शनिवार, 27 सितंबर 2014

सुनो !

सुनो  !
महेश्वर के
निनादित डमरू से निकले
सूत्रों को , तुमने
सात स्वरों का संगीत दिया।
लय के प्राण
स्निग्ध स्वरों में गुंजरित किये ,
जीवन को रस दिया ।
मुझे जीवन की
 वीणा देते समय
तुम जानबूझ कर भूल गए. प्रभु।
केवल तीन तार की वीणा देकर
मुझे भेज दिया ।
कहा कि इस वीणा से
स्वर्गिक संगीत बुनूं ,
नाद की झंकार में
बहुवर्णी लय  ताल से
तुम्हारी प्रसन्नता के
आह्लादित स्वरों को सुनूं।
भोला मैं ,
तुम्हारी मुस्कान में छिपी
धूर्तता को समझ ही नहीं सका।
नहीं जान सका कि
छलिया छल रहा है।
चुपचाप वीणा ले
उतर आया इस
निविड़ एकांत के
मानुषी जंगल में
तुम्हें संगीत सुनाने के लिए।
तुम्हें रिझाने के लिए ।
जैसे ही तार छेड़े
विसंवादी स्वरों ने
कर्ण कुहरों में कोहराम मचा दिया।
पक्षी मुझ पर हँसने लगे।
वृक्षों ने मुहं फेर लिया।
बहुत प्रयास किया प्रभु
कि इसकी तीन तारों को कसूं .
देह की तार क्या छेड़ी
अनघढ़ नाद बेचैन कर गया।
मन की तार को अभी छुआ ही था
कि कामनाओं की चीत्कारें
अतृप्त वासनाओं की दमित
पुकारें ,
बेसुरी तान में चिल्लाने लगीं।
मुझे तुम पर बहुत
गुस्सा आया , पर तुम
दूर कहीं सातवें आकाश में बैठे
मेरी झल्लाहट पर
प्रसन्न होते होगे -- लगा।
तब सोचा कि देखूं तो सही
इस जीवन वीणा की
तीसरी तार कैसी है ?
शायद यहाँ से ही
ऐसा संगीत उत्सर्जित हो
जो तुम्हें भा जाए।
मैने छुआ
आत्मा की इस तीसरी तार को
मूक ,अशब्द ,आलसी ,
मौन ,बेहोश तार।
निष्प्राण !
सोये हुए जिद्दी बच्चे सी
ऊँ ऊँ कर चुप हो गयी।
बहुत प्रयास किया
आजतक मोहन मोहक
संगीत न उत्पन्न हुआ।
तोड़ना चाहते हुए भी
मैं इसे तोड़ नहीं सकता।
अब लोटा लो अपनी यह वीणा
तिलंगी चीजें मुझे पसंद नहीं हैं।
देना चाहते हो, तो
पूर्णता दो
फिर संगीत सुनो और
खुल कर विभोर हो
आनंदकंद तब आनंद लो ,दो। ................ अरविन्द



शुक्रवार, 26 सितंबर 2014

नहीं प्रभु !


नहीं प्रभु !
सब छोड़ सकता हूँ।
 
यह काम , यह क्रोध
यह लोभ ,यह मोह।
सब छोड़ सकता हूँ।
ये सब
अंधी  बंद गली में फंसे
बच्चे की आतुर चीख है।
किसी असहाय हो चुके
बलवान की
उच्छिष्ट भीख है।
ये सब -
लिजलिजे पश्चाताप के
हेतु हैं।
रेतस् के ऊर्ध्वगमन के
अवरोधक हैं।
मृगतृष्णा की फाँस  और
मृत्यु के बोधक हैं।
सुख के शोधक नहीं ,
आनन्द  के शोषक हैं।
ये सब छोड़ सकता हूँ।
छोड़ सकता हूँ --
इन पाँचों तत्वों के संघठन को।
विसर्जित कर सकता हूँ
पृथ्वी को पृथ्वी में .
 
