सोमवार, 1 अप्रैल 2013

विश्वामित्र उवाच

विश्वामित्र उवाच

देखा नहीं ,मन बस गई हो
कल्पना में सु रच गई हो .
उरु स्तम्भ बनाता रहता हूँ .
कटि किंकिणी सजाता रहता हूँ .
चन्द्रिका लौंग लगाता हूँ
पग पायल बांधता रहता हूँ .
तुम बिलकुल अपनी लगाती हो
मल्लिका उर्वशी लगती हो .
मैं कौन देवता हूँ प्रिये !
नित जिसे टेरती रहती हो .

यह विश्वामित्र द्विजन्मा है
साधना मौन निमग्ना है .
सर जटाजूट है फैल चुका .
भव बंधन सारे फैंक चुका .
अपने एकांत का भोगी हूँ
योगभ्रष्ट कोई योगी हूँ .
तपस्वी मन भा गई हो
छोड़ स्वर्ग को आ गई हो .
मैं गूँथ रहा तव बेनी प्रिये .
चंपा ,मालती कुंकुम से
चन्दन चर्चित तव भाल करूँ ?
चूमूँ गाल गुलाल करूँ।
कर्ण कुहर का चम्पक से
चाहूँ तव श्रृंगार करूँ .
अपनी लम्बी भुज बल्ली से
तेरे सुकंठ का हार बनूँ .
कौन अलक्तक से प्रियतम
तेरे पद पद्म श्रृंगार करूँ ?
लिपट गई तुम निर्मल मन से
परुष पुरुष के तन से
जैसे वाट वृक्ष से बेल कोई
लिपटी हो पूर्ण सुगंधमयी .
वक्ष नहीं श्रीफल सुंदर
विभूतिरत विमल मंदिर .
मृसन कोमल दिव्य सुघर .
रख दूँ ललाट पयोधर पर .

जब स्वर्ग उतर ही आया है
अद्भुत प्रभु प्रसाद को पाया है .
प्रभु कहीं दौड़ नहीं पायेगा
भूति रस नहीं छोड़ा जाएगा .
फिर और जन्म मिले न मिले
मैं डूबूँ चाहे नरक तले
पर तुम्हें स्वर्ग ले जाऊँगा
नित नई कला सिखाऊंगा .

मूर्खों के लिए अनंग गर्हित
ऋषियों के लिए दिव्य अमृत .
अब साधना संग तेरे होगी .
त्रिकुटी भंग अभंग होगी .

तुम कहो ,तुम्हारी क्या मंशा
आओ ! बनो अंशी अंशा .
छोड़ो नभ की बदली को
उतरो नवल किरणमयी हो .
खुजराहो नई रचेंगे हम
जीवन -मुक्त रहेंगे हम .

मैं प्रथम पुरुष अवतरित हूँ
तुम आदि नारी का रूप सखे .
जब सोई सितार को छेड़ दिया
अब सुनो नित नया संगीत सखे ...

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