रविवार, 29 जून 2014

अरविन्द दोहे

लीलामय यह जगत है ,लीलामय ब्रह्म ।
लीला तत्व न जानहिं ,दुखित आत्मानंद।
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ज्ञानी जन का मौन ही  ,अज्ञानी कोउ ताप .
खुले नयन न दीखे वह  , ढूंढन को संताप ।
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दुनिया सारी बहुमुखी ,दिनराती ले न चैन।
न खुद जीवे न जीवन दये ,बेमतलब के बैन।
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जग को परखो जांच लो ,तनिक न आवै हाथ ।
पंच तत्व सब शून्य है , धरती हो आकाश ।
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ज्ञानी सारे कहा करें ,भीतर आँखें खोल।
भीतर तो सब अंध है ,यही ढोल का पोल।
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सब जग जाना जाँच लिया ,इच्छा का है खेल ।
पंचभूत खुद रचत रहे, सत रज तमस हू मेल ।
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रमण किया जगती मिली ,मिला नहीं वह राम ।
मायापति  का  जगत  है ,माया  में  घनश्याम ।
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सत्य सत्य सब कहत हैं ,सत्य बता न पाहीं।
शब्दाडम्बर जाल में ,लोकन  को  भरमाहिं।
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मनुआ तू तो भटक कर,  बहुतक हुआ बेहाल .
मंदिर मस्जिद छोड़ सब ,अपन मूल संभाल । .......... अरविन्द दोहे

शनिवार, 28 जून 2014

अद्भुतानि तक्कयं

ममत्वं घनत्वं विपुल बाल तक्कयं
सुवक्षं विशालं चिबुक भाल लक्खयं।
सुब्रीड़म सुक्रीडं बहु लाल तक्कयं
वामा विशालं सुदक्ष नार तक्कयं।
चिकुरं उडंति अनाञ्चलम् लक्खयं
सुनारी प्यारी बहु  वर्णानि पश्यं।
बहु भीड़ भारी हि  हाटकानि मध्यम 
धक्का न मुक्की न टिच्चरं ही लभ्यं ।
तन्वानि सारी तत्र नव फैशन  मंझारी
चौकानी मध्यम सुचुम्बितानि पश्यं।
अहो लोक लोकानि अद्भुतानि तक्कयं
सर्वाणि अत्राणि स्वचित्त लोक रम्यम्।
मंदानि हास्यानि मिस्कानी करंतम्
सर्वाणि लोकानि स्वकर्माणि निरतम्।
न ईर्ष्याणि न द्वेषानि न हेड़ा अवलोक्यं
सुसभ्यम् अपरिचिताणि इहानि लभ्यम्।
हैलो हलानि  मुस्काती थंकुआनी सर्वम्
अहो लोक लोकनि अद्भुतानि तक्कयं। …………… अरविन्द


अरविन्द -दोहे

             अरविन्द -दोहे
अपने घर से निकल कर , बाहर आकर  देख ।
दुनिया बैठी चाँद पर ,तू लिखे मिट्टी के लेख । ।
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भरम सदा मुखरित रहे ,सत्य सदा ही मौन।
मृगतृष्णा के जगत में दूर मुक्ति का भौन। ।
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अहंकार मय जीव यह ,आत्मप्रवंचन लीन ।
तलफत फिरे जगत में ,ज्यों कांटे में मीन । ।
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आगत विगत सु गत हुआ ,गत गत मांहि समाय।
सुगत कहीं आकाश में ,ठिठुरत सा  मुस्काय । ।
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मन बालक या जगत में ,सपने माहिं मुस्कात ।
जगत पींजरा सुवर्ण का ,इच्छा फंद लगात। ।
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बहुभाषी यह संसार ,कांव कांव ही कांव।
जिसे केकी पिक हो प्रिय ,नहीं इहां ठाँव। ।
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नवजात शिशु माँ अंक में ,सोवत है मुस्काय।
माया के इस जगत में ,ज्यों ब्रह्म खड़ा लुभाय। ।
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परमात्मा  को जगत में ,ढूंढत जग बौराय।
पुष्पित प्रति प्रसून में ,परमात्मा मुस्काय। ।
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आत्म तत्व को लखे नहीं ,देह देह भरमात ।
उलटा कीर लटकत फिरे ,प्रेम प्यार रटात। ।
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बहुप्रपंची ये  पींजरा ,तामें पंछी जीव।
अहंकार भ्रम को रचे ,अंतर न दीखे पीव । ।
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भाँति भाँति के रूप रंग ,भाँति भांति के जीव।
वसन कहीं ऊपर धरा,अर्ध अनावृत  शरीर । । ............. अरविन्द

          

गुरुवार, 26 जून 2014

आदमी का मन !

