केदार त्रासदी ...
रहिमन विपदा हू भली जो थोड़े दिन होए .शनिवार, 22 जून 2013
केदार त्रासदी ...
गुरुवार, 20 जून 2013
केदार की त्रासदी
केदार की त्रासदी ...प्रकृति का दोष नहीं है ....
शनिवार, 8 जून 2013
गजल
गजल
खामखाह लोगों को तराशा न कीजिये
.
मंगलवार, 4 जून 2013
अरविन्द कुण्डलियाँ
कालेज की अब मैं कहूँ बड़ी अनोखी बात
इक दूजे के प्रति सब रचते घात प्रतिघात .
रचते घात प्रतिघात प्रकांड पंडित हैं रहते
ज्ञान झौंक दिया आग कभी उठते हैं गिरते
ख रहे अरविन्द कवि मिले नित नई नोलेज
काँव काँव सब कर रहे,अपना ऐसा है कोलेज .
.............................................................
प्रिंसिपल ऐसे मिले हमें, न सिद्धांत न ज्ञान
लड़वा रहे एक दूजे को अपनी बघारें शान .
अपनी बघारें शान ,विप्र संग कर ली मिताई
धन गटक रहे मासूमों के नित छकें मलाई .
कहे अरविन्द कवि चतुर्थ श्रेणी रोये प्रतिपल
फाइलों के ढेर पर बैठा ठाला अपना प्रिंसिपल .
.....................................................................
विद्वान हमें नहीं चाहिए ,चाहिए चापलूस
डिग्री उसकी बड़ी हो ,पर तलवे चाटे खूब .
तलवे चाटे खूब ,वाही प्रिंसिपल बन जावे
प्राइवेट विद्यालय में ,झूला जो खूब झुलावे.
कहे अरविन्द कवि राय सजाये ज्ञान दूकान
नव रत्नों में बैठ सज रहे चापलूस विद्वान .
.....................................................................
डोनेशन ,ग्रांट पर चलाओ शिक्षा की दुकान
यू .जी .सी .से धन मिले हो जाओ धनवान .
हो जाओ धनवान ,भाड़ में जाएँ सब बच्चे
हमें चाहिए फ़ीस बस ,बन जाएँ चाहे लुच्चे
कहे अरविन्द कविराय पायेगा वही प्रमोशन
हेरा फेरी जो करे , भरे नित डिब्बा डोनेशन
.......................................................................अरविन्द
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इक दूजे के प्रति सब रचते घात प्रतिघात .
रचते घात प्रतिघात प्रकांड पंडित हैं रहते
ज्ञान झौंक दिया आग कभी उठते हैं गिरते
ख रहे अरविन्द कवि मिले नित नई नोलेज
काँव काँव सब कर रहे,अपना ऐसा है कोलेज .
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प्रिंसिपल ऐसे मिले हमें, न सिद्धांत न ज्ञान
लड़वा रहे एक दूजे को अपनी बघारें शान .
अपनी बघारें शान ,विप्र संग कर ली मिताई
धन गटक रहे मासूमों के नित छकें मलाई .
कहे अरविन्द कवि चतुर्थ श्रेणी रोये प्रतिपल
फाइलों के ढेर पर बैठा ठाला अपना प्रिंसिपल .
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विद्वान हमें नहीं चाहिए ,चाहिए चापलूस
डिग्री उसकी बड़ी हो ,पर तलवे चाटे खूब .
तलवे चाटे खूब ,वाही प्रिंसिपल बन जावे
प्राइवेट विद्यालय में ,झूला जो खूब झुलावे.
कहे अरविन्द कवि राय सजाये ज्ञान दूकान
नव रत्नों में बैठ सज रहे चापलूस विद्वान .
.....................................................................
डोनेशन ,ग्रांट पर चलाओ शिक्षा की दुकान
यू .जी .सी .से धन मिले हो जाओ धनवान .
