रविवार, 26 अक्तूबर 2014

कान्हा, तेरे संग !

कान्हा, तेरे संग  !

हे गोविन्द !
जब भी तुम्हारी आँखों में झांकती हूँ
अचंभित हो जाती हूँ।


तुम्हारी आँखों की अथाह
नील गहराई में ,
नीलिमा से परिपूर्ण तुम्हारी
गोल पुतलियों की परछाई में
सारी सृष्टि झांकती है ,मेरे कान्हा ।

तलहटियों की हरीतिमा
शिखरो का गाम्भीर्य
नदियों की चंचलता
तरुओं का उर्जस्वित वीर्य
किसलयों की मासूमियत
चहचहाता पक्षियों का कलरव
धूल उड़ाते रथ चक्र
स्फुलिंग छोड़ते अग्निवाण
सद्योजात शिशु
वात्सल्यपूर्ण तरुणियाँ
विस्फारित युवा नेत्र
संघर्ष करते जग जीवन के प्राण
धूं धूं जलती चिताएं
चिंता करते वृद्ध
विरुदावली संगीत
रास के रसमयी नृत्य
सब देखती हूं।

हे कन्हैया !
तुम्हारे नेत्र नेत्र नहीं
गहरा सागर है।

 मैं इस गहरे सागर में

गहरे उतरने का लोभ
संवरण नहीं कर पाती हूँ ।
तुम्हारे देखते देखते
मैं इन नीले नेत्रों में कूद जाती हूँ ।

तुम्हारी मधु मुस्कान ही
मेरा एकमात्र अवलम्ब है।

मैं जानती हूँ कि
इस अथाह गहराई की
गंभीर यात्रा में
तुम मेरे साथ रहोगे।

हे मेरे प्रभु ! हे मेरे माधव ! हे मेरे सखा !
तुम्हारा हृदय ढूंढती हूँ --
वहां करुणा है ,प्रेम है
दया है ,समदर्शिता और
आनंद है।
वहां सर्वत्र मैं हूँ ।

मैं तुम्हारी राधा
मैं तुम्हारी संगिनी
मैं तुम्हारी रास तरंगिनी
मैं तुम्हारी एकांत रागिनी
मैं ही तुम्हारी संघर्ष प्रिया
सर्वत्र मैं हूँ, मेरे कर्णधार !
मैं तुम्हारी करुणा ,
मैं तुम्हारी आत्मीयता
मैं तुम्हारी अंतरंगता
मैं ही तुम्हारी निः संग असंगता हूँ।

मीठा संतोष मुझे आच्छादित कर लेता है।

तुम अकेले नहीं हो।
मैं सर्वत्र तुम्हारे संग हूँ।......अरविन्द
( आज मेरे अनन्य आत्मीय श्री अनूप मित्रसेन ने राधा -कृष्ण के चित्र को भेजा है , यह कविता उसी को अर्पित है।  )

शनिवार, 25 अक्तूबर 2014

जय राम जी की !

जय राम जी की !
जय राम जी की !
कवि जी ! जय राम जी की।
कामनाओं की देख रहा हूँ
बसी हुई बसती।
जय राम जी की !
नया नया  है नित जीवन यह
नित नवीन अनुभव -अभिलाषी
नित नए को चाहे जग
नया कंथा नयी कंथी ।
नया रस रास ,नया भाव
नयी मौलिकता अन्वेषी।
नया पंथ हो ,नए शब्द हों
तू अब तक बना हुआ पुरातन पंथी।
जय राम जी की !

पुराण काल का प्रेम तुम्हारा 
बासी प्रेम कहानी।
बासी उपमा , अलंकार सभी , सब
बासी शैली बिंब बेचारी।
नायिका तो है श्याममुखी
तू कहता उसे  चंद्रमुखी।
जय राम जी की !
कवि तो क्रांतदर्शी होता है
न होता कुँए का डड्डू।
कब तक टर्र टर्र सुनेगें सारे
तू अटका देहबिंदु पर  बुद्धू।
गहरे उतरो ,मन में गहरे
बह रही नदी विविधा जीवन की ।
जय राम जी की !
सत्य कटु मधु चहुँ दिशि व्यापे
देख चमकते जग जीवन में
भांति -भांति के रवि शशि।
जय राम जी की ! …………… अरविन्द




शुक्रवार, 24 अक्तूबर 2014

अब तो दरवाजा खोलो !