उंडेल सकता हूँ जल को
जल में।
प्रवाहित कर सकता हूँ
दसों प्राणों को
दिशहीन बहती
हवाओं में।
सहस्रांशु की किरणों में
समर्पित की जा सकती है
अपनी तेजोमयी
तेजस्विता।
बिना किसी राग के।
अनंत ब्रह्माण्ड के शब्द में
लय  कर सकता हूँ
अपने आंतरिक और
बहिर्गत शब्द  के
नाद को , निनाद को
निःसंकोच।
पर नहीं छोड़ सकता प्रभु
अपने अहं को।
यह अहं ही है कि
मैं मैं हूँ और तुम तुम।
यह अहं ही है कि
तुम्हें पाने को
फलांग जाता हूँ गहरी
अगम्य मन की खाइयों को।
अहं ही है जो मुझे
वासना के उत्तुंग
हिमालय से कूदने का
साहस देता है।
अहं के कारण ही प्रभु
न मैं मरता हूँ  और न तुम।
हम दोनों की चिरजीविता है
यह अहं।
क्यों  छोड़ूँ इसे ?
इसी के कारण तो
मेरे होने का उद्देश्य ,
तुम्हारे होने का प्रयोजन
सिध्द होता है।
इसे बना रहने दो नाथ
झीना आवरण है।
हम दोनों के
आनन के शाश्वत
सौंदर्य का।
उन्मुक्त आनंद और
स्वच्छंदता के सुख का  । ………… अरविन्द





गुरुवार, 25 सितंबर 2014

बरसात ने आकर
मैदान में अकेले खड़े
रावण के कागजी पुतले को
भिगो दिया ।

वह प्रतीक्षा में है
अब अग्नि दाह
कोई कैसे करेगा।

इस कागजी रावण को भी
राम की प्रतीक्षा है ।
इसीलिए तो हर बर्ष
जलने के लिए
मैदान में आ धमकता है।

राम नहीं आ रहे
वे भी
अपने पुतलों को ही
भेज देते हैं ।

रावण भी राम की
प्रतीक्षा में है ।
राम भी संसार में
कहीं खो चुके
रामत्व को ढूंढ़ रहे हैं ।....अरविन्द

अरविन्द -दोहे

अरविन्द -दोहे
अपने घर से निकल कर , बाहर आकर देख ।
दुनिया बैठी चाँद पर ,तू लिखे मिट्टी के लेख । ।
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भरम सदा मुखरित रहे ,सत्य सदा ही मौन।
मृगतृष्णा के जगत में दूर मुक्ति का भौन। ।
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अहंकार मय जीव यह ,आत्मप्रवंचन लीन ।
तलफत फिरे जगत में ,ज्यों कांटे में मीन । ।
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आगत विगत सु गत हुआ ,गत गत मांहि समाय।
सुगत कहीं आकाश में ,ठिठुरत सा मुस्काय । ।
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मन बालक या जगत में ,सपने माहिं मुस्कात ।
जगत पींजरा सुवर्ण का ,इच्छा फंद लगात। ।
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बहुभाषी यह संसार ,कांव कांव ही कांव।
जिसे केकी पिक हो प्रिय ,नहीं इहां ठाँव। ।
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नवजात शिशु माँ अंक में ,सोवत है मुस्काय।
माया के इस जगत में ,ज्यों ब्रह्म खड़ा लुभाय। ।
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परमात्मा को जगत में ,ढूंढत जग बौराय।
पुष्पित प्रति प्रसून में ,परमात्मा मुस्काय। ।
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आत्म तत्व को लखे नहीं ,देह देह भरमात ।
उलटा कीर लटकत फिरे ,प्रेम प्यार रटात। ।
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बहुप्रपंची ये पींजरा ,तामें पंछी जीव।
अहंकार भ्रम को रचे ,अंतर न दीखे पीव । ।
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भाँति भाँति के रूप रंग ,भाँति भांति के जीव।
वसन कहीं ऊपर धरा,अर्ध अनावृत शरीर । । ............. अरविन्द

हरि बोल

नितरायी रात ।
निताई साथ ।
हरि बोल।...........अरविन्द 

अंश हूँ

अंश हूँ
शुचिता के सागर का
निर्मल प्रेम की
परिणति हूँ।

कहाँ से मिले
मलिन वस्त्र
विकृत अहंकृति के
अहंकार का
पुतला हूँ,क्यों?

इच्छाओं का ज्वलित बवंडर
कामनाओं का पुंज,
निजता का भग्न दूत
अस्थिर चित्त का
नर्तन हूँ।

कहाँ गया वह ब्रह्म सरोवर
कहाँ गयी शांत सरिता
कहाँ लुट गयी
आनंद धरोहर
कहाँ छिपी ज्ञान सविता।

झूठा है सब शब्दजाल यह
झूठी मान उपाधि सब।
झूठा है संसृति का केतु
झूठी अस्ति का हेतु सब।

मिथ्या अस्थि बंधन सारा
मिथ्या चंचल प्राण विकल।
सार्थकता के नाथ परात्पर
क्यों छुटा नाद परा अविकल।

ग्रंथि बड़ी गहरी है
इसका मूल ढूंढ़ न पाया हूँ।
शांत मन:स्थिति मन मसोसती
संभाल नहीं मैं पाया हूँ।

उपलब्धि सब शून्य हुई है
अर्थहीन जगती सारी।
व्यर्थ जन्म और व्यर्थ मृत्यु है
व्यर्थ प्रकृति विकृति सारी।

जीवन अथक यात्रा केवल
समझ नहीं पाते है ।
किसी वृक्ष को नीड़ समझ
अकारथ पिटे जाते हैं।....अरविन्द

अरे! ओ रे मेरे मौन !


अरे! ओ रे मेरे मौन !
देह में भटकती
इन्द्रियाँ जब थक हार कर
अपनी अपनी खौह में
चुपके से दुबक जाती हैं,
तब हे मेरे मौन
तुम
बिना बुलाय अतिथि से
चुपके से
मेरे अंतर में उतर आते हो।

थका हारा मैं
बेहोश कर दिए गए
किसी मरीज -सा
तुम्हारी गोद में
चुपचाप सो जाता हूँ।

प्रभु ! कहाँ से भेज देते हो
यह गुदगुदाता मौन
मेरी स्वप्निल आत्मा को
जो जिद्दी बच्चे सा
कुरेद कुरेद कर जगाता है ।

गहराती नदी में घूमते
भंवर --मन में
उतरने लगती हैं
आकृतियाँ ।

चतुर्भुज रूप पर
लहराता मयूर पंख ।
स्वर्णमयी बांसुरी में
लहराती हवा का
सुरमयी संगीत।
रक्ताभ होंठों पर
झूलते नीलाभ हाथ।
सागर के लहराते आँचल में
मुस्कुराती ललिताम्बा।
ज्योत्स्ना के माधुर्य में
भूशायी मैं
अहोश शिव
उत्कीर्णित वक्ष पर
नाचती शिवा की अचंभित मुद्रा ।
पुनः अन्तस्थ के
संकोच से बहिर्गत
रक्तिम रसना।

सचमुच यह मौन
मुझे आकाश के विराट
अम्बुधि में पटक देता है ।

ऐसा आकाश जहाँ
सहस्र फन
पर मैं ही नृत्य निरत हूँ।
मैं नाचता हूँ या
वह मुझे नचाता है-
कोई अंतर नहीं लगता।
मैं जानता हूँ , अजानता हूँ ।

यह मौन अहोशी
मुझे बहुत प्रिय है।
जैसे माँ को बालक।
बच्चे को खिलौना।
भूखे को रोटी।.........अरविन्द

कितना मुश्किल है

कितना मुश्किल है
अपने ही हाथों से अपने
मोह की गाठों को खोलना ?

किससे कहूँ ?
कौन करेगा मेरी सहायता ?
कोई है जो खोल पायेगा
मेरी गांठे ?

सघन मोह की
लुब्ध अपघातें ?

कोई भी नहीं है ।

सब अपने अपने मोह के
दुर्गम दुर्ग की
अंध कारा में बंद,
मरू मारीचिका में
अनजाने सुख की तलाश के
धृतराष्ट्र हैं।

वे क्या ग्रंथिया खोलेंगे
इन्हें तो निज में
निजता की ग्रंथि नहीं दीखती ।

कहाँ जाएँ, किससे कहें ?