हो जाओ धनवान ,भाड़ में जाएँ सब बच्चे
हमें चाहिए फ़ीस बस ,बन जाएँ चाहे लुच्चे
कहे अरविन्द कविराय पायेगा वही प्रमोशन
हेरा फेरी जो करे , भरे नित डिब्बा डोनेशन
.......................................................................अरविन्द
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ग़ज़ल
पाँव भी सुंदर तेरे पायल भी तेरी सुंदर
तू झूम झूम नाचे कत्थक भी तेरा सुंदर .
आँखों में तेरे जानम मस्ती का समंदर है
पलकें भी तेरी सुंदर ,नजरें भी तेरी सुंदर .
नागिन सी तेरी वेणी लहरा कर झूमती है
नितम्बिनी तू सुंदर गजगामिनी तू सुंदर .
होंठ फूल गुलाबी ,लगते हैं मुझे शराबी
रस भी तेरा सुंदर ,मुस्कान तेरी सुंदर .
कटि केहरि लरजती कुछ कह कर जाती है
शरमाना तेरा सुंदर ,लहराना तेरा सुंदर .
सुकंठ तेरे माला ,कुचद्व्य को चूमे है
नाभि भी तेरी सुंदर ,त्रिवली भी तेरी सुंदर .
प्रभु की लिखी कविता तू मोहे भासती है
श्यामा सी तू सुंदर ,कृष्णा सी तू सुंदर ,............अरविन्द
तू झूम झूम नाचे कत्थक भी तेरा सुंदर .
आँखों में तेरे जानम मस्ती का समंदर है
पलकें भी तेरी सुंदर ,नजरें भी तेरी सुंदर .
नागिन सी तेरी वेणी लहरा कर झूमती है
नितम्बिनी तू सुंदर गजगामिनी तू सुंदर .
होंठ फूल गुलाबी ,लगते हैं मुझे शराबी
रस भी तेरा सुंदर ,मुस्कान तेरी सुंदर .
कटि केहरि लरजती कुछ कह कर जाती है
शरमाना तेरा सुंदर ,लहराना तेरा सुंदर .
सुकंठ तेरे माला ,कुचद्व्य को चूमे है
नाभि भी तेरी सुंदर ,त्रिवली भी तेरी सुंदर .
प्रभु की लिखी कविता तू मोहे भासती है
श्यामा सी तू सुंदर ,कृष्णा सी तू सुंदर ,............अरविन्द
सोमवार, 3 जून 2013
कलयुगी संहिता
कलयुगी संहिता
भागवत को पढ़ लिया भागवत न हो सके .
शतश: पढ़ी रामायण पर राम के न हो सके .
काम के चाकर बने दुर्वासनाओं में हम पगे .
न इधर के ही रहे ,न उधर के हम हो सके .
कर्म ऐसे किये कि रावण भी शरमा गया .
कंस फीका पड़ गया ह्रिन्याक्श लजा गया .
संतत्व के आवरण में हम पर द्रव्य छक गए .
स्वार्थ के हिमवान की चोटी पर हम चढ़ गए .
दुःख दैन्य पीड़ा संताप अवसाद सबको दिया .
दूसरा भी अपना है ,स्वीकार न हमने किया .
भ्रष्टता के दुष्टता के आसुरी भावनाओं के -
हम खिलोने बने और नाचे दुरात्माओं से .
सदात्मा का तिलक माथे पर न हम लगा सके
भागवत को पढ़ लिया, भागवत न हो सके .
प्रेम पाखण्ड हमारा ,परमार्थ ईर्ष्या द्वेष है .
विष पूर्ण घट का आवरण हिरण्य कोष है .
पंथ न अपना कोई न दीन ,न मजहब हुआ .
दूसरों को दुःख देना ,यही तो कर्तव्य हुआ .
क्लेश में जन्में पले हम क्लेश ही माता पिता
क्लेश ही जीवन हमारा ,क्लेश ही दाता हुआ .
क्लेश ही कलयुग का मंत्र ,क्लेश ही नामदान
क्लेश के ही कर्म सारे ,क्लेश ही महान दान .
