मंगलवार, 30 अप्रैल 2013

गज़ल

दर्दे -दिल की दुवा है गज़ल
गरीब की चुप आह है गज़ल
आप पत्थर भी मारोगे हमें 
समुद्र सी लहराएगी गज़ल .
मेरी मेरी मेरी कब तक करेंगे 
सिर्फ तेरी तेरीहै हमारी ग़जल .
हँसना रोना या कल्पना ही नहीं
अपने खोने की चाहत  है ग़जल .
बहकने की हमें कोई आदत नहीं
गिरतों का सहारा होती है गज़ल ......अरविन्द 

 

सोमवार, 29 अप्रैल 2013

पारम्परिक अपराध


        हिन्दोस्तान में बच्चियों पर हो रहे जघन्य अत्याचारों के कारण विचारना आवश्यक हो गया है कि क्या
यह वही देश है ,जिसे ऋषियों ने संकल्पित किया था ? क्या इस देश के पास कभी कोई नैतिक मर्यादा थी भी या नहीं ?या कि यह देश अपने आरम्भ से ही दस्युओं और स्त्री पर अत्याचार करने वालों का एक संघठित गिरोह रहा है ? स्त्री की कोमलता ,माधुर्य ,सौन्दर्य ,कलात्मकता ,समर्पण ,सहजता ,शालीनता इत्यादि के सन्दर्भ में लिखे गीत केवल स्त्री को मूर्ख बनाने के लिए हैं  या उसका शोषण करने का शब्द जाल है ?विचार करना होगा क्योंकि समाज में कोई भी बीमारी अथवा रूगणता ऊपर से नहीं टपकती है .
        ईश्वरीय विश्वास हो या डार्विन का जीव -उत्पत्ति सिद्धांत , मानवीय अस्तित्व के आधार पर स्त्री -पुरुष दोनों ही समान शक्ति ,समान प्रतिभा ,समान अधिकार निसर्गत: प्राप्त करके अवतरित हुए हैं .प्रकृति ने कोई भेद नहीं किया बल्कि स्त्री को एक विशेषाधिकार देकर सम्मानित किया कि वह एकमात्र संतानोत्पादन का माध्यम है और यह प्राकृतिक है ,पुरुष प्रदत्त नहीं .
          इसी एक कारण से स्त्री पुरुष की भोग्या मान ली गयी है . यदि गहरे विचार करें तो ज्ञातव्य हो कि भारतीय समाज में वैदिक युग के उपरान्त से ही स्त्री प्रताड़ित होती रही है .जिस ओर जानबूझ कर ध्यान नहीं दिया जा रहा है .त्रेता की रेणुका ने अपने पति महर्षि जमदग्नि तथा अपने पुत्रों से कोई प्रश्न नहीं पूछा .वह पूछ नहीं पाई होगी या पूछने का साहस अथवा अवसर नहीं जुटा पाई होगी ---पुराण मौन है . ऐसा ही कुछ ययाति की पुत्री माधवी के साथ हुआ होगा . उसने भी मौन रह कर अपना उत्सर्ग कर लिया .पुराण यहाँ भी मौन है . क्या सीता के प्रश्न अनुतरित नहीं हैं ? धरती में समा जाना क्या इस समाज की जड़ता और भोग -वृत्ति का परिचायक नहीं है ?द्वापर  में द्रौपदी के मन में अपने पत्नीत्व को लिकर उठे प्रश्न क्या समाज की भोग -वृत्ति की ओर संकेत नहीं करते ? चीरहरण से पूर्व तथा पश्चात तत्कालीन समाज से किये प्रश्नों को अनुत्तरित नहीं कहा जा सकता ,किन्तु वे पूर्णतया शाश्वत ,सार्वभौमिक और सार्वकालिक ऊत्तर नहीं बन पाए .
        महर्षि गौतम की पत्नी अहल्या की निष्प्राण प्रस्तर प्रतिमा युग युगों तक इंद्र के पाप का दंड क्यों भुगतती रही ?राम भी आये तो अनेक वर्षों बाद , न आये होते तो क्या यह समाज जिस छलना का वह शिकार हुई ,उसे स्वीकार करता ? जिस देश के देवता इतने क्रूर हों वहां स्त्री भोग्या नहीं होगी, तो क्या होगी ,गौतम ऋषि अगर शारीरिक शुचिता का इतना पक्षधर था तो क्यों नहीं उसने अपनी पत्नी की सुरक्षा के प्रयत्न किये ? किसी ने यह प्रश्न गौतम ऋषि से नहीं किये . क्या किसी ने अहल्या की मर्मान्तक वेदना को जानना चाहा ? नहीं . समर्थ होते हुए भी विश्वामित्र क्यों राम की प्रतीक्षा करते रहे ? पाषाण प्रतिमा में परिणत होते हुए क्या किसी ने अहल्या का पक्ष लिया ? नहीं ...पुराण यहाँ भी चुप है .
        जालंधर की पत्नी वृंदा के साथ हुए अत्याचार को भगवान् की लीला कह देना --क्या इस देश की नस नस में बसी कामुकता को प्रकट नहीं करता ? हिन्दोस्तान का पौराणिक युग ,जो हमें दाय में मिला है ,रूग्ण मानसिकता का युग था .और किसी भी विचारक ने इस बीमारी को दूर करने का कोई ईमानदार प्रयास नहीं किया . मध्य काल तक आते आते यह रूग्णता इतनी बढ़ी कि संवेदन शून्य मनोवृत्ति ने गर्भ में ही बच्चियों को क़त्ल करना आरम्भ कर दिया .द्रौपदी के चीर हरण से लेकर दिल्ली के सामूहिक बलात्कार तक की अनेक घटनाएँ आज तक हो रही हैं . संतों और भक्तों की वाणी ने भी स्त्री पर कोई विशेष उपकार नहीं किया है .
        दुःख होता है कि हमारे समाज -शास्त्री ,शिक्षा -शास्त्री ,नीति विचारक , मनस विद ,धर्म नेता अभी तक इस समस्या का समाधान ढूंढ़ने में गंभीरता से नहीं सोच रहे हैं  . पितृ सत्तात्मक ,सामंतवादी  आदि शब्द बहाने हैं , आत्यंतिक कारण नहीं हैं . अपना दुर्भाग्य देखिये ..आज तक हम स्वस्थ समाज और न्याय पूर्ण दर्शन का निर्माण नहीं कर पाए हैं ..............................अरविन्द





