा फल भी वही भोगें
स्वर्ग में रहें ,वैकुण्ठ या रहें गो धाम में
हमें नहीं चिंता कि हम नित नर्क वास करें
जगत भी तो नर्क क्यों मृगतृष्णा दुःख सहें .
क्यों न भोगें देह सुख क्यों न मन मानी करें
जीना अपना है तो चाहे उल्टा जीयें सीधा मरें .
निन्दित जग में भले हम ,जीभ का रस मिले
रूपसी नारी मिले और आँख का भी सुख मिले
इन्द्रियों का शक्ति से रस पूरा ही निचोड़ लें
गात कोमल सा मिले ,देह का सुख भोग लें .
यही दर्शन है जगत का ,यही जीवन ज्ञान है
सुख अपरिमित, व्यक्ति सुख ही महान है
भागवत भी यहाँ के धर्म का पाखण्ड है
राम कथा धन -साधना का स्रोत प्रचंड है .
राम इतना नहीं प्रिय धन धाम जितना है प्रिय
भागवत की ओट में केवल गोपियाँ ही हैं प्रिय
यही कलयुग मन्त्र ,यही कलयुग साधना
संहिता कलयुग की ,यही युग की आराधना ............अरविन्द







रविवार, 2 जून 2013

कुण्डलिया छन्द

कुण्डलिया छन्द
कविताओं के राज में नहीं पड़ा अकाल
कविता  के पीछे भगे कवि हुए बेहाल .
कवि हुए बेहाल गिरे जो एक भी पत्ता
लिख दसियों भाव ज्यों लत्ते पे लत्ता।
कहे अरविन्द कवि सजे जैसे कोई वनिता
ऐसे ही सज रही आज कविता पर कविता ....अरविन्द
 

मुहब्बत ही इबादत है .

इबादत ही मुहब्बत है ,मुहब्बत ही इबादत है .
आदमी की ही नहीं यह ,खुदा की रियासत है .
मुहब्बत का नहीं मजहब न है  कोई किताब
हिसाब मुहब्बत का, आदमी की सियासत है .
इजाजित लें मुहब्बत करे कोई हो नहीं सकता
मुहब्बत पहरेदारों के प्रति खुदा की बगाबत है .
कोई मुल्ला ,कोई पंडित न ठेकेदार मुहब्बत का
जड़ हो चुके धर्म विरुद्ध प्रेमियों की बगाबत है .
मुहब्बत खुदा की आग हर कोई ले नहीं सकता
दिल के मंदिर में यह खुदा की ही हिफाजत है .
न जिस्म ,न जां कभी  मिलते है मुहब्बत में
रूह की पुकार मुहब्बत ,खुदा का स्वागत है .
डर डर कर कभी कोई मुहब्बत कर नहीं पाया 
मुहब्बत बंदगी है वहाँ खुदा माशूक सलामत है ..........अरविन्द
......................कवी श्री सूद के लिए ....................

शनिवार, 1 जून 2013

झूठ कहते हैं कि आदमी में ईश्वर का वास है ,
असभ्य जंगली जानवर आदमी का आवास है,
क्रूरता ,पशुता ,आक्रमण ,भय और आतंक में
कंठी ,तिलक ,छाप ,माला छद्म परिहास है

यह तरक्की दीखती जो जगत के आकाश में
विज्ञान के प्रकाश में ,ज्ञान के आभास में --
अहंकार के परचम लहरा रहा है आदमी .
दंभ और पाखण्ड मिले हैं इसे अभिशाप में

अभिशप्त से करुणा ,कृपा ,प्रेम की इच्छा ?
सहानुभूति ,दया ,ममता ,परमार्थ की इच्छा ?
आकाश कुसुम मिला क्या कभी आकाश में ,
नहीं रह सकता ईश्वर इस आदमी के पास में!

ईश्वर बेबस ,असहाय ,मौन कर बद्ध नहीं,
आदमी के कर्म कांड जंजाल पाश बद्ध नहीं,
मन्त्रों से पूजता नर केवल उसे अहंकार वश,
स्वार्थ वश ,आर्त्त  या केवल संस्कार वश

पाखण्ड पूजा अर्चना ,पाखण्ड इसके पाठ हैं
पाखण्ड उठना बैठना ,पाखण्ड वाणी वाक् हैं .
पाखण्ड इसका भजन,  पाखण्ड कर्म काण्ड है .
पाखण्ड इसकी प्रार्थना ,पाखण्ड इसका ध्यान है .

दो लोटा जल ,खंडित पुष्प कर में लिए
बेसुरी घंटी ,घंटा नाद, शंख ध्वनि भर दिए .
जाने बिना उसे, अगणित गीत इसने रच दिए .
दंभ पूर्ण भक्ति के सब पाठ इसने पढ़ लिए .

चढ़ पहाड़ों के शिखर पर नाचता .
बाहें ऊपर उठा ऊंचे उसे पुकारता
या मौन हो किसी नदी या घाट किनारे
भीतर कहीं डूब उतरे जा कहीं गहरे

विक्षिप्त नर ऐसे में कैसे रह सके परमात्मा
सब में नहीं देख पाया जो उसकी ही आत्मा ? .
दूसरों को दर्द ,दुःख ,संताप पीड़ा दे
नहीं रह सकता है प्रभु इसमें आकर के .

हवा बहती , किरण बहती , जल नहीं रुकता .
सौन्दर्य है शिव सत्य मल सह नहीं सकता .
जो भी दिया उसने सभी कल्याण कारी है .
पुरुष ही केवल अधम अति अत्याचारी है .

परमात्मा को योग ,जप ,तप ,यज्ञ न चाहिए
आदमी में उसे केवल आदमी चाहिए .
आदमी होकर भी जो न आदमी बन पाया
कैसे कहूँ ईश्वर ने इसे अपना घर है बनाया ?

पेड़ में ,हर पत्ते में है ईश्वर का वास .
गाय ,बैल ,साँप बिच्छु ,सिंह उसके पास .
आदमी का है वहाँ चिरकाल से अकाल
रह नहीं सकता उसके पास ये कलंकित कंकाल .

प्रेम सागर सा उदारता आकाश सी चाहिए
गर आदमी को उसके घर आवास ही चाहिये .
सबके सुख की कामना नर कर नहीं सकता .
निर्बंध वह ,बंधन ग्रस्त उसे वर नहीं सकता .........अरविन्द