सुख ,सौन्दर्य ,समाधि ,शिव न हम जी सके .
शतश: पढ़ी रामायण हम राम के न हो सके .
पर पीड़ा है साधना ,पर दुःख अपना देवता.
दूसरों को रोता देख, हँसता है अपना देवता .
क्यों स्वर्ग की इच्छा करें क्यों पुण्य की कामना
दूसरे को दुःख देना यही हमारी हठ साधना .
माता ,पिता, भाई ,बन्धु जगत सब व्यर्थ है
हम ही समर्थ ,हम ही समर्थ, हम यहाँ समर्थ हैं .
परदोष -दर्शन ही हमारा चिरंतन महा यज्ञ है
पर निंदा आहुतियाँ ,पर सर्वस्व हरण हव्य है .
होता है हम स्वार्थ के, अध्वर्यु आत्म पूजन के
ब्रह्मा आत्म सुख के हम ,पुरोहित मनभावन के .
मृत्यु निश्चित है यहाँ पर, मरण शील संसार है
क्यों न करें आत्म सुख कामना ये ही व्यवहार है .
हमें नहीं चिंता कि हम भागवत न हो सके
शतश: पढ़ी रामायण ,हम राम के न हो सके .
निराश हो कर कृष्ण को भी यहाँ से जाना पड़ा
मौन होकर मर्यादित राम को सरयू गहना पड़ा .
दूसरों को सुख देकर क्या मिला अवतार को ?
थोड़ी पूजा ,धूप बत्ती मिला रुक्ष प्रशाद हो ..
एक कौन स्थिर किया और जोड़ दिए हाथ दो
सर झुकाया आरती की भिड़ा दिए किवाड़ दो .
मन लगाया दस्यु युक्ति में ,मंत्र सारे जप लिए
फिर पाप सारे कर लिए ,दुष्कर्म सारे कर लिए .
क्या करें भगवान् का जो दीखता नहीं संसार में
खुदा ही के नाम पर सब पाप होते हैं संसार में .
फिर क्यों डरें हम कुकृत्य से ,असत दुष्कर्म से .
जीना यहाँ ,मरना यहाँ स्वप्न व्यर्थ स्वर्ग के .
एक ही है सत्य सारे जगत में जो है जागता
हम ही अपना कर्म हैं और हम ही अपने भोक्ता .
पुण्य कर्मा दुःख भोगें या सहें अपघात वे
राम के चाहे बने या हो जाएँ भागवत वे .
कर्म उनका उन्हें मिलेगा फल भी वही भोगें
स्वर्ग में रहें ,वैकुण्ठ या रहें गो धाम में
हमें नहीं चिंता कि हम नित नर्क वास करें
जगत भी तो नर्क क्यों मृगतृष्णा दुःख सहें .
क्यों न भोगें देह सुख क्यों न मन मानी करें
जीना अपना है तो चाहे उल्टा जीयें सीधा मरें .
निन्दित जग में भले हम ,जीभ का रस मिले
रूपसी नारी मिले और आँख का भी सुख मिले
इन्द्रियों का शक्ति से रस पूरा ही निचोड़ लें
गात कोमल सा मिले ,देह का सुख भोग लें .
यही दर्शन है जगत का ,यही जीवन ज्ञान है
सुख अपरिमित, व्यक्ति सुख ही महान है
भागवत भी यहाँ के धर्म का पाखण्ड है
राम कथा धन -साधना का स्रोत प्रचंड है .
राम इतना नहीं प्रिय धन धाम जितना है प्रिय
भागवत की ओट में केवल गोपियाँ ही हैं प्रिय
यही कलयुग मन्त्र ,यही कलयुग साधना
संहिता कलयुग की ,यही युग की आराधना ............अरविन्द
भागवत को पढ़ लिया भागवत न हो सके .
शतश: पढ़ी रामायण पर राम के न हो सके .
काम के चाकर बने दुर्वासनाओं में हम पगे .
न इधर के ही रहे ,न उधर के हम हो सके .
