रविवार, 12 अक्टूबर 2014

वाह रे, धर्मात्मा !

देह को नकार कर
ढूंढ़ रहे आत्मा ।
रास्ता गलत पकड़ लिया
वाह रे, धर्मात्मा !

प्रदर्शन जिसे प्रिय हो
वह आवरण ही जानता ।
लीलामय जगत जीवन
आनन्द केवल भासता ।

आँख करो बंद,सोचो
दृश्य लुप्त हो गया ,
भ्रम है,अज्ञान को
सत्य क्यों है मानता ?

देह सत्य, नष्ट होकर
देह भाव न नकारती ।
द्रव्य ही के कारण तो
उतर रही उसकी आरती ।

तत्व भिन्न भिन्न नहीं
अभेद तत्व एक है ।
रेशम के जीव ने स्वयं
ओढ़ी परत अनेक है।.....अरविन्द

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