अब तो दरवाजा खोलो !

अनंत काल से

अनंत योनियों में
अनंत रूपों और
अनंत उमंगों से--
तुम्हें , तुम्हारे ही बनाए
रास्तों पर तलाश रहा हूँ।

अनंत आकाश के आच्छादन में
तुमने अपने रास्तों को
ऊँचे वृक्षों , रंग बिरंगे फूलों से सजाया है
तुम्हारी प्रकृति के
मायाचारी रंग मुझ अबोध को
बरबस लुभा लेते हैं , और
मैं विविधवर्णी रंगों में खो जाता हूँ।

तुम छिपे रहते हो,
तुम्हें ढूंढ़ नहीं पाता हूँ।
प्रेम करता हूँ प्रभु , तो
तुम बांसुरी बजाते हो।
अपनी थोथी जानकारियों के
ज्ञान को बघारता हूँ ,तो
तुम शंख बजाते हो।
उदास हो कर बैठ जाता हूँ , तो
आत्मीय बन कर्ण -कुहरों में
मधुर मदिर फुसफुसाते हो  ।
थक हार कर सो जाता हूँ ,तो
स्वप्न में आ मुझे जगाते हो।
बेहद तंग गलियों में घुमाते हो ,
प्रभु ,समझ नहीं आता --
प्रत्येक रास्ते पर तुम्हारा
दरवाजा महसूसता तो हूँ ,पर
द्वार दिखता नहीं है।


तुम्हीं बताओ कब तुम्हारे द्वार के
अदृश्य पट खुलेंगे ?
कब मुझे  मायाचारी प्रकृति के कुचक्र से
तुम मुक्त करोगे ?
कब अपनी लुका-छीपी का खेल
तुम ही खत्म करोगे?
कब मैं तुम्हें तलाश पाऊंगा ?
कब खोलोगे तुम कृपालु
अपना दरवाजा ?............. अरविन्द

शनिवार, 18 अक्तूबर 2014

अरविन्द वाणी

अरविन्द वाणी
तलवारों से नहीं जीती  जाती जंग मुहब्बत की
बोलना होगा हमें मुहब्बत महफूज़ रखने के लिए।
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हिसाब रखना समय का , दुआ का मुहब्बत में
उपकार जतलाना भी तो जख्म देने के बराबर है।
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झूठ बोलने की तुम्हारी आदत गयी नहीं
मनाते भी हो और वह भी झूठ बोल कर । ………… अरविन्द

कहाँ नहीं मैं हूँ !

कहाँ नहीं मैं हूँ !

उदित हो रही उषा की लालिमा में
दुकूल सी सरसराती बयार के स्पर्श रस में
चहकती चिड़ियों की पुलकित पुलक में
भोर के तारे की चमकती किरण में
रंभाती गाय और मासूम बछडे की आँखों में


कहाँ नहीं मैं हूँ !

भीगे केश झटकती तन्वी की उठी बाहों में
चरखा कातती बूढी की कमजोर निगाहों में
कंधे पर बालक बांधे पत्थर ढोती स्त्री की चाहों में
गली में खेल रहे बच्चों की किलकारियों में
माखन बिलोती नारी की चूड़ियों की झंकृति में
खांसते बूढ़े की हिलती ठठरी में

कहाँ नहीं मैं हूँ !

उपदेश सुन रहे ऊँघते समुदाय में
किसी प्रवाचक की रसभरी कथा में
कीर्तन में बज रहे झांझ तबले की तिरकन में
मस्जिद से आ रही ऊँची अजान में
हवन की मंत्रबिद्ध आहुतियों में
देवताओं की मूर्तियों की टिकी आँखों में
आरतियों के संगीत गीतों में

कहाँ नहीं मैं हूँ !