कर्म ऐसे किये कि रावण भी शरमा गया .
कंस फीका पड़ गया ह्रिन्याक्श लजा गया .
संतत्व के आवरण में हम पर द्रव्य छक गए .
स्वार्थ के हिमवान की चोटी पर हम चढ़ गए .
दुःख दैन्य पीड़ा संताप अवसाद सबको दिया .
दूसरा भी अपना है ,स्वीकार न हमने किया .
भ्रष्टता के दुष्टता के आसुरी भावनाओं के -
हम खिलोने बने और नाचे दुरात्माओं से .
सदात्मा का तिलक माथे पर न हम लगा सके
भागवत को पढ़ लिया, भागवत न हो सके .
प्रेम पाखण्ड हमारा ,परमार्थ ईर्ष्या द्वेष है .
विष पूर्ण घट का आवरण हिरण्य कोष है .
पंथ न अपना कोई न दीन ,न मजहब हुआ .
दूसरों को दुःख देना ,यही तो कर्तव्य हुआ .
क्लेश में जन्में पले हम क्लेश ही माता पिता
क्लेश ही जीवन हमारा ,क्लेश ही दाता हुआ .
क्लेश ही कलयुग का मंत्र ,क्लेश ही नामदान
क्लेश के ही कर्म सारे ,क्लेश ही महान दान .
सुख ,सौन्दर्य ,समाधि ,शिव न हम जी सके .
शतश: पढ़ी रामायण हम राम के न हो सके .
पर पीड़ा है साधना ,पर दुःख अपना देवता.
दूसरों को रोता देख, हँसता है अपना देवता .
क्यों स्वर्ग की इच्छा करें क्यों पुण्य की कामना
दूसरे को दुःख देना यही हमारी हठ साधना .
माता ,पिता, भाई ,बन्धु जगत सब व्यर्थ है
हम ही समर्थ ,हम ही समर्थ, हम यहाँ समर्थ हैं .
परदोष -दर्शन ही हमारा चिरंतन महा यज्ञ है
पर निंदा आहुतियाँ ,पर सर्वस्व हरण हव्य है .
होता है हम स्वार्थ के, अध्वर्यु आत्म पूजन के
ब्रह्मा आत्म सुख के हम ,पुरोहित मनभावन के .
मृत्यु निश्चित है यहाँ पर, मरण शील संसार है
क्यों न करें आत्म सुख कामना ये ही व्यवहार है .
हमें नहीं चिंता कि हम भागवत न हो सके
शतश: पढ़ी रामायण ,हम राम के न हो सके .
निराश हो कर कृष्ण को भी यहाँ से जाना पड़ा
मौन होकर मर्यादित राम को सरयू गहना पड़ा .
दूसरों को सुख देकर क्या मिला अवतार को ?
थोड़ी पूजा ,धूप बत्ती मिला रुक्ष प्रशाद हो ..
एक कौन स्थिर किया और जोड़ दिए हाथ दो
सर झुकाया आरती की भिड़ा दिए किवाड़ दो .
मन लगाया दस्यु युक्ति में ,मंत्र सारे जप लिए
फिर पाप सारे कर लिए ,दुष्कर्म सारे कर लिए .
क्या करें भगवान् का जो दीखता नहीं संसार में
खुदा ही के नाम पर सब पाप होते हैं संसार में .
फिर क्यों डरें हम कुकृत्य से ,असत दुष्कर्म से .
जीना यहाँ ,मरना यहाँ स्वप्न व्यर्थ स्वर्ग के .
एक ही है सत्य सारे जगत में जो है जागता
हम ही अपना कर्म हैं और हम ही अपने भोक्ता .
पुण्य कर्मा दुःख भोगें या सहें अपघात वे
राम के चाहे बने या हो जाएँ भागवत वे .
कर्म उनका उन्हें मिलेगा फल भी वही भोगें
स्वर्ग में रहें ,वैकुण्ठ या रहें गो धाम में
हमें नहीं चिंता कि हम नित नर्क वास करें
जगत भी तो नर्क क्यों मृगतृष्णा दुःख सहें .
