शुक्रवार, 5 सितंबर 2014

अरविन्द कवित्त

अरविन्द कवित्त
ललकारते संसार को फटकारता हूँ मैं अभी ,
ज्ञान औ प्रेम के अद्भुत कुछ तीखे उपहार हैं
अपनी अपनी मैं का सुख सबको प्यारा लगे ,
ईर्ष्या ,द्वेष ,प्रतिशोध पाखण्ड के भरमार हैं।
एषणा का पूत मानव अपूत स्वार्थ दास हुआ,
दुर्भावना का दूत हुआ दुर्वासना की मार  है।
झूठा तप त्याग सब  नेम योग यज्ञ ,याग ,
पाखण्ड हुए सम्बन्ध सब अहंकार अंगार है।
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2 .
तुच्छता त्याग नर निज स्वरूप ध्यान कर
तू तो शुद्ध ब्रह्म अज दृश्य को प्रकाशी  है।
तुम्हारे ही अज्ञान ने जगत का प्रपंच रचा ,
अहं का संहार कर तू तो पूत अविनाशी है।
पाहन से देव  सारे  मूर्छित  मूर्तिवत जान ,
पत्थरों को पूज नाहिं तू सहज सुखराशि है।
जीव तू ईश्वर अंश मोह के आभास लिप्त
माया के प्रभाव से तू काहे को प्रभासी है।
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3 .
बड़ी ही अनोखी बात दुनिया में देखि जात
जिन्हें हम पढ़ाते थे वे आज हमें पढ़ाते हैं।
काव्यशास्त्र पास नहीं काव्यदोष भान नहीं ,
अभिधा में कही बात सन्दर्भों माहिं जाँचें हैं।
आलोचना निमित्त लो कृति कहीं फैंक देते
खामखाह  कृति  भीतर कृतिकार  भाँपे हैं ।
अंधों के हाथ  जैसे लाठी कोई  आन दीनी
बिना ही विचारे बेचारे इत उत घुमाते हैं। …………अरविन्द


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