शनिवार, 27 अप्रैल 2013

न चाहते हुए भी

सुनो !
हमने इन पहाड़ों की 
आकाश चूमने को लालायित
 चोटियों और गहरी तलहटियों में बिछी 
मखमली नदियों की तरलता में
 थोडा सा जी लिया है .
नारंगी संतरों की क्यारियों में
 नाचते हुए यौवन के 
मदमाते गीतों का 
रस भी पी लिया है .
.किन्नरों की भूमि में
 तारिकाओं से लिपटी रजनी के साथ --
 
उतरती परियों के सौन्दर्य को सँजो लिया है..
 ..नहीं सहेज पाए ,
तो पत्थर नहीं सहेजे हैं ,
उन्हें
 पहाड़ी बच्चों के 
खेलने के लिए छोड़ दिया है
 
बहुत कुछ बहुमूल्य समेट लिया है .
 
समेट लिया है हमने
 एक टुकड़ा भीगा आसमान
 विरह में बरसता एक बादल 
सुरीली चाँदनी रात में 
निर्वसना ठिठुरती सांवली शाम.
उगती हुई सुबह की लालिमा में
 चहचहाती चिड़ियों की चुनचुन
 घने लम्बे देवदारुओं की
 फैली भुजाओं से झरता सकून .
धरती पर नाचते ,गर्दन हिलाते
 लहराती हवा संग बतियाते 
रंग बिरंगी तितिलियों को ललचाते
 बहु वर्णी नन्हे फूल .
सब सहेज लिए हैं .
 