बहती हुई नदी में उछलती मछली में
नदी में नहाते रेशमी वपु की तरंग में
क ख ग रटते बच्चों की सामूहिक ध्वनि में
सडकों पर धकयाती भीड़ में
राशन के लिए लपकते हाथों में
रोटी के लिए तरसती आँखों में
कवियों की तर्कहीन बातों में
अध्यापकों की बेबजह बहसों में

कहाँ नहीं मैं हूँ !

माथे की बेंदी, चूड़ियों की छनछन और
पायल की रुनझुन में
आँखों के सुरमे और वेणी की थिरकन में
दरवाजे पर खड़ी मुस्कान में
अप्रासंगिक बुढापे की थकान में

कहाँ नहीं मैं हूँ !

टिकटी पर की मृत देह में
जन्म लेते शिशु के भीगे नेह में
बिगड़े हुए यौवन के विकृत गेह में
क्रान्ति के लिए तड़पते हिय में
असफलता से विकल प्राण देह में
सफल उल्लसित नेह स्नेह में

कहाँ नहीं मैं हूँ !

सब जगह तो मैं हूँ
इसमें उसमें तुममें सबमें तो मैं हूँ
कहाँ नहीं मैं हूँ ।........अरविन्द

रविवार, 12 अक्तूबर 2014

आजकल

भाव न देख सन्दर्भ देखते हैं
रस ध्वनि व्यंजना वृत्ति नहीं
अर्थ भावार्थ संयोजना नहीं
बस लोग हैं कविता उधेड़ते हैं।

हर वर्ष


पाजेब कंकण चूड़ियां करघनी छन छन छनकती
हर वर्ष उतरता  है  संगीत सीढ़ियां  मेरे घर की ।...अरविन्द

देख ली दुनिया

देख ली दुनिया बहुत ही घूम कर जटिल
झगड़ना तुझी से जी भर है बिगड़ना मुझे।

नचा नचा कर नाच बेहद थका दिया तुमने
कितने पर्दों में छिपा तू देखना अब है मुझे।

खत्म हुए तारे सभी ,चन्द्रमा भी बुझ गया
अब तो आ जा सामने या तड़पना है मुझे ।

ठंडी हवाओं में तू तो सुख से है सो रहा
इस झुलसती गर्मी में अभी जगना है मुझे।

कब तुम्हारे अंक हिमानी में आ मैं सिर धरूँ
कुछ तो कृपा करो प्रभु मेरे कि सोना है मुझे।

तुमने ही तो कहा था कि हाथ थामो जरा
जिंदगी के गीत को सुनना सुनाना है मुझे।

जीना मुश्किल कर दिया है निगोड़ी प्यास ने
प्यास जलती हुई देकर तुमने तड़पाना मुझे।

कब तलक मैं द्वार पर दीपक जला बैठा रहूँ
कितनी आरती स्तुतियाँ ,मनुहार करनी है मुझे। ………अरविन्द

तुमने तो कहा था

तुमने तो कहा था
मेरा हाथ पकड़ो ,आओ
तुम्हें अपनी बनायी सृष्टि में
घुमा कर लाता हूँ।

यहां कहाँ मौन बैठे तुम
अपने ही आत्म से
अकेले ही खेल रहे हो।

अशब्द शब्दों में रचे
मेरे संगीत को
सुनते हो ,विभोर हो रहे हो।

अद्वैत के आत्म -लोडित
स्व -विमोहित अंतर्लीन
निर्विकल्पिक शांत के
एकांतिक समाधि सुख को
अंतिम मान
स्वयं में ही आलोड़ित हो रहे हो।

तुमने ही कहा था --
द्वैत का सुख जानो।
पूर्णता के बिंदु से निकल
पूर्णता को पहचानो।
अपूर्णता की पगडण्डी के चारों ओर
उत्कीर्णित रचना में
कर्ता को जानो।

यहां अद्वै है।
तुम में मैं हूँ
मुझ में तुम लय है।
अभेदता के सागर में
आत्म -आलोड़न के अतिरिक्त
क्या है ?

बस !
मौन है ,स्तब्ध आनन्द का
निरीन्द्रिय प्रवाह है।
विकीर्णित पंच भूतों का
निरर्थक डाह है।
विसर्जित अहं की उत्सर्जित
आह है।

चलो ! आओ !
मेरा हाथ पकड़ो
मैं तुम्हें द्वैत दिखाता हूँ।
अहंकार के विविध वर्णी
गीत सुनाता हूँ।
पाँचों तत्वों के मिश्रण से
नए पुतले बनाता हूँ।
नहीं को हैं में परिवर्तित कर
चंचल मन को सजाता हूँ।
पुतले में कर्ता होने का भ्रम टिकाता हूँ।
मेरी प्रकृति में
वासना भण्डार है ,
उसमें ईर्ष्या ,द्वेष ,अज्ञान
पाखंड , भ्रम का ब्रह्म बिठाता हूँ।

चले आओ !
तुम्हें रचना के रस को
समझाता हूँ।

मैं तुम्हारी मदु मुस्कान
मदिर शब्दावली
उन्मुक्त उल्लास
स्नेहिल स्पर्श
प्रेमिल आत्मीयता
अविश्रांत विश्वास
अनन्य अनन्यता के
भुलावे में आ गया ।

तुमने रचना की माया में
मुझे विमोहित देख चुपके से
हाथ छुड़ा लिया ,
स्वयं को छिपा लिया।

अब तुम्हारी यह रचना
नीरस विरस है ,
और मेरी
आतुर पुकार है।

हे निर्दयी ! तुम कहाँ हो ?…………… अरविन्द

तुम्हारे भरोसे ही

प्रभु ।
दुर्विनीत दुर्वासनाओं का
अहंकार पूरित कामनाओं का
मन की चिरसंचित एषनाओं का
उद्दंड समुद्र मुझ में लहराता है।

विषैले सांप के समान
सिर उठा लेता हूँ
जब भी कोई आकर
अयाचित
पुकारता है।

कैसा मैं दिया है , जो
बेगाने साम्राज्य में
स्वयं को ही सम्राट मान
बेवजह इतराता है ?

तुम्हारी कृपा अद्भुत है
मेरी दुर्विनीत वासनाओं को
असीम कामनाओं को
तुम कठोर पिता से
नकार देते हो,
अदृश्य होते हुए भी
तुम मेरी बाहं पकड़ उठा लेते हो,
सांसारिक दलदल में गिरने से
बचा लेते हो।

दीखते नहीं पर
होने के आभास से
मुझे चमका देते हो, हैरान कर देते हो।

इतना ही प्रेम है, तो
यह भी बता दो प्रभु
क्यों इन एषनाओं की
विभीषिका में धकिया देते हो ?

तुम्हारे इस प्रेम के कारण ही
स्वतन्त्र और स्वछन्द होकर भी
मैं सीमा नहीं तोड़ पाटा हूँ।
तुम्हें जानता हूँ ,चाहता हूँ और
तुम पर इतराता हूँ।

तुम्हारे भरोसे ही
इस सागर में खूब
धमाचौकड़ी मचाता हूँ।........अरविन्द

कविता माँ है।

कविता माँ है।

रोना
चीखना
चिल्लाना
ताना मारना
दोष देना
सब संभाल लेती है।
कविता माँ ही तो है।

सुख
संवेदना
प्रेम प्यार
आत्मीयता
सहानुभूति
ख्याति और वीरता
श्रृंगार
उदारता से देती है।
दुःख हरती है।
कविता माँ है।

दुःख हो
दर्द हो
आह हो या
कराह हो
कष्ट और अवसाद हो
निराशा , घना बोध
अपराध हो
पश्चाताप का दाह हो
पौंछती है, संताप हरती है।
कविता माँ है।........अरविन्द

वाह रे, धर्मात्मा !

देह को नकार कर
ढूंढ़ रहे आत्मा ।
रास्ता गलत पकड़ लिया
वाह रे, धर्मात्मा !

प्रदर्शन जिसे प्रिय हो
वह आवरण ही जानता ।
लीलामय जगत जीवन
आनन्द केवल भासता ।

आँख करो बंद,सोचो
दृश्य लुप्त हो गया ,
भ्रम है,अज्ञान को
सत्य क्यों है मानता ?

देह सत्य, नष्ट होकर
देह भाव न नकारती ।
द्रव्य ही के कारण तो
उतर रही उसकी आरती ।

तत्व भिन्न भिन्न नहीं
अभेद तत्व एक है ।
रेशम के जीव ने स्वयं
ओढ़ी परत अनेक है।.....अरविन्द

अरविन्द क्षणिकाएँ

छत पर मेरे चाँद को देख चाँद शरमा गया
कौन है यह दूसरा जो मेरी जगह आ गया ।

झाँक रहा है चाँद चुपके से मेरी खिड़की में
मुस्कुरा रहा हूँ मैं अपने घर में चाँद रख के ।

चाँदनी लहराते हुए मेरी सीढियां उतर आई
साल बाद मन का भीगा आँगन मुस्काया है ।

पाजेब कंकण चूड़ियां करघनी छन छन छनकती
साल बाद उतरता है सीढियां संगीत मेरे घर की ।

कहने को तो बहुत कुछ है जो कह सकता हूँ
यह मेरा संकोच शर्म ही है जो कहने नहीं देती

भला हो डाक्टरों का जो दाँत नए लगा दिए
चिलगोजा बजाते थे हवा ही सरक जाती थी ।

कभी तो हमारे दर्द को पहचाना करो जालिम
साथ रहते सुइयां चुभोना अच्छी आदत नहीं।

मैं समुद्र की तरह तुम्हें अपने में समेट लूँगा।
नदी की तरह लहराते हुए तुम आओ तो सही।

नियति है संघर्ष तो कूद जा अकेले ही
भाग्य होगा तो हनुमान मिल ही जायेंगे।
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मत कर भरोसा किसी दूसरे की बाँह का
पहचान नहीं पाओगे आस्तीन कहाँ सांप कहाँ है।

कहाँ जाएँ किसे सुनाए हम दुखड़ाअपना
जिसे भी छूते हैं भरा फोड़ा ही मिलता है।

आदमी कुछ , कुछ कठपुतलियों से हैं
धागे कहीं ओर और नाच कहीं ओर हैं ।

बुराइयां भी पाल रखीं हैं अपने पींजरे में।
कबूतरों को भीतर रखो बाहर बाज बैठे हैं ।

जी चाहता है उतार दूँ कुछ चेहरों से नकाब।
रुक जाता हूँ सोच कर ये भी तो अपने ही हैं ।

उसने तो भेजा था तुम्हें पूरा आदमी बना कर ।
किसने तुम्हें हिन्दू, किसने मुसलमान बना दिया।....अरविन्द

शुक्रवार, 3 अक्तूबर 2014

बरसात ने आकर

बरसात ने आकर
मैदान में अकेले खड़े
रावण के कागजी पुतले को
भिगो दिया ।

वह प्रतीक्षा में है
अब अग्नि दाह
कोई कैसे करेगा।

इस कागजी रावण को भी
राम की प्रतीक्षा है ।
इसीलिए तो हर बर्ष
जलने के लिए
मैदान में आ धमकता है।

राम नहीं आ रहे
वे भी
अपने पुतलों को ही
भेज देते हैं ।

रावण भी राम की
प्रतीक्षा में है ।
राम भी संसार में
कहीं खो चुके
रामत्व को ढूंढ़ रहे हैं ।....अरविन्द

मुश्किल है

मुश्किल है तेरी गली में बार बार आना।
मुश्किल है तुम्हें देख वहां मेरा मुस्काना ।

हद तो समुद्र की भी होती होगी कही न कहीं।
मुश्किल है बेहद गहरे अनुभव को लांघ पाना।

वे शब्द भी दे दो जो तुम्हें बयाँ कर सकें ।
मुश्किल है भाषा की गरीबी को कह पाना।

बादलों की ओट से झांकना तेरी आदत है।
मुश्किल है मेरी तुम्हें जमीन से पकड़ पाना।

बहुत हैं ऐसे जो हरदम प्रेम को ही पुकारते हैं ।
तुम सामने होते हो नहीं कह पाता कह पाना।

एकांत में पुकारता हूँ झलक दिखा जाते हो ।
अच्छी नहीं है आदत तेरी यूँ छुपना छिपाना ।
..............अरविन्द...

क्यों नहीं दिखता

अपरूप से भरी दुनिया में रूप नहीं मिलता
दिल में छिपा है जो बाहर क्यों नहीं दिखता ?....अरविन्द

अपने मल्लाह के साथ

अपने मल्लाह के साथ
घूम रहा हूँ
उसके ही सागर में,
इस तनुत्र नौका में।

प्रवाह के मध्य
जहां धारा दुर्गम और दुर्दमनीय हो जाती है
मेरा मल्लाह मुस्कुराते हुए नाचता है,
लहराते हुए गाता है ।

मैं समझ नहीं पाता हूँ कि
मुझे डराता है
या कि मेरे डर को भगाता है ।
मैं समझ नहीं पाता हूँ ।

नदी की उफनती लहरें ।
मेरे इर्दगिर्द तैरते
नदी के विकराल जीव ।
गूंजती नदी की अनुगूँज ।
कभी दहकता सूरज ।
कभी दमकती चाँदनी ।
कभी तेज बहती हवा की
फुफकारती आवाज ।
कभी बादलों की गरजती
फुत्कार।

कभी आती उषा में
गाते पक्षी।
कभी उतरती संध्या में
झलकती विभावरी।

कुशल मल्लाह के साथ
मैं नौका में हूँ।
मैं नदी में हूँ ।
इसी मल्लाह ने मुझे
धारा के विपरीत रख
प्रवाह के प्रभाव को
निर्भय हो दिखाया है ।

आशंका ।
भय।
अपरिचित परिचय ।
दुबकता विश्वास ।
संकोची उल्लास।
और अस्फुट वाणी में
मैने करबद्ध प्रार्थना की ।

बच्चे की तरह पल्लू पकड़
किनारे पर जाने को कहा ।

मल्लाह ने सुना
मल्लाह मुस्कुराया और
दूर से उसने मुझे
सप्तरंगी किनारा दिखाया ।
मुझे स्निग्ध नयनों को कोरों से
भरमाया।
मैं अभी तक नदी में हूँ।.......अरविन्द

आओ ! बन्धु !!

आओ ! बन्धु !!
बार्ध्यक्य को उत्सव बनाएं।
नाती, पोते ,पोतियों संग खेलें
क्यों मुहं बिचकाए ?

अकेले होना , असंगी होना
बुरा नहीं ।

बुरा है अकारण
मुहं ढक कर सोने का
बहाना ।

बुरा है बेमतलब
उदास होना।
बुरा है मार खाई ततैया जैसे
झुंझलाना, पंख फडफडाना।
बुरा है शब्दों को
नीरस बनाना,
उन्हें कडवाहट में डुबोना।

बुरा है बार बार
रक्तचाप भांपना ।
हकीमों के यहाँ चक्कर लगाना।
सहानुभूति बटोरना।
दोष ढूंढना और
बहू-बेटियों पर
खीझ उतारना बुरा है।

बुढापा तो सौगात है
सौभाग्य का प्रभात है
अनुभवों के आनन्द की
धीमी बरसात है
मूर्खताओं को देख
मुस्कुराने की बात है।

निकालो अपने ही बनाए
खोल से बाहर निकलो ।
कुदरत की उठान को देखें
बाहर आये।

गजगामिनी , मधु भामिनी के
स्वनिर्मित सौन्दर्य
प्रकोष्ठ में जाएँ।
बीत गये यौवन की
मधुस्मृति में खो जाएँ।

कुसुमायुध के धनुष को
आवाहन की टंकार सुनाएँ।
सोये हुए शक्तिपुंज को
ललकारें,
झिंझोड़ कर जगाएं।
अपने वार्ध्यक्य का उत्सव मनाएं।

देह अशक्त है, हो।
मन की आसक्ति को बुलाएं।
जीवन का मूल
जिजीविषा है, उसे उदास हो
क्यों भगाएं ?

अंततोगत्वा तो जाना है
फिर अभी से क्यों
यम से संवाद को अकुलायें?
खाली बैठने की कला को
फिर से अपनाएं।
बीत गया संघर्ष सारा
अब नाचे गाएं, उल्लसित
उत्सव मनाएं।.
आओ !बन्धु !!
जीवन राग गुनगुनाएं ।...अरविन्द