सुनो !
महेश्वर के वीणा देते समय
तुम जानबूझ कर भूल गए. प्रभु।
केवल तीन तार की वीणा देकर
मुझे भेज दिया ।
कहा कि इस वीणा से
स्वर्गिक संगीत बुनूं ,
नाद की झंकार में
बहुवर्णी लय ताल से
तुम्हारी प्रसन्नता के
आह्लादित स्वरों को सुनूं।
भोला मैं ,
तुम्हारी मुस्कान में छिपी
धूर्तता को समझ ही नहीं सका।
नहीं जान सका कि
छलिया छल रहा है।
चुपचाप वीणा ले
उतर आया इस
निविड़ एकांत के
मानुषी जंगल में
तुम्हें संगीत सुनाने के लिए।
तुम्हें रिझाने के लिए ।
जैसे ही तार छेड़े
विसंवादी स्वरों ने
कर्ण कुहरों में कोहराम मचा दिया।
पक्षी मुझ पर हँसने लगे।
वृक्षों ने मुहं फेर लिया।
बहुत प्रयास किया प्रभु
कि इसकी तीन तारों को कसूं .
देह की तार क्या छेड़ी
अनघढ़ नाद बेचैन कर गया।
मन की तार को अभी छुआ ही था
कि कामनाओं की चीत्कारें
अतृप्त वासनाओं की दमित
पुकारें ,
बेसुरी तान में चिल्लाने लगीं।
मुझे तुम पर बहुत
गुस्सा आया , पर तुम
दूर कहीं सातवें आकाश में बैठे
मेरी झल्लाहट पर
प्रसन्न होते होगे -- लगा।
तब सोचा कि देखूं तो सही
इस जीवन वीणा की
तीसरी तार कैसी है ?
शायद यहाँ से ही
ऐसा संगीत उत्सर्जित हो
जो तुम्हें भा जाए।
मैने छुआ
आत्मा की इस तीसरी तार को
मूक ,अशब्द ,आलसी ,
मौन ,बेहोश तार।
निष्प्राण !
सोये हुए जिद्दी बच्चे सी
ऊँ ऊँ कर चुप हो गयी।
बहुत प्रयास किया
आजतक मोहन मोहक
संगीत न उत्पन्न हुआ।
तोड़ना चाहते हुए भी
मैं इसे तोड़ नहीं सकता।
अब लोटा लो अपनी यह वीणा
तिलंगी चीजें मुझे पसंद नहीं हैं।
देना चाहते हो, तो
पूर्णता दो
फिर संगीत सुनो और
खुल कर विभोर हो
आनंदकंद तब आनंद लो ,दो। ................ अरविन्द