कान्हा, तेरे संग !
हे गोविन्द !
जब भी तुम्हारी आँखों में झांकती हूँ
अचंभित हो जाती हूँ।
तुम्हारी आँखों की अथाह
नील गहराई में ,
नीलिमा से परिपूर्ण तुम्हारी
गोल पुतलियों की परछाई में
सारी सृष्टि झांकती है ,मेरे कान्हा ।
तलहटियों की हरीतिमा
शिखरो का गाम्भीर्य
नदियों की चंचलता
तरुओं का उर्जस्वित वीर्य
किसलयों की मासूमियत
चहचहाता पक्षियों का कलरव
धूल उड़ाते रथ चक्र
स्फुलिंग छोड़ते अग्निवाण
सद्योजात शिशु
वात्सल्यपूर्ण तरुणियाँ
विस्फारित युवा नेत्र
संघर्ष करते जग जीवन के प्राण
धूं धूं जलती चिताएं
चिंता करते वृद्ध
विरुदावली संगीत
रास के रसमयी नृत्य
सब देखती हूं।
हे कन्हैया !
तुम्हारे नेत्र नेत्र नहीं
गहरा सागर है।
मैं इस गहरे सागर में
गहरे उतरने का लोभ
संवरण नहीं कर पाती हूँ ।
तुम्हारे देखते देखते
मैं इन नीले नेत्रों में कूद जाती हूँ ।
तुम्हारी मधु मुस्कान ही
मेरा एकमात्र अवलम्ब है।
मैं जानती हूँ कि
इस अथाह गहराई की
गंभीर यात्रा में
तुम मेरे साथ रहोगे।
हे मेरे प्रभु ! हे मेरे माधव ! हे मेरे सखा !
तुम्हारा हृदय ढूंढती हूँ --
वहां करुणा है ,प्रेम है
दया है ,समदर्शिता और
आनंद है। वहां सर्वत्र मैं हूँ ।
मैं तुम्हारी राधा
मैं तुम्हारी संगिनी
मैं तुम्हारी रास तरंगिनी
मैं तुम्हारी एकांत रागिनी
मैं ही तुम्हारी संघर्ष प्रिया
सर्वत्र मैं हूँ, मेरे कर्णधार !
मीठा संतोष मुझे आच्छादित कर लेता है।
तुम अकेले नहीं हो।
मैं सर्वत्र तुम्हारे संग हूँ।......अरविन्द
( आज मेरे अनन्य आत्मीय श्री अनूप मित्रसेन ने राधा -कृष्ण के चित्र को भेजा है , यह कविता उसी को अर्पित है। )