क्यों न भोगें देह सुख क्यों न मन मानी करें
जीना अपना है तो चाहे उल्टा जीयें सीधा मरें .
निन्दित जग में भले हम ,जीभ का रस मिले
रूपसी नारी मिले और आँख का भी सुख मिले
इन्द्रियों का शक्ति से रस पूरा ही निचोड़ लें
गात कोमल सा मिले ,देह का सुख भोग लें .
यही दर्शन है जगत का ,यही जीवन ज्ञान है
सुख अपरिमित, व्यक्ति सुख ही महान है
भागवत भी यहाँ के धर्म का पाखण्ड है
राम कथा धन -साधना का स्रोत प्रचंड है .
राम इतना नहीं प्रिय धन धाम जितना है प्रिय
भागवत की ओट में केवल गोपियाँ ही हैं प्रिय
यही कलयुग मन्त्र ,यही कलयुग साधना
संहिता कलयुग की ,यही युग की आराधना ............अरविन्द
रविवार, 2 जून 2013
कुण्डलिया छन्द
कुण्डलिया छन्द
कविताओं के राज में नहीं पड़ा अकाल
मुहब्बत ही इबादत है .
इबादत ही मुहब्बत है ,मुहब्बत ही इबादत है .
डर डर कर कभी कोई मुहब्बत कर नहीं पाया
मुहब्बत बंदगी है वहाँ खुदा माशूक सलामत है ..........अरविन्द
......................कवी श्री सूद के लिए ....................
शनिवार, 1 जून 2013
झूठ कहते हैं कि आदमी में ईश्वर का वास है ,
असभ्य जंगली जानवर आदमी का आवास है,
क्रूरता ,पशुता ,आक्रमण ,भय और आतंक में
कंठी ,तिलक ,छाप ,माला छद्म परिहास है
यह तरक्की दीखती जो जगत के आकाश में
विज्ञान के प्रकाश में ,ज्ञान के आभास में --
अहंकार के परचम लहरा रहा है आदमी .
दंभ और पाखण्ड मिले हैं इसे अभिशाप में
अभिशप्त से करुणा ,कृपा ,प्रेम की इच्छा ?
सहानुभूति ,दया ,ममता ,परमार्थ की इच्छा ?
आकाश कुसुम मिला क्या कभी आकाश में ,
नहीं रह सकता ईश्वर इस आदमी के पास में!
ईश्वर बेबस ,असहाय ,मौन कर बद्ध नहीं,
असभ्य जंगली जानवर आदमी का आवास है,
क्रूरता ,पशुता ,आक्रमण ,भय और आतंक में
कंठी ,तिलक ,छाप ,माला छद्म परिहास है
यह तरक्की दीखती जो जगत के आकाश में
विज्ञान के प्रकाश में ,ज्ञान के आभास में --
अहंकार के परचम लहरा रहा है आदमी .
दंभ और पाखण्ड मिले हैं इसे अभिशाप में
अभिशप्त से करुणा ,कृपा ,प्रेम की इच्छा ?
सहानुभूति ,दया ,ममता ,परमार्थ की इच्छा ?
आकाश कुसुम मिला क्या कभी आकाश में ,
नहीं रह सकता ईश्वर इस आदमी के पास में!
ईश्वर बेबस ,असहाय ,मौन कर बद्ध नहीं,
पाखण्ड पूजा अर्चना ,पाखण्ड इसके पाठ हैं
दो लोटा जल ,खंडित पुष्प कर में लिए
चढ़ पहाड़ों के शिखर पर नाचता .
विक्षिप्त नर ऐसे में कैसे रह सके परमात्मा
हवा बहती , किरण बहती , जल नहीं रुकता .
परमात्मा को योग ,जप ,तप ,यज्ञ न चाहिए
पेड़ में ,हर पत्ते में है ईश्वर का वास .
प्रेम सागर सा उदारता आकाश सी चाहिए
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