हिन्दोस्तान में बच्चियों पर हो रहे जघन्य अत्याचारों के कारण विचारना आवश्यक हो गया है कि क्या
यह वही देश है ,जिसे ऋषियों ने संकल्पित किया था ? क्या इस देश के पास कभी कोई नैतिक मर्यादा थी भी या नहीं ?या कि यह देश अपने आरम्भ से ही दस्युओं और स्त्री पर अत्याचार करने वालों का एक संघठित गिरोह रहा है ? स्त्री की कोमलता ,माधुर्य ,सौन्दर्य ,कलात्मकता ,समर्पण ,सहजता ,शालीनता इत्यादि के सन्दर्भ में लिखे गीत केवल स्त्री को मूर्ख बनाने के लिए हैं या उसका शोषण करने का शब्द जाल है ?विचार करना होगा क्योंकि समाज में कोई भी बीमारी अथवा रूगणता ऊपर से नहीं टपकती है .
ईश्वरीय विश्वास हो या डार्विन का जीव -उत्पत्ति सिद्धांत , मानवीय अस्तित्व के आधार पर स्त्री -पुरुष दोनों ही समान शक्ति ,समान प्रतिभा ,समान अधिकार निसर्गत: प्राप्त करके अवतरित हुए हैं .प्रकृति ने कोई भेद नहीं किया बल्कि स्त्री को एक विशेषाधिकार देकर सम्मानित किया कि वह एकमात्र संतानोत्पादन का माध्यम है और यह प्राकृतिक है ,पुरुष प्रदत्त नहीं .
इसी एक कारण से स्त्री पुरुष की भोग्या मान ली गयी है . यदि गहरे विचार करें तो ज्ञातव्य हो कि भारतीय समाज में वैदिक युग के उपरान्त से ही स्त्री प्रताड़ित होती रही है .जिस ओर जानबूझ कर ध्यान नहीं दिया जा रहा है .त्रेता की रेणुका ने अपने पति महर्षि जमदग्नि तथा अपने पुत्रों से कोई प्रश्न नहीं पूछा .वह पूछ नहीं पाई होगी या पूछने का साहस अथवा अवसर नहीं जुटा पाई होगी ---पुराण मौन है . ऐसा ही कुछ ययाति की पुत्री माधवी के साथ हुआ होगा . उसने भी मौन रह कर अपना उत्सर्ग कर लिया .पुराण यहाँ भी मौन है . क्या सीता के प्रश्न अनुतरित नहीं हैं ? धरती में समा जाना क्या इस समाज की जड़ता और भोग -वृत्ति का परिचायक नहीं है ?द्वापर में द्रौपदी के मन में अपने पत्नीत्व को लिकर उठे प्रश्न क्या समाज की भोग -वृत्ति की ओर संकेत नहीं करते ? चीरहरण से पूर्व तथा पश्चात तत्कालीन समाज से किये प्रश्नों को अनुत्तरित नहीं कहा जा सकता ,किन्तु वे पूर्णतया शाश्वत ,सार्वभौमिक और सार्वकालिक ऊत्तर नहीं बन पाए .
महर्षि गौतम की पत्नी अहल्या की निष्प्राण प्रस्तर प्रतिमा युग युगों तक इंद्र के पाप का दंड क्यों भुगतती रही ?राम भी आये तो अनेक वर्षों बाद , न आये होते तो क्या यह समाज जिस छलना का वह शिकार हुई ,उसे स्वीकार करता ? जिस देश के देवता इतने क्रूर हों वहां स्त्री भोग्या नहीं होगी, तो क्या होगी ,गौतम ऋषि अगर शारीरिक शुचिता का इतना पक्षधर था तो क्यों नहीं उसने अपनी पत्नी की सुरक्षा के प्रयत्न किये ? किसी ने यह प्रश्न गौतम ऋषि से नहीं किये . क्या किसी ने अहल्या की मर्मान्तक वेदना को जानना चाहा ? नहीं . समर्थ होते हुए भी विश्वामित्र क्यों राम की प्रतीक्षा करते रहे ? पाषाण प्रतिमा में परिणत होते हुए क्या किसी ने अहल्या का पक्ष लिया ? नहीं ...पुराण यहाँ भी चुप है .
जालंधर की पत्नी वृंदा के साथ हुए अत्याचार को भगवान् की लीला कह देना --क्या इस देश की नस नस में बसी कामुकता को प्रकट नहीं करता ? हिन्दोस्तान का पौराणिक युग ,जो हमें दाय में मिला है ,रूग्ण मानसिकता का युग था .और किसी भी विचारक ने इस बीमारी को दूर करने का कोई ईमानदार प्रयास नहीं किया . मध्य काल तक आते आते यह रूग्णता इतनी बढ़ी कि संवेदन शून्य मनोवृत्ति ने गर्भ में ही बच्चियों को क़त्ल करना आरम्भ कर दिया .द्रौपदी के चीर हरण से लेकर दिल्ली के सामूहिक बलात्कार तक की अनेक घटनाएँ आज तक हो रही हैं . संतों और भक्तों की वाणी ने भी स्त्री पर कोई विशेष उपकार नहीं किया है .
दुःख होता है कि हमारे समाज -शास्त्री ,शिक्षा -शास्त्री ,नीति विचारक , मनस विद ,धर्म नेता अभी तक इस समस्या का समाधान ढूंढ़ने में गंभीरता से नहीं सोच रहे हैं . पितृ सत्तात्मक ,सामंतवादी आदि शब्द बहाने हैं , आत्यंतिक कारण नहीं हैं . अपना दुर्भाग्य देखिये ..आज तक हम स्वस्थ समाज और न्याय पूर्ण दर्शन का निर्माण नहीं कर पाए हैं ..............................अरविन्द