पैरों से सिर खुजलाती ,
व्यस्त गिलहरियों की मासूम आँखें .
साँप सी सरकती ,बलखाती
 निश्चिन्त सड़क का समर्पण .
ऊँचाई से नीचे गिरते --झरनों का शोर 
.पानी में छप -छप किलकारियाँ मारते
 बच्चों के उन्मुक्त ठहाके .
झुकी कमर ले चल रहे 
बूढी आँखों की बदहवासी .
सब समेट ली है .
 
न चाहते हुए भी लोटना पड़ रहा है
 उसी धुंधुआती नगरी में .
जहाँ दूसरों के कंधों पर
 सीढ़ियाँ लगाए शिकारियो की भीड़ है.
 
नृशंस आँखों के आतंक तले
मासूम बेबसी की चीख है .
गरीब की रोटी झपटने को
ललचाती लोमड़ियों की सीख है .
एकाक्षी कौओं की ,जहाँ
बेसुरी कांव कांव की रीत है .
उल्लुयों की लम्बी पांत और
भेड़िया धसान की नीति है .
न चाहते हुए भी लौटना पड़ रहा है .
व्यर्थता के अभिशाप से
मुक्त होने के लिए जहाँ
टुकड़ा टुकड़ा सुख तलाशते
भयभीत चित्त की
भित्ति है .
संदिग्ध आचरण की चादर में
लिपटे ,अंधे उपदेशकों की
भ्रम पूर्ण वाणी के
जंजाल में उलझी
अतृप्त आत्माओं की रीति है .
न चाहते हुए भी लौटना पड़ रहा है .........अरविन्द

गुरुवार, 25 अप्रैल 2013

चलो चलें

तुमने कहा -"चलो चलें
ले आयें थोड़ी सी गुनगुनी धूप
थोडा सा दरख्तों का साया .
चीड़ की डाली पर लटकता चाँद .
या फिर तारों की मखमली चादर .
एक टुकड़ा जंगली पगडण्डी का .
या दूर तक फैली हरियाली .
रात की स्याही का काजल .
या टेढ़ा सा चाँद का कंगन .
तेरी आँखों की झील सी ठंडक .
या तेरी बाहों सा हसीन मौसम ---चलो चलें .
तेरी मेरी तपन की तड़पन को
मन की अंधियाली भटकन को
जगती से मिले संघर्षों के घर्षण को
बेगानी भीड़ में गुम हुए अपनेपन को
सुबह -शाम के सन्ध्या तर्पण को -
विश्राम दें ...चलो चलें .
पगडंडियों से रहित गहरी
जहाँ तलहटीयां हों .
उछल कूद करती पहाड़ी तन्वी सी
जहाँ नदियाँ हों .
अनजाने अचीन्हे वृक्षों की
जहाँ तरल सरल छईयां हो .
या बेले के फूलों की झुरमुट भरी
गलबहियाँ हों .
जहाँ कुदरत ने हमारे लिए
एकान्तिक आँगन रचे ....चलो चलें .
मुक्त हों आकाश से हम
न रहे कोई मर्यादा .
स्वत: तंत्र जीवन हो
चमके स्वयम्भू निर्बाधा .
बहुत देख लिए अब तक
जग के सब धंधे बंधे ये
चलो चलें निभृत एकांत में
किसी बेपरवाह परिंदे से ........अरविन्द 

रविवार, 21 अप्रैल 2013

मन को फकीराना करो

वक्त नहीं, मन को फकीराना करो 
खिड़कियाँ की दरारों से मत झांको
खोलो दरवाजा ,अपने को पहचाना करो .
न रिंद ,न मयखाना ,न विराना कुछ नहीं
गर्दन झुका कर झांको ,मत बेगाना करो .
हम तो तुम्हें ढूंढ़ ही लेंगे ,जानेमन -
महताब का नाम लेकर हमें मत बेगाना करो .....अरविन्द 

बुधवार, 17 अप्रैल 2013

हरि ॐ तत् सत्

         हरि ॐ तत् सत्
बाह्य रूप पुष्पित पल्वित 
भीतर सब शून्य असत्
हरि ॐ तत् सत् .