आदमी का मन !
                    जैसे उनचास पवन
                    गुंजरित जलतरंग
                     अशब्द शब्द भाष
                    सत्य का संलाप
                     इष्ट चित्त मग्न।
आदमी का मन !
                    संवाद विसंवाद
                     तुरही का नाद
                     अविश्रांत अश्रांत
                     क्लांत कभी शांत
                     मछली की छपाक्
                     उज्ज्वल प्रभात
                     मस्ती का उन्माद
                     जैसे उमड़ता गगन।
आदमी का मन !
                     सागर की है घुमडन
                      कोमल पांख सी छुअन
                     निरभ्र नील आकाश
                     उल्लसित प्रकाश
                     अकेला तपन
                     नीलकंठ मग्न
                     ज्ञान की है रात
                     अहं अनुताप
                     उपदेशक की बात
                     संत -असंत सगण।
आदमी का मन !
                    पाताल की ले थाह
                     असीम का उछाह
                    बाल चापल हास
                     उमड़ता विलास
                     स्वप्निल सी आस
                    कोई शापित उच्छ्वास
                    पीपल की बाहँ
                     प्रिया की छाहँ
                     उछलती उमंग
                     जैसे बजता मृदंग।
आदमी का मन !
                    प्रभु सा सहर्ष
                    चाहे उत्कर्ष
                     अज्ञात की परछाई
                    उलझा सा हरजाई
                    अनुरक्ति में भक्ति
                    कामना आसक्ति
                    विरक्ति का कूल
                    विगत नहीं शूल
                    अनुकूल प्रतिकूल
                    दिवा कर्म मग्न
                    तमिस्रा जागरण
                    मिथ्या इसका मरण।
आदमी का मन !
                    वासना का दूत
                     उपासना का भूत
                     मंदिर का अवधूत
                     प्यास का यह पूत।
                     निरंतर की चाह
                     अनजानी खोजे राह
                     अथक पथिक
                     रिक्त रहे हस्त
                     सदा अस्त व्यस्त।
                     गुण -अगुण -खान
                     पतित -पावन -महान।
आदमी का मन !----------------------------------------अरविन्द !

बुधवार, 25 जून 2014

एकांत की अन्तरंगता

                   एकांत की अन्तरंगता
आज जब सर्वत्र आवाजें ही आवाजें हो , वहां  मनुष्य को एक सघन एकांत उपलब्ध हो जाए --यह सौभाग्य का क्षण है। अपने आप से मिलने का अवसर मिलता है। अपने ही खो चुके मन को ढूंढने का मौका मिलता है। अपने आप से बतियाने की चाह उठती है। अपने ही जख्मों को कुरेदने का आत्मदाही सुख मिलता है। अपने सुख के क्षणों को तरतीब देने का समय मिलता है। खुद ही प्राप्त किये दुःख पर हँसने की अदम्य लालसा खिलती है। एकांत भी तो एक दर्पण है ,ऐसा दर्पण जो हमें हमारा सर्वांग ,एक निर्मम डॉक्टर की तरह ,हमारे सामने खोल कर रख देता है। इसलिए एकांत सौभाग्यदायी है। आदमी को अपने आप से भागने का अवसर ही नहीं मिलता। एकांत कहता है कि लो ,अपने स्वयं का निरीक्षण करो। अपनी झुंझलाहट का परीक्षण करो। अपनी चिर -संचित असफलताओं के दर्शन करो। अपनी दुविधाओं को परखो और जानो कि कहाँ -कहाँ अपने आदमी होने से चुके हो --एकांत कहता है। किसी अजदहे की तरह, एकांत अपनी गुंजल में लेकर मनुष्य को अपना ही सामना करने के लिए बाध्य कर देता है। इसीलिए ज्यादातर लोग एकांत से भागते हैं। क्योंकि एकांत निर्मम मित्र है। और फिर ऐसा एकांत मिल जाए जहाँ कोई भी अन्य किसी से परिचित न हो , जहाँ भिन्न भिन्न संस्कृतियों का मिश्रण हो , जहाँ कोई भी किसी की भाषा न समझता हो ,जहाँ कोई भी किसी दूसरे को जानता न हो , जहाँ सब भीड़ में भी अकेले हों ,ठिठुरते ठिठुरते हों , जहाँ कोई धर्म ही न हो , कोई स्तुति न हो ,कोई पाखण्ड न हो ,कोई इच्छित स्वार्थ न हो  और न ही किसी दूसरे को देखने की चाह हो। ऐसा एकांत तो सौभाग्य से ही मिलता है।
            यहां विदेश में वह है। हमारे यहां एकांत को भी गम हुए बच्चे के समान ढूंढना पड़ता है। कोई अकेलेपन को भंग न कर दे ,तो आँख चुराओ ,कन्नी काट कर निकल जाओ ,जानबूझ कर व्यस्त होने का नाटक करो। अपने कमरे में बंद बैठे रहो ,ज्यादा से ज्यादा श्मशान में एकांत को ढूंढो ,किसी बगीचे में कोई कोना तलाशो ,बहुत मुश्किल होती है ,जब एकांत नहीं मिलता। घरो की छतों पर परिचित ,बाजारों में परिचित ,बागों में परिचित ,दुकानों में परिचित। बिना बताये आने वाले अतिथियों का झंझट ,रसोई की हलचल ,हर समय किसी न किसी के आने की आहट ,सभाओं का बुलावा ,मित्रों का जमघट ,सत्संगों की भरमार ,उपदेशकों के निर्देश ,कीर्तनों की ध्वनियां ,खेलते बच्चों की चिल्लाहट , हमारे यहां एकांत शौचालय में भी नहीं है।
            एकांत का अजदहा जैसे ही घेरता है ,तो सबसे पहले परिवार ही लुप्त होता है। एक एक कर सभी छिलके उत्तर जाते हैं ,पूर्णतया अनावृत मनुष्य स्वयं को देखने से भाग नहीं सकता। कर्म नैष्कर्म्य में बदल जाते हैं। मन अ -मना सा अनमना हो कर छिप  जाता है। धर्म लुप्त हो जाता है। ज्ञान तिरोहित। अस्तित्व जड़। समाज लय। मेरा तेरा मृत। अध्यात्म ध्वस्त। मित्र -अमित्र समाप्त। इयत्ता क्षीण। आंतरिकता शमित। दृष्टि विगत। साक्षित्व मौन। न स्वर्ग न नरक। कर्म -काण्ड विस्मृत। असफलताएँ विलीन। सम्बन्ध समाप्त। साहित्य सत्ताहीन। पठित अपठित। केवल शून्यता। केवल विराट। केवल अस्तित्वहीनता। केवल लघुता। यही वह सत्य है जो एकांत हमें देता है और हम इसी सत्य से सदा प्राङ्गमुख रहना चाहते हैं। यही जीते जी मरना है। यही जीवन मुक्ति है। ……………… अरविन्द

