गुरुवार, 25 सितंबर 2014

अरे! ओ रे मेरे मौन !


अरे! ओ रे मेरे मौन !
देह में भटकती
इन्द्रियाँ जब थक हार कर
अपनी अपनी खौह में
चुपके से दुबक जाती हैं,
तब हे मेरे मौन
तुम
बिना बुलाय अतिथि से
चुपके से
मेरे अंतर में उतर आते हो।

थका हारा मैं
बेहोश कर दिए गए
किसी मरीज -सा
तुम्हारी गोद में
चुपचाप सो जाता हूँ।

प्रभु ! कहाँ से भेज देते हो
यह गुदगुदाता मौन
मेरी स्वप्निल आत्मा को
जो जिद्दी बच्चे सा
कुरेद कुरेद कर जगाता है ।

गहराती नदी में घूमते
भंवर --मन में
उतरने लगती हैं
आकृतियाँ ।

चतुर्भुज रूप पर
लहराता मयूर पंख ।
स्वर्णमयी बांसुरी में
लहराती हवा का
सुरमयी संगीत।
रक्ताभ होंठों पर
झूलते नीलाभ हाथ।
सागर के लहराते आँचल में
मुस्कुराती ललिताम्बा।
ज्योत्स्ना के माधुर्य में
भूशायी मैं
अहोश शिव
उत्कीर्णित वक्ष पर
नाचती शिवा की अचंभित मुद्रा ।
पुनः अन्तस्थ के
संकोच से बहिर्गत
रक्तिम रसना।

सचमुच यह मौन
मुझे आकाश के विराट
अम्बुधि में पटक देता है ।

ऐसा आकाश जहाँ
सहस्र फन
पर मैं ही नृत्य निरत हूँ।
मैं नाचता हूँ या
वह मुझे नचाता है-
कोई अंतर नहीं लगता।
मैं जानता हूँ , अजानता हूँ ।

यह मौन अहोशी
मुझे बहुत प्रिय है।
जैसे माँ को बालक।
बच्चे को खिलौना।
भूखे को रोटी।.........अरविन्द

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