मोह
आत्म की स्वच्छता
चुरा ले गया।
मन की निर्मलता नहीं रही ।
वाणी सौम्यता खो बैठी ।
कर्मों का सत्व नष्ट हो गया ।
पंकिल संबंधों के दाग मिले ।
तेजस्वी सात्विकता गुम हो गयी ।
कुछ भी पास नहीं रहा।

स्वतंत्रता ध्वस्त ।
स्वछंदता नष्ट।

मैं याचना करना चाहता हूँ ,प्रभु ।
संकोच पकड़ लेता है ।
शर्मसार हूँ
कोई उत्तर नहीं है।

अब भयभीत हूँ
कि उसकी कृपा से मोह गया, तो
मैं कहाँ रहूँगा ?.......अरविन्द

रविवार, 7 सितंबर 2014

अनुग्रह

आभार प्रभु आपकी
अनंत कृपा का आभार।
लिया तुमसे बहुत कुछ
ज्ञान,अर्थ,अर्थार्थ प्रेम साकार।
बहुत आभार।
तुमने क्यों नहीं माँगा था
हिसाब?
आज कहा है ,तो कहो
क्या क्या धरुं
चरण पर अनुभार।
दांत से पकड़ा कि
चाहे हाथ से,
अब लोटाना है मुझे
अवनत विनम्र माथ से।
पुन: निवेदन है प्रभो
लौटा नहीं सकता
प्रेमपूर्ण ज्ञान हे अहो।
अर्थ हुआ दुर्वह
लौटाता हूँ विभो।
अन्यथा न लें मेरी प्रार्थना
निर्भार करना चाहता हूँ
तव आत्मा।........अरविन्द

शुक्रवार, 5 सितंबर 2014

अरविन्द कवित्त

अरविन्द कवित्त
ललकारते संसार को फटकारता हूँ मैं अभी ,
ज्ञान औ प्रेम के अद्भुत कुछ तीखे उपहार हैं
अपनी अपनी मैं का सुख सबको प्यारा लगे ,
ईर्ष्या ,द्वेष ,प्रतिशोध पाखण्ड के भरमार हैं।
एषणा का पूत मानव अपूत स्वार्थ दास हुआ,
दुर्भावना का दूत हुआ दुर्वासना की मार  है।
झूठा तप त्याग सब  नेम योग यज्ञ ,याग ,
पाखण्ड हुए सम्बन्ध सब अहंकार अंगार है।
-----------
2 .
तुच्छता त्याग नर निज स्वरूप ध्यान कर
तू तो शुद्ध ब्रह्म अज दृश्य को प्रकाशी  है।
तुम्हारे ही अज्ञान ने जगत का प्रपंच रचा ,
अहं का संहार कर तू तो पूत अविनाशी है।
पाहन से देव  सारे  मूर्छित  मूर्तिवत जान ,
पत्थरों को पूज नाहिं तू सहज सुखराशि है।
जीव तू ईश्वर अंश मोह के आभास लिप्त
माया के प्रभाव से तू काहे को प्रभासी है।
-------
3 .
बड़ी ही अनोखी बात दुनिया में देखि जात
जिन्हें हम पढ़ाते थे वे आज हमें पढ़ाते हैं।
काव्यशास्त्र पास नहीं काव्यदोष भान नहीं ,
अभिधा में कही बात सन्दर्भों माहिं जाँचें हैं।
आलोचना निमित्त लो कृति कहीं फैंक देते
खामखाह  कृति  भीतर कृतिकार  भाँपे हैं ।
अंधों के हाथ  जैसे लाठी कोई  आन दीनी
बिना ही विचारे बेचारे इत उत घुमाते हैं। …………अरविन्द


गुरुवार, 4 सितंबर 2014

-क्षणिकाएँ

न आदत ही बदल सके न तक़दीर को हम।
जैसे हैं वैसा भी तो रहने नहीं देते हो तुम ।
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बन्धनों की क्या औकात हमें बाँध लें।
हम ही हैं जो जानबूझ कर बंधे बैठे हैं ।
---------
आकाश की नीली आँखों से वह निहारता है मुझे।
मैने ही अभी तक उसे खुलकर नहीं पुकारा है।
--------
न पाने के तो सैंकड़ों बहाने हैं ।
उसका हो के तो चल हर जगह वह है।
---------
हे मेरे मन !
अनमना बन।
-------