अरविन्द -उवाच

खुद को खुदा के हाथ दे, खुद मुख्त्यार हो गए
किसी से कोई गिला न रहा खुदा के यार हो गए ।
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देखा नहीं उसे , न  अभी छू भी उसे पाया हूँ
जो भी शक्ल बनाता हूँ उसी में मिलता है वह ।
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लोग नाराज हैं कि हाँ में हाँ नहीं मिलाता हूँ
कैसे समझाऊं उन्हें ,मुझे दीखता कुछ और है ।
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बहुत हल्का था कि झटका खा गया
उसकी गली में गड्ढे ही बहुत गहरे थे।
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हाथ उठाता हूँ , तो पकड़ लेता है हाथ
सिर बचा ही नहीं कि सिर को उठा सकूँ।
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जान जान कर भी जान को जान नहीं पाया
लोग  कहते  हैं कि बहुत कुछ जानता हूँ मैं ।
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खुदा मिले तो पूछूं कि क्या यह चीज बनाई है
जितना ही पकड़ना चाहता हूँ उतना ही फिसलती है।
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झुकते थे ,सलाम करते थे ,सबको पसंद थे  हम
आँखें जो खुलीं बिरादरों ने बिरादरी बाहर कर दिया ।
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हम लुटा चुके हैं आशियाना बाजार में
कोई लुटा पिटा हो तो  हमारे साथ चले ।
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कहाँ तुम्हारा दर है कि जहाँ सिजदा करूँ प्रीतम
न मस्जिद में तुम मिलते हो न मंदिर तेरा घर है।
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लहरें समुन्द्र की मेरे पाँव पखारती हैं
किनारे से ही मैं  अनन्त न हो जाऊं । ………अरविन्द -उवाच


       

रविवार, 22 जून 2014

क्षणिका

फकीराना वेश कर घूमते हैं हम गली गली
मिलता नहीं वह जो हमें अकेला छोड़ गया। ………… अरविन्द

शनिवार, 21 जून 2014

फिर से

जिस्म जिनके जेहन में गहरा गया
उनके लिए हम बेवफा ही  हो गए ।
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रूह की इच्छा नहीं थी जान को
जान मेरी खा गए बे -जान थे जो।
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नहीं कहीं मिली ऐसी जगह हमें
सिर टिकाएँ जहाँ सकूँ हम ले सकें।
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खाली खाली सी देखीं तमन्ना की आँखें
रचने वाले की रूचि पर गुस्सा उमड़ आया।
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शर्मिंदा ही हो गया समुद्र मेरे सामने
जैसे ही मेरे मन की थाह से टकरा गया।
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ठंडी हवाएँ ,खुला आसमां
कहाँ छिपी हो जाने जहाँ ?
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बच्चों संग बैठी बुढ़िया
चरमर चरखा कातती।
जीवन सारा निकल गया
दुःख को सुख से बांटती। ………… अरविन्द
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गुरुवार, 19 जून 2014

कविता -कवित्त

इल्जाम लगा के उन्होंने तो किवाड़ बंद कर लिए
लगा कि किस्मत ने हमें पर फिर से लगा दिए हैं।
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खुदा से पूछा जो मैंने उसका टिकाना
कहाँ नहीं हूँ मैं कह कर मुस्कुरा दिया।
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प्रेम प्रभु है, अभुक्त मुक्ति देता है
जो बाँध ले आकाश को प्रेम नहीं होता।
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वाह ! कमाल है ! लाजबाव कर दिया !
प्रभु ! फिर से यह जिंदगी कौन चाहेगा?
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न तप ,न साधना ,न अनुभव ,न ज्ञान है
वे  प्रभु की दूकान खोले आशीर्वाद बाँटते  ।
झूठ के झंडे के पाखंड बुलंद कर बाँग देते
दुनिया में आज वे धन औ -पुत्रों को बाँटते ।
अपने भीतर जिनके  शब्द न प्रकाश हुआ
सफ़ेद  बगुले  आजकल संतों को हैं डांटते । ………… अरविन्द
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सोमवार, 16 जून 2014

जप

कल पूर्णिमा थी और मेरे कुछ आत्मीय मित्र लुध्याना में गायत्री मन्त्र की दिव्यता में अखंड भाव से तल्लीन थे। गायत्री सवितृ साधना है। जिसका हमारी देह ,मन ,बुद्धि ,चित्त ,हृदय और आत्म पर तत्काल प्रभाव होता है। विशेषकर पूर्णिमा अर्थात जब चन्द्र अपनी समस्त कलाओं से मन को उर्ध्वमुखी कर देता है। जप केवल वाचिक  ,उपांशु या मौन ही नहीं होता बल्कि जप में मनुष्य को चार विशेष श्रेणियाँ और प्रभाव अनुभूत होता है। चत्वारि वाक् परिमिता पदानि ----ऋग्वेद। वे  चार क्रमशः --बैखरी ,मध्यमा ,पश्यन्ति और परा हैं। बैखरी उसे कहते हैं जो व्यक्त हो जाए। मन्त्र या जिसे आजकल नाम कहते हैं ,उसका इसप्रकार उच्चारण हो कि आप सुनें और किसी अन्य को भी सुनाई दे। मध्यमा अर्थात मध्यम स्वर में जप ,जिसे केवल आप ही सुनें ,समीपस्थ बैठा व्यक्ति भी उस उच्चारण को न सुन सके।
यह उच्चारण कंठ से होता है। धीरे धीरे मन्त्र या नाम--- धुन में परिवर्त्तित हो जाता है और लयात्मकता की अवस्था में ,अन्य इन्द्रियों का बोध नहीं रहता। साधना सूक्ष्म हो जाने पर पश्यन्ति अर्थात मन्त्र को देखने अर्थात साक्षात्कृत की अवस्था आ जाती है । पश्यन्ति का अर्थ ही देखना है। इस अवस्था में मन्त्र को जपा नहीं जाता ,बल्कि श्वास में मन्त्र लय हो जाता है। परन्तु पश्यन्ति में मन को द्रष्टा के रूप में खड़ा करना पड़ता है किन्तु साधन उन्नत होने पर सुनना भी नहीं पड़ता। जपै जपावै आपै आप। अर्थात न स्वयं जपें ,न मन को सुनाने के लिए बाध्य करें और जप चलता रहे। इसे अजपा भी कहते हैं। यही परा है।
   मुझे पूरी आशा है मेरे मित्र जप की इसी डोर से परम को अधिगत अवश्य करेंगे क्योंकि उन पर सद्गुरु की परम कृपा है। ................ अरविन्द

शुक्रवार, 13 जून 2014

अपने आप को

अपने आप को
जन्म देने के लिए ही
जन्म लेता है आदमी,
वैरागी होने के तो यहां
अवसर बहुत हैं।
राग रखते हैं सब
अजन्में ,अदेखे
परमात्मा से
भार नहीं होता वहां
स्वार्थी अहंकार का।
अपनत्व भी मुरझा जाता है
शहतूत के पीले पत्ते सा
वृक्षों के सिर पर
आग सा उगता है
विद्वेषी सूरज ।
अकेला होना ही
परमात्मा होना है।
अपनों की रूसवाइयां भी
अकेला होने नहीं देतीं।
मैं मेरी ,मैं मेरी की
सुनता रहता हूँ भेरी
दूसरे की चिंता ने
यहां -
कभी सुबह नहीं हेरी।
ले गया छीन  कर
वह प्राण मेरे
जान नहीं पाया था ,
ओट में शिकारी है।
बरस जाना
भरे
बादलों की तरह
आदमी नहीं होना है ।
आंच लगे  थोड़ी सी
फट जाए गुब्बारा।
आदमी नहीं होना है।
खा जाता है इंसान को
धुँधुआता कोप भी -
धधकते हुए लावे की
आँखें नहीं होतीं। ................ अरविन्द

. अरविन्द शे "र .

तेरी दुवाओं को तरसता हूँ पपीहे की तरह
कभी तो बरसो मेरे बादल स्वाति की तरह ।
               -------
 इसी ख्याल से खुला रखती हूँ दर
 तू आये और मैं तुझे जगी मिलूं।
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प्यार को कुछ तो प्यार की तरह समझ मेरे प्यारे
क्यों खुली हथेली पर काँटों भरा गुलाब रखते हो ।
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अकेला कर गयी है तेरी मोहब्बत ऐ मेरे खुदा
भाड़ में अकेले चने को क्यों जलाया करते हो।

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नींद आँखों के बाहर पलकों में ही रहती है
एक म्यान में तलवारें दो समा नहीं सकतीं। .......... अरविन्द शे "र .
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ऑस्ट्रेलिया ---9

ऑस्ट्रेलिया ---9
      इन थोड़े दिनों में ही बहुत घूम लिया है। बहुत कुछ देख भी लिया है। सजे हुए बाजार। सजे हुए पव। साफ़ सुथरे सामान से भरी दुकानें। स्वच्छ और खुले मंदिर। शांत और निर्मल आस्था। परमात्मा के दिव्य और विराट विग्रह। खुला  बंटता भगवान भोग प्रसाद। मौन में उच्चारित व्यक्तिशः प्रार्थनाएं। बादलों से भरे आसमान में झांकता ठिठुरता सूर्य। धूल रहित तेज बहती हवाएं। सामाजिकता की आँखों में उल्लास। प्रेमपूर्ण सौहार्द्र। सडकों को साफ़ करते वैक्यूम क्लीनर। नगर कौंसिल की तत्परता। भिन्न -भिन्न संस्कृतियों के विविध समुदाय। अपना -अपना पहरावा पहने लोग। एकांत स्थलों पर खुले चमकते स्कूल। मैदानों में खेलते भिन्न वर्णी बच्चे। चाइल्ड केयर सेंटर की सुखद ,स्वच्छ व्यवस्थाएं। भाषा ,भाव ,शब्द और उच्चारण सिखाते  खिलौने। वृद्धों का स्वास्थ्य - ध्यान रखने वाले  केंद्र। भिन्न भिन्न मॉल और उनमें घूमते उल्लसित  बच्चे ,बूढ़े ,जवान ,स्त्रियां और पुरुष। बाजार की ईमानदारी। खुले हरे भरे मैदान। नीलिमा से परिपूर्ण समुद्र।   सैर करते लोग। रेस्तरां। रेस्तराओं में गप्पे हांकते ,मुस्कुराते लोग। बहुत कुछ समीप से देख लिया।
           नहीं देखा तो बाल -मजदूरी करते बच्चे। नहीं दिखे भिखारी। नहीं सुनाई दी सुबह सुबह कीर्तन की ध्वनि। नहीं दिखाई दिए वृक्षों तले ताश खेलते आलसी। नहीं दिखीं वर्षा के बाद कीचड़ भरी सड़कें।  नहीं दिखीं चिपचिपाती हलवाइयों की दुकानें। नहीं दिखे गंदले पानी में साफ़ होते कांच के गिलास।
नहीं दिखाई दिए गृहात् बहिष्कृत वृद्ध। नहीं दिखे बस्तों का  बोझ उठाये स्कूलों के बच्चे। विश्वविद्यालय में गपियाते लडके -लड़कियों के समूह --नहीं दिखे। नहीं दिखा --हम ही सही हैं --का दुराग्रह।
         ऐसा नहीं है कि यहां के सामाजिक आचरण में कोई दोष ही नहीं है। यह भी नहीं है कि यह देवताओं की भूमि है। चोरी ,बटमारी यहां भी है। नशाखोरी यहां भी है। जुआ यहां अनैतिक नहीं। परन्तु मैं यहां दोष दर्शन के लिए नहीं आया। दोष तो अपने में भी हैं ,तो दोषों की संख्या क्यों बढ़ायी जाए। मेरा उद्देश्य गुण तलाशना है और यह देखना है कि कहीं हम पिछड़े हुए हैं तो क्यों हैं ?
        मुझे यह सोचना पड़  रहा है कि हम बोलने की स्वतंत्रता का उपयोग करना तो भली प्रकार से सीख  गए हैं ,तो क्या विचार और वैचारिकता की स्वतंत्रता का प्रयोग भी कर रहे हैं या नहीं। वैचारिक स्वतंत्रता का प्रयोग हमारी पैतृक संपत्ति है। हमारे यहां किसी चार्वाक ने किसी गौतम और कणाद को सुकरात की तरह जहर पीने को बाध्य नहीं किया था । 
            हमने बोलने की अपेक्षा विचार की स्वतंत्रता को महनीय माना था। क्योंकि वैचारिक स्वातंत्र्य ज्ञान के नव्य मार्गों का उन्मोचन है।
             भारत उस तालिबानी सोच को प्रश्रय नहीं दे सकता जो सोच आत्म -निरिक्षण ,आत्म -शोधन और परिष्करण को स्वीकार न करती हो।
              आत्मलोचन ही आत्मविस्तार और आत्म विकास है। आज इतना ही। ....... अरविन्द।

तुम ही भीतर बैठ हमारे

तुम ही भीतर बैठ हमारे
नित कविता रचते रहते हो .
भाव तुम्हारी उत्क्षिपति हैं
हमें नाहक तड़पाते हो।
नित नूतन रूप तुम्हारा प्रभु
अपलक निहारा करता हूँ ,
मौन तुम्हारे इंगित सारे
मैं अर्थ बिगाड़ा करता हूँ।
 उदारमना हे मूक प्रभु ,
ले छंद मुझे दुलराते हो।
मैं भटक न जाऊं भव वन में
तुम तर्जन कर समझाते हो।
अब वर्जन तर्जन छोड़ प्रभु
कुछ नूतन सर्जन करते हैं ,
तुम ओट हटाओ भ्रम की
मिल सत्य संदर्शन करते हैं।
जग कहता मिथ्या सब है
क्यों रच डाला इस मिथ्या को।
यह मिथ्या सत्य समान लगे .
आवरण हटाओ ,भर्ता हो।
तुमने ही भेजा था जग में
यात्रा का सुख पाने को ,
अज्ञान कहाँ से आ लिपटा
दुःख ,दर्द और रुलाने को ?
हे लीलाधारी ,अग जग हारी
अब तो माधव कृपा करो ,
देख लिया जंजाल तुम्हारा
पकड़ो हाथ ,सहारा दो।
मैं निर्बल ,निरुपाय प्यारे
संताप हरो ,इशारा दो।
सच है ,जग सब माया ही है
झूठे सब सम्बन्ध विभो।
मेरा मेरा सब जग कहता ,
मेरा यहाँ कुछ नहीं प्रभो। ............. अरविन्द



गुरुवार, 12 जून 2014

खेलता है प्रभु !

खेलता है प्रभु
नाचते हैं रंग
नाचती प्रकृति
शिव -शिवा संग।
विराट नाचता विभ्राट
उड़ुगणों के संग नाचे -
मार्तण्ड -प्रकाश।
न अंधकार है यहां
न दुपहरी का ताप
रंग में अंतरंग हो ,
खेलता विभ्राट।
जन शून्य प्रदेश यह
भेद अभेद लुप्त  है
परम की क्रीड़ास्थली
राग -द्वेष मुक्त है।
एकांत वेश भाव में
प्रकृति स्व  भाव में
लास्य की रंग -स्थली
पंच तत्व लिप्त है।
माया नहीं ,भ्रम नहीं
ममत्व और मम नहीं
स्वत्व भी क्लेशमुक्त
दिव्यात्मा नित्य है।
व्यक्ति यहां क्षीण -सा
खुले नेत्र ताकता
असीम के नृत्य में
स्व -क्षुद्रता है मापता।
क्षीण हुआ अहंकार
अस्तित्व है कांपता
विराट के नृत्य को
लघु मानव है आँकता। ............. अरविन्द

महत्वपूर्ण

आत्मा की स्वतन्त्रता देह की स्वतंत्रता से कई गुणा अधिक महत्वपूर्ण है।

बुधवार, 11 जून 2014

महान भारत का वर्तमान-------8 .

महान भारत का वर्तमान-------8 .
         इसमें कोई संदेह नहीं है कि मेरा भारत महान है।  क्योंकि भारत का अतीत महान रहा है। हमारे ऋषियों की आत्म -निष्ठ प्रज्ञा ने वैश्विक कल्याण हेतु प्रकृति के विविध आवरणों में सुप्त और लुप्त अनेक रत्न मानव के सुख ,सौंदर्य ,आनंद और जीवन भोग के लिए खोजे। ज्ञान -विज्ञान की समस्त कलाएं यहां ही विकसित हुईं। खानपान ,दर्शन ,आचरण ,विविध विद्याओं के विपुल स्रोत यहां ही निःसृत हुए। परन्तु प्रश्न यह है कि क्या हम अपनी महानता के इस गौरव को अक्षुण्ण रख पाये ? क्या हम अपने पुराकालीन ज्ञान को संभाल पाये ? धरोहर में मिली सम्पदा कहाँ गयी ?  कौन से ऐसे कारण थे कि हम ने अपनी सभ्यता और संस्कृति के क्षरण को होने दिया ? इस अभिशाप से मुक्त होने के लिए हमारे कौन कौन से प्रयास थे ? क्या हमने गंभीरता के साथ कभी इन प्रश्नों पर विचार किया ? महामानवों की भूमि क्यों और कैसे क्षीण क्षुद्र लघु मानवों की जन्मस्थली बन गयी ? हम विचार नहीं कर सके। किसने हमें विचार करने से रोक ? हमने कभी नहीं सोचा।
और एक झूठा पाखंडपूर्ण गौरव ओढ़ कर बैठ गए कि हम महान हैं ,हमारा भारत महान है।
          कुँए के मेंढक समुद्र का परिचय जान ही नहीं सकते। विश्व की अन्य सभ्यताओं ,संस्कृतियों से सम्पर्क से हीन विकास और संतुलन का मार्ग भूल गए। हमने कभी यह भी जानने का प्रयत्न नहीं किया की हमारी जागृत प्रज्ञा और युवक विदेशों की आकर्षित क्यों हो रहे हैं। ब्रेन -ड्रेन की समस्या का कोई समाधान हमारे पास नहीं। हमने कभी चाहा है क्या कि हम उन युवाओं को अपने ही देश में सौहार्द्रपूर्ण भूमि  करें कि वे यहीं रह कर अपने शोध से ज्ञान के नए -नए क्षितिजों का उन्मेष करें?
           जिस देश का वृद्ध बौद्धिक वर्ग ज्ञान -विज्ञानं के द्वार पर कुंडली मारे साँप के स,मान बैठा हो ,मार्ग अवरोधक हो ,वहां के जिज्ञासु अपनी प्रज्ञा का प्रदर्शन वहीं करेंगे जहाँ उन्हें कार्य करने की स्वतंत्रता होगी।  अगर कहीं कोई तुलना करे तो सलमान रुश्दी ,अरुंधति की तरह देश निकाला। असुरक्षा। तो क्या सोचना और विचारणा बंद हो ? अपने घोँसले से बाहर की दुनिया न  देखना
हमारी आदत बन चुकी है। हम सब अपने खोल में सिमटे वे कछुए हैं जो प्रगतिशील ,उन्नत ,विकसित और भविष्योन्मुखी सभ्यताओं की ओर देखना ही नहीं चाहते। बल्कि  उस अवसर की तलाश में हैं कि कभी तो यह खरगोश भागते -भांगरे सोयेगा। और यह कछुआ दौड़ जीत जाएगा।
           तुलना करना और अपनी दीनता ,क्षीणता ,दरिद्रता ,दुर्बलता और अभाव देखना हमारी आदत ही नहीं। मुझे लगता है कि हम उस इंद्र जैसे अभिशप्त हैं जो अपनी अलकापुरी को भूल चुका है और पंकिल परिवेश को ही अपना स्वर्ग मानने लगा है। अंधों के लिए अंधत्व ही सत्य हो गया है। अगर कोई प्रकाश की किरण फैंके तो वह शत्रु। अगर हमनें स्वयं को दुराग्रहों से ,विविध मतवादों से ,पूर्वाग्रहों से मुक्त रखा होता ,तो शायद हम अपनी भारतीयता और स्वर्णिम अतीत की सुंदरता  को सुरक्षित रख पाते।
           किसी भी समाज ,सभ्यता या संस्कृति को स्वस्थ ,सुंदर और अक्षुण्ण रखने के लिए आंतरिक वैचारिकता ,मनस्विता ,तथ्यात्मक तार्किकता ,सत्यानुग्रही अन्वेषण और आत्म -परिक्षण आवश्यक हैं। अगर हमने ये सभी तत्व चिन्तना और आचार में व्यवहृत  रखे होते ,तो कोई संदेह नहीं कि हम अपनी सर्वांगीण अभ्युदय के शिखर पर आरूढ़ रहते। पर हमारा सामूहिक आलस्य, सामूहिक बेहोशी ,दूरदृष्टि का अभाव हमें उन्नत नहीं होने देता। हम आज भी उसी मानसिकता के शिकार हैं जहाँ हम समुद्र पार जाने वालों को जाति बहिष्कृत करते रहे हैं।
           पल भर के लिए अन्य उन्नत देशो से तुलना छोड़ दें और महाभारत कालीन भारत से ही अपनी तुलना करें ,तो भी हमें अपनी रक्षा के लिए अनेक बहाने घड़ने होंगे।  वास्तव में हमें यह स्वीकार कर लेना चाहिए कि हम अपने सामूहिक आचार ,व्यवहार ,शिक्षा ,नीति ,सामाजिक व्यवस्था ,न्याय , परंपरा , सामाजिक जीवन ,धर्म और आत्म -रक्षण में पिछड़ चुके हैं। यह सब तर्क से और प्रामाणिकता से  सिद्ध किया जा सकता है। ----इसे आराम से विस्तार देंगे क्योंकि अभी अंतर्मन में मंथन है। ................ अरविन्द
    

सोमवार, 9 जून 2014

कूप मण्डूकता

दुराग्रह आलोचना के मूल तत्व का ध्वंसन है।  कूप मण्डूकता आलोचक और आलोचना को रचनात्मक नहीं रहने देती।

शून्य की अद्भुत लीला !

क्या कहूँ
 शून्य की अद्भुत लीला ,
शून्य  रूप तुम्हारा !
शून्य शून्य से शून्य ही निरसत
शून्य हुआ लय शून्य विसर्जित
शून्य ज्ञान पुनः शून्य हुआ जग सारा।
क्या कहूँ कि अद्भुत रूप तुम्हारा।
शब्द शून्य ,गुणवाद शून्य
जगती के अस्थिर भाव शून्य
सुकृत -विकृति के  अर्थ  शून्य
अंधानुकरण के वाद शून्य
अहंकार विगत नहीं ,अहं शून्य
शून्यता के प्रतिमान शून्य ,
तथता के सब तथ्य शून्य
प्रभुता ,प्रांजलता हुई शून्य
नवता शून्य ,विभुता भी शून्य
मानव भव , मानवता -भाव शून्य
मिथ्या -अमिथ्या  -सार शून्य
निस्तार शून्य किनारा।
क्या कहूँ कि अद्भुत रूप तुम्हारा।
मैत्री ,मुदिता राग शून्य ,
अपनत्व शून्य ,परमार्थ शून्य
निजता के असत तुम तात शून्य
आत्म शून्य ,परमात्म शून्य
शून्य अशून्य, न स्वार्थ शून्य
शून्य हुआ सहारा।
क्या कहूँ कि अद्भुत रूप तुम्हारा।
दूरागत -समीपस्थ हुआ  शून्य
आगत भागत भाव शून्य
भावत अनुरक्ति सद्भाव शून्य
अध्यात्म, भक्ति - विभाव शून्य
शून्य आत्म का शून्य पसारा।
क्या कहूँ कि अद्भुत रूप तुम्हारा। …………अरविन्द


आस्ट्रेलिया ---7

आस्ट्रेलिया ---7
             अगर स्वतंत्रता का अर्थ स्थापित मूल्यों ,नियमो को तोड़ मरोड़ कर जीने का आनंद लेना है ,तो हमारा पंजाब इसके लिए एक अच्छा प्रदेश है। टूटी हुई सडकों पर झटके खाते ,खीझते ,कार ,स्कूटर ,या साईकल चलाने का दुखद सुख भोगना है ,तो हमारे होशियारपुर से अच्छी जगह कोई नहीं है।  अगर मिलावटी दूध ,मिठाइयां ,सब्जियां ,दालों इत्यादि का स्वाद लेकर अपने स्वास्थ्य की आंतरिक शक्ति की जांच करनी है ,तो भी हिन्दोस्तान से बढ़िया कोई अन्य जगह होगी ,मुझे संदेह है।
            यहां ऑस्ट्रेलिया में ऐसा कुछ भी नहीं है। साईकल से गिर कर कोई जख्मी ही नहीं हुआ। कोई बूढ़ा किसी गड्ढे में मेरे सामने नहीं गिरा। किसी ने किसी को छेड़ा नहीं। सभी अपने -अपने काम में व्यस्त ऐसे हैं जैसे रोबेट हों ,सांस लेने वाले पुतले हों  या अनुशासित नागरिक हों। किसी भी चौंक में मुझे कोई सिपाही नहीं दिखा। कहीं सड़क पर झगड़ा करते हुए ,एक दूसरे पर चिल्लाते हुए ,गालियां निकालते या दम दबा कर भागते हुए नहीं दिखा। लोग शांति से आ जा रहे हैं। मुस्कुरा रहे हैं ,खा पी रहे हैं। ताज़ी स्वच्छ सब्जियां ,साफ सुथरी दालें। निश्चिंत लोग जानते हैं कि खाने -पीने की चीजों में शुद्धता ,शुचिता और स्वच्छता पर संदेह नहीं है क्योंकि यहां की सरकार और अधिकारी अपने नागरिकों के स्वास्थ्य के प्रति जागरूक हैं और ईमानदार हैं।
               मुझे यहां के एक सरकारी अस्पताल में जाने का अवसर मिला। वैसे तो मैं अस्पतालों से दूर ही रहना  चाहता हूँ ,क्योंकि वहां की दुर्गन्ध ,रोगग्रस्त चेहरे ,रुग्ण शरीर ,कराहते वृद्ध ,रोती स्त्रियां ,अरुचिकर और बीमार डॉक्टर ,बेदर्द नर्सें ,जगह -जगह फैली गंदगी ,भिनभिनाती मक्खियाँ मेरे भीतर बुद्ध का वैराग्य तो जगा देती हैं ,परन्तु दुःख और पीड़ा के निवारण का कोई भी प्रयत्न करने में असमर्थ मैं आज तक बुद्ध नहीं हो पाया हूँ। तो , मेरे मन में यहां के अस्पताल को देखने की इच्छा थी और मैं राजन के साथ चल पड़ा। कार में हमें पंद्रह -बीस मिनट लगे होंगे कि हम अस्पताल के मुख्य द्वार को पार कर चुके थे। मैं एक शांत प्रदेश में खड़ा था। चारों तरफ हरियाली ,कारों की कतारें परन्तु लोग नहीं दिख रहे थे। मुख्य द्वार से लगते लगते ही एक हरे भरे मैदान के बीच सीमैंट का एक चक्र दिखाई दिया। पूछने पर पता चला कि यह एक हैलीपैड है जिसका प्रयोग उन मरीजों के लिए किया जाता है ,जिन्हें बीमारी की गंभीरता के कारण किसी बड़े अस्पताल में परिवर्तित करना होता है। अद्भुत। बिलकुल उलट।
               हम कार से बाहर निकल आये और अस्पताल के भीतरी द्वार की ओर जाने लगे। पूरे रस्ते में मुझे कहीं भी गंदगी ,कागज का कोई टुकड़ा ,दवाइयों के रैपर --कुछ भी नहीं दिखा। कुछ अनुचित तलाशती आँखें  से कब अस्पताल में हम प्रवेश कर गए --पता ही नहीं चला।
               रिसैप्शन पर नर्सों की मुस्कान और प्रफुल्लित आँखों ने हमारा स्वागत किया ऐसे कि जैसे वे हमें वर्षों से जानती हों। कहीं बीमार व्यक्तियों की भीड़ ,लम्बी कतारें ,डॉक्टरों की प्रतीक्षा करती बेचारी आँखें ,दवाइयों के लिए इधर -उधर दौड़ते परिचारक ---कुछ भी तो दिखाई नहीं दिया। मैं बहुत हैरान था। नर्सें व्यस्त तो थीं ,पर थकी हुई नहीं थीं ,सब उल्लसित ,कर्मठ और शांत मिलीं।
अस्पताल में इतनी शांति के कारण जब जानने चाहे तो पता चला कि यहां बीमारों ,दुर्घटनाग्रस्त लोगों का इलाज सरकार की ओर से होता है ,इसलिए सभी जो बीमार हैं या पीड़ित या दुर्घटनाग्रस्त सब अपने -अपने विस्तरों पर हैं। दवाइयाँ अस्पताल देता है ,इसलिए न भाग -दौड़ है ,न अस्त -व्यस्तता और न ही नकली दवाई का डर। जीवन की समस्त सुखद संभावनाएं।
               जिस देश अथवा समाज में व्यक्ति का मूल्य हो वहां जीवन की नवीनता ,उत्कर्ष और सर्वोदय के  मार्ग स्वतः प्रशस्त होते हैं। हमारे देश में अस्पताल से स्वस्थ होकर लौटने वाले परमात्मा का धन्यवाद करते हैं और यहां डॉक्टरों के प्रति कृतज्ञतापूर्ण धन्यवाद है।
               भारतीय मानवता पर इससे बड़ा और तीक्ष्ण व्यंग्य अन्य नहीं हो सकता।
--------------------------------------------क्रमशः --------------अरविन्द -------------------------




             अगर स्वतंत्रता का अर्थ स्थापित मूल्यों ,नियमो को तोड़ मरोड़ कर जीने का आनंद लेना है ,तो हमारा पंजाब इसके लिए एक अच्छा प्रदेश है। टूटी हुई सडकों पर झटके खाते ,खीझते ,कार ,स्कूटर ,या साईकल चलाने का दुखद सुख भोगना है ,तो हमारे होशियारपुर से अच्छी जगