शनिवार, 18 अक्टूबर 2014

कहाँ नहीं मैं हूँ !

कहाँ नहीं मैं हूँ !

उदित हो रही उषा की लालिमा में
दुकूल सी सरसराती बयार के स्पर्श रस में
चहकती चिड़ियों की पुलकित पुलक में
भोर के तारे की चमकती किरण में
रंभाती गाय और मासूम बछडे की आँखों में


कहाँ नहीं मैं हूँ !

भीगे केश झटकती तन्वी की उठी बाहों में
चरखा कातती बूढी की कमजोर निगाहों में
कंधे पर बालक बांधे पत्थर ढोती स्त्री की चाहों में
गली में खेल रहे बच्चों की किलकारियों में
माखन बिलोती नारी की चूड़ियों की झंकृति में
खांसते बूढ़े की हिलती ठठरी में

कहाँ नहीं मैं हूँ !

उपदेश सुन रहे ऊँघते समुदाय में
किसी प्रवाचक की रसभरी कथा में
कीर्तन में बज रहे झांझ तबले की तिरकन में
मस्जिद से आ रही ऊँची अजान में
हवन की मंत्रबिद्ध आहुतियों में
देवताओं की मूर्तियों की टिकी आँखों में
आरतियों के संगीत गीतों में

कहाँ नहीं मैं हूँ !

बहती हुई नदी में उछलती मछली में
नदी में नहाते रेशमी वपु की तरंग में
क ख ग रटते बच्चों की सामूहिक ध्वनि में
सडकों पर धकयाती भीड़ में
राशन के लिए लपकते हाथों में
रोटी के लिए तरसती आँखों में
कवियों की तर्कहीन बातों में
अध्यापकों की बेबजह बहसों में

कहाँ नहीं मैं हूँ !

माथे की बेंदी, चूड़ियों की छनछन और
पायल की रुनझुन में
आँखों के सुरमे और वेणी की थिरकन में
दरवाजे पर खड़ी मुस्कान में
अप्रासंगिक बुढापे की थकान में

कहाँ नहीं मैं हूँ !

टिकटी पर की मृत देह में
जन्म लेते शिशु के भीगे नेह में
बिगड़े हुए यौवन के विकृत गेह में
क्रान्ति के लिए तड़पते हिय में
असफलता से विकल प्राण देह में
सफल उल्लसित नेह स्नेह में

कहाँ नहीं मैं हूँ !

सब जगह तो मैं हूँ
इसमें उसमें तुममें सबमें तो मैं हूँ
कहाँ नहीं मैं हूँ ।........अरविन्द

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