बहुत गहरे में उतर आयें
तो स्तब्ध उदासियाँ हैं वहां।
सतह पर तो केवल
बुलबुले नाचते हैं।...अरविन्द
----------------------------------------क्षणिकाएँ --------------------------------------------

जख्म देने से पहले

अपने दर्द को मुस्कान में छिपा लेते हैं हम।
बेगानों को घर का गर्भ गृह दिखाया नहीं करते।
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नयन मूंद कर उतर जा ,गहरे मन में झांक ।
वहां विराजे ब्रह्म वह ,आँक स्वयं को जांच।।

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नाच नचाता मन हमें ,दूसर का नहीं दोष।
भीतर दबी लालसा, भरा हुआ असंतोष ।।
---------
भोर तो होगी ही हर रात की
कौन जाने कौन जागते मिलेंगे।
-------
तुम्हारे घर के सामने बैठ कर पीयूंगा शराब ऐ खुदा
तुम्हें भी पता चले कि तेरी दुनिया कितनी ख़राब है ।
-------
खुदा के घर के सामने बैठ पीयूंगा शराब।
सुना है बिगड़ों को पहले संभालता है वह।
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शराब न होती, बड़ा मुश्किल होता जीना
उसने मुश्किलें दीं ,शराब ने आसां कर दिया।
-------
तेरी मस्जिद के बाहर बैठ नित शराब पीता हूँ
तू मुझे बना कर भूल गया ,मैं तुम्हें पीकर भूलता हूँ ।
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तूफ़ान सह कर जब निकलता है आदमी।
बदल जाती है रंगों- सूरत और सीरत भी ।
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सिर के बाल कभी के उड़ा दिए थे बच्चों ने
पोते ,पोतियां ,दोहते अब तबला बजा रहे हैं।
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प्यार की माला जपने वाले हजारों
देह के किनारे पर डूबे हमें मिले हैं।
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जख्म देने से पहले जो सोचा होता
दर्द भी आदमी को गूंगा बना देता है।
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ग़ालिब ,मीर ,जफ़र इकवाल गए जहाँ से
ख्याल अभी भी दुनिया में कम नहीं हुए हैं। ………अरविन्द

देख ली दुनिया

देख ली दुनिया बहुत ही घूम कर जटिल
झगड़ना तुझी से जी भर है बिगड़ना मुझे।

नचा नचा कर नाच बेहद थका दिया तुमने
कितने पर्दों में छिपा तू देखना अब है मुझे।

खत्म हुए तारे सभी ,चन्द्रमा भी बुझ गया
अब तो आ जा सामने या तड़पना है मुझे ।

ठंडी हवाओं में तू तो सुख से है सो रहा
इस झुलसती गर्मी में अभी जगना है मुझे।

कब तुम्हारे अंक हिमानी में आ मैं सिर धरूँ
कुछ तो कृपा करो प्रभु मेरे कि सोना है मुझे।

तुमने ही तो कहा था कि हाथ थामो जरा
जिंदगी के गीत को सुनना सुनाना है मुझे।

जीना मुश्किल कर दिया है निगोड़ी प्यास ने
प्यास जलती हुई देकर तुमने तड़पाना मुझे।

कब तलक मैं द्वार पर दीपक जला बैठा रहूँ
कितनी आरती स्तुतियाँ ,मनुहार करनी है मुझे। ………अरविन्द

अरविन्द दोहे--

भारत वर्ष में आ गये ,नहीं मिला आराम ।
जगह जगह है गंदगी,तड़प रहा भगवान।।
-------
मक्खी मच्छर भिनकते, काक्रोच भरमार।
भ्रष्टाचारी सज रहै, हर कुर्सी पर आज।।
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मुल्क बहुत बीमार है, जनता है लाचार।
रास्ता नाहीं सूझता, कैसे करें उपचार।।
---
रब्ब आसरे मुल्क हुआ, रब्ब आसरे लोग।
रब्ब बेचारा क्या करे,मिले मिलावटी भोग।।
--------अरविन्द दोहे------------