मृगतृष्णा में दौड़ते 
गिरते पड़ते त्रस्त 
नहीं ढूंढ़ पाए कोई 
जग का आदि सत्य .
हरि ॐ तत् सत्।

उगता सूरज देख कर 
दीपक दिया बुझा .
जिज्ञासा जीव की, नहीं 
करती प्रकाश की चाह .
भ्रम के झूले झूलता 
हो गया राम सत् .
हरि ॐ तत् सत् .

राम राम रटते हुए 
जीवन हुआ व्यतीत 
भव जाल में उलझ गया 
मेरा अन्तर मीत .
न मिल पाया राम को 
न पूर्ण हुआ काम .
अब जागे से क्या भया 
जब फिसल गया सब तत .
हरि ॐ तत् सत् .

विकारी यह संसार है 
नित रचता नव -नव रूप .
इच्छाओं की भीड़ में -
खो गया भूप अरूप .
अंधी सारी कामना 
अंधी सारी प्यास .
कुंभ -जल कैसे टिके 
जिसमें छिद्र हजार .
ऐसा ही यह जगत है 
ऐसी देह की लत .
हरि ॐ तत् सत् .

दौड़ दौड़ सब कर रहे 
कर्म ,क्रिया ,व्यवहार .
मिथ्या भव ,सच किसे प्रिय 
मिथ्या जगदाचार .
नश्वर सब उपलब्धियां 
अहंकार की हेतु -
मिथ्या जग के मर्म सब 
मिथ्या धर्म के केतु .
यही तो विडम्बना 
हम असत् मानते सत् .
हरि ॐ तत् सत् .

भव सागर के वक्ष पर 
नर्तत बूंद अपार .
बूंद बूंद का नाद यहाँ 
बूंद बूंद का घर्ष .
बूंद बूंद का भक्षण करे 
बूंद क्षुधा दुर्धर्ष .
बूंद बूंद ने रच लिया 
बिंद बिंद संसार .
सागर सुख के लिए -
दर्शन रचे अपार .
खंडन -मंडन निरत सब 
थोथा ज्ञान -विस्तार .
कब समझेंगें हम ,प्रभु 
सब क्रीडामय संसार 
लीला का यह जगत है 
लीला का प्रसार .
पूर्ण सत् में खेल रहा 
बूंद बूंद का सत् .
हरि ॐ तत् सत् !!..........अरविन्द 





सोमवार, 15 अप्रैल 2013

कवि श्री सूद साहिब की कविता होठों में गुलाब ....पर

कवि श्री सूद साहिब की कविता होठों में गुलाब ....पर
कौन सी कामानना ,कामायनी ,कमनीय काया --
कामिनी की  कामना ने कान्त -मन कैसे मनाया .
काम ने आ कान में आ कुनमुना करके कुनन्मुन
कौन से किन कामना के काननों में जा बसाया ..

शुक्रवार, 12 अप्रैल 2013

हम

हम शब्दों में अर्थ नहीं आकृतियाँ तलाशते हैं
अपनी छोटी खिडकियों से संबंधों में झांकते हैं .
आदमी आदमी नहीं रहा बस माँस का पुतला है
पाखंडी नैतिकता से आदमीपने को आंकते हैं ....अरविन्द

दूसरी कविता

               2
मन रे ! सूफी भव !!
नाच  अपने उस के लिए
जिसने दिया तुम्हें यह जग .
मन रे !सूफी भव !!

कर्म अपने देख ,किस कारण
किया उस सर्वांग सुंदर ने
तुम्हें अपने से अलग .
मन रे ! सूफी भव !!

लाख जप कर ,लाख तप कर
लाख रगड़ माथे .
लाख हठ कर ,लाख व्रत कर
लाख योग साधे .
प्रेम बिना कैसे मिले वह ,
जिसे तू आराधे .
वह तुम्हारी कल्पना
या जल्पना तेरी .
आत्मा का लिंग ही
परम प्रेमा भव .
मन रे ! सूफी भव !!

प्रेम में नहीं कर्म कोई
प्रेम अकर्ता भाव है .
प्रेम पूर्ण काम का
सर्वांग सुंदर श्रृंगार है .
प्रेम ने सृष्टि रची
सब प्रेम का विस्तार है .
क्यों न कहें हम उसे
वह प्रेम का आगार है .
प्रेम से सब कर समर्पित
तत्व दस तू हे सुभग .
मन रे ! सूफी भव !!

ले लगा अब लौ
जो दिखता भी है नहीं .
अदृश्य सत्ता स्वयंप्रकाशित
रूप प्रेयसी क्यों नहीं ?
पुरुष होकर पुरुष को
कैसे रिझा पायेगा तू
पत्थरों के संग कब तक
 प्रीत  रख पायेगा तू ?
प्रभु श्रेय प्रेय सी कोमलांगी
श्यामलांगी सनातनी
श्वेताभा ,अभ्रमा ,दिग्वसना श्यामा
निरभ्र कोमल कान्ति .
निर्भ्रान्त होकर स्व को टिका
तव सुकोमल अंक में .
सुख ,शांति सौन्दर्य का
वही तो है एक घर .
मन रे ! सूफी भव !!

कब तक भटकता भ्रमित हो
तीर्थाटन तू करे ?
अतृप्त कोमल वासना से
मुहर्मुह जन्मे और मरे?
कब तक देह के इस दंड को
भोगेगी तेरी आत्मा ?
मुक्त हो इस पींजरे से
हे व्याकुल परमात्मा !.
वह प्रतीक्षा में तुम्हारी
रात दिन है जागता
वह तुम्हारी विरह में
अहर्निश तुम्हें पुकारता .
कब सुनेगा उस परम का
आर्त राग ,हे जड़ -
मन रे !सूफी भव !!

वह लुभाये है तुम्हें
इन बादलों की आभ  में
मेह के संगीत में
बिजलियो के राग में
गरजते इस अम्बुधि की
छलछलाती  आग में .
अब तो उस पार निहार
जड़ भरत .
मन रे ! सूफी भव ! सूफी भव !!.....अरविन्द 

 

गुरुवार, 11 अप्रैल 2013

सूफी भाव : दो कविताएँ

                 1
क्यों न तुझे फिर से सजाऊँ .

आकाश की थाली में चमकते
पूर्णिमा के चाँद को
उतार कर
तेरे माथे पर बिंदिया की तरह
लगाऊं .
क्यों न तुझे फिर से सजाऊं .

सप्त ऋषियों की मंडली को
अपने तप की तार में -
सहेज कर ,
तेरी मांग झिल्मिलाऊं .
क्यों न तुझे फिर से सजाऊं .

ध्रुव अकेला एकटक
झांकता रहता है आकाश में
उसे पकडूँ और
तेरी नासिका में बेसर पहनाऊ .
क्यों न तुझे फिर से सजाऊं .

उतार फैंको इन लौकिक
बुंदों को अपने
लम्बे पतले कानों से
चौथ के चाँद को
दो खण्डों में बांटूं
तेरे कानों के झुमके सजाऊं .
दुनिया को चौथ के चाँद की दीठ से बचाऊँ .

आकाश गंगा में अकारण
तैरते असंख्य अज्ञात तारे सितारे
कहो तो सही !
चुन चुन कर इन्हें
तेरे कलकंठ का हार बनाऊं .
तुम्हें फिर से सजाऊँ .

खामखाह ये राशियाँ
आकाश में हैं नाचती
इनके झपट लूँ चिन्ह
करघनी बनाऊं
तेरी केहरि कटि पर झुलाऊं .
क्यों न तुझे फिर से सजाऊं .

क्यों चिंता करती हो ,हे गौरी
करघनी में न वृश्चिक , न  कर्क होगी .
इन दोनों के  बिछुए बनाऊंगा

तेरे युग पाद -पद्म की उँगलियों में
चमकते दो अर्क सजाऊंगा .

लाऊंगा मांग गंगा से उसकी
सौम्य चंचलता को
मांगूंगा मैं यमुना से
उसकी श्यामल मंजुलता को
दोनों की पायल ,हे सखी
तेरे युग पाद में पहनाऊंगा .
बार बार तुम्हें फिर फिर सजाऊंगा .......अरविन्द 


मंगलवार, 9 अप्रैल 2013

कविता कोई थानेदार नहीं

कविता कोई थानेदार नहीं 
कविता कान्तासम्मित उपदेश है .
कविता कोई चाबुक नहीं
क्रांति का भावुक मुक्त  सन्देश है .
कविता कोई खिझी दुखी अध्यापिका नहीं .
मुस्कुराती कामायनी प्रिया का गीत है .
कविता ,मंच पर सजे संवरे बैठे
किसी लफ्फाजी साधू का --
श्रोताओं को प्रसन्न करने का
प्रवचन नहीं .
अनुभवसिद्ध मन का सत्य प्रकाश मीत है.
 कविता को केवल शब्द जाल समझाने वाले सुनो .
कविता भोगे गए दारुण दर्द की
आत्मगत चीख है .
धरती की पर्त को धकेल .
कोंपल का रूप लिए प्रकटी
दबे हुए बीज के संघर्ष की
प्यारी सी रीत है .
कोमल कांता के मृदुल अंक में
मुहं छिपाए प्रिय की
मधुर प्रीत है .
बलिदान के लिए निकले
युद्ध वीर का --
कविता उच्च गीत है ...अरविन्द 



बुधवार, 3 अप्रैल 2013

प्रभु ,अब क्यों मौन भये हो .

प्रभु ,अब क्यों मौन भये हो .

कहाँ गया संगीत मनोहर
कहाँ गयी सुरमयी तानें
कहाँ गयीं मनभावन बातें
कहाँ गयीं मधु मुस्कानें .
कहाँ छिपाया सुंदर आनन
अक्षय यौवन मधुरता में .
मैत्री भाव कहाँ है फेंका
कहाँ गयी मधु दृष्टि बन्नें .
न कालिंदी कूल मिले तुम
न सरयू सुंदर साकेत में
न जंगल में पाया तुमको
न पर्वत की प्यारी ओट में .

कदम्ब खड़ा तुम्हें पुकारे
तुलसी वन भी पुकारता .
बर्फीली घाटी में धाया -
शुभ्र नंदी अभी है जागता .
लगता है पछतावे में तुम -
अपने ही जग से भाग गए .
प्रभु अब क्यों मौन भये .

बहुतक मीठी बातें की थीं
बहुतक मुझे रिझाया था .
सुख की मृगतृष्णा में तूने
बहुतक मुझे फँसाया था .
तुमने कहा जगती सुंदर है
जा ,घूमो फिरो यायावर से
भोक्ता बनो जगआनन्द का
रूप ,शब्द ,रस सागर से .

तुम लहराते कहा करते थे --
जगती तुम्हारी प्रतिकृति है
प्रकृति तुम्हारी प्रतिकृति है
पहचानो इसे जग में जाकर
निकलो बाहर अक्षर ब्रह्म से .
बाहर आया बाहर न पाया
भीतर कहाँ छिपे हो तुम ?
अपने ही तुम अंश से भागे
कैसे पुरुष पुरातन  तुम ?
अंश सभी तो खेल रहे हैं
जाकर  तुम सो गए हो ?
प्रभु अब क्यों मौन भये हो .

हमने तेरी प्रतिकृति देखी
प्रकृति बहुत ही सुंदर है  .
सुंदर तेरी रचना सारी
 आकाश धरा सब सुंदर है
सुंदर पेड़  फूल पौधे हैं सुंदर 
पशु पक्षी सुंदर न्यारे हैं .
सुंदर बहता शीतल जल ये
सुंदर नदी झरने प्यारे हैं .


पर प्यारे ,तुमसे सुंदर --
नहीं प्रकृति सारी है
तुम सुंदर सुखद सनातन
प्रकृति मिथ्या मायाचारी है
दौड़ दौड़ कर खेल देख लिया
दौड़ दौड़ कर घर गृहस्थी
दौड़ दौड़ कर देह तपी यह
दौड़ दौड़ निकली अस्थि .
अब यह दौड़ तुम्हारे तक है
तुम बैठे क्यों मुहं छिपाए हो .
प्रभु अब क्यों मौन भये हो ........अरविन्द 











सोमवार, 1 अप्रैल 2013

विश्वामित्र उवाच

विश्वामित्र उवाच

देखा नहीं ,मन बस गई हो
कल्पना में सु रच गई हो .
उरु स्तम्भ बनाता रहता हूँ .
कटि किंकिणी सजाता रहता हूँ .
चन्द्रिका लौंग लगाता हूँ
पग पायल बांधता रहता हूँ .
तुम बिलकुल अपनी लगाती हो
मल्लिका उर्वशी लगती हो .
मैं कौन देवता हूँ प्रिये !
नित जिसे टेरती रहती हो .

यह विश्वामित्र द्विजन्मा है
साधना मौन निमग्ना है .
सर जटाजूट है फैल चुका .
भव बंधन सारे फैंक चुका .
अपने एकांत का भोगी हूँ
योगभ्रष्ट कोई योगी हूँ .
तपस्वी मन भा गई हो
छोड़ स्वर्ग को आ गई हो .
मैं गूँथ रहा तव बेनी प्रिये .
चंपा ,मालती कुंकुम से
चन्दन चर्चित तव भाल करूँ ?
चूमूँ गाल गुलाल करूँ।
कर्ण कुहर का चम्पक से
चाहूँ तव श्रृंगार करूँ .
अपनी लम्बी भुज बल्ली से
तेरे सुकंठ का हार बनूँ .
कौन अलक्तक से प्रियतम
तेरे पद पद्म श्रृंगार करूँ ?
लिपट गई तुम निर्मल मन से
परुष पुरुष के तन से
जैसे वाट वृक्ष से बेल कोई
लिपटी हो पूर्ण सुगंधमयी .
वक्ष नहीं श्रीफल सुंदर
विभूतिरत विमल मंदिर .
मृसन कोमल दिव्य सुघर .
रख दूँ ललाट पयोधर पर .

जब स्वर्ग उतर ही आया है
अद्भुत प्रभु प्रसाद को पाया है .
प्रभु कहीं दौड़ नहीं पायेगा
भूति रस नहीं छोड़ा जाएगा .
फिर और जन्म मिले न मिले
मैं डूबूँ चाहे नरक तले
पर तुम्हें स्वर्ग ले जाऊँगा
नित नई कला सिखाऊंगा .

मूर्खों के लिए अनंग गर्हित
ऋषियों के लिए दिव्य अमृत .
अब साधना संग तेरे होगी .
त्रिकुटी भंग अभंग होगी .

तुम कहो ,तुम्हारी क्या मंशा
आओ ! बनो अंशी अंशा .
छोड़ो नभ की बदली को
उतरो नवल किरणमयी हो .
खुजराहो नई रचेंगे हम
जीवन -मुक्त रहेंगे हम .

मैं प्रथम पुरुष अवतरित हूँ
तुम आदि नारी का रूप सखे .
जब सोई सितार को छेड़ दिया
अब सुनो नित नया संगीत सखे ...

चाँदनी

चाँदनी
चाँदनी कब चाँद से अलग होती है .
सदा उसके भुजपाश में आबद्ध होती है .
चाँदनी को देखना चाहो ,
तो करो आकाश सी आँखें ,
छोटे से दीये की लौ से -
चाँदनी आंकी नहीं जाती है .
चाँदनी विराट है
आकाश की तरह
चाँद से ही चाँदनी जन्म पाती है .
देखना चाहो चाँदनी को
तो खोल दो खिड़कियाँ और
पूर्वाग्रही दरवाजे
चाँदनी उचक कर आँगन में
झाँक जाती है .
उन्मुक्त आकाश में
निरावरण जब तैर जाओगे
चाँदनी के परस में नहा जाओगे ,
लहरा जाओगे .
चाँदनी जीवन्तता है ,
चाँदनी विद्रोह है .
चाँदनी निर्भ्रान्ति ,बोध का स्व है .
मत मुंदी आँखों से चाँदनी तलाशो .
खोल दो सब खिड़कियाँ
फिर आकाश में झांको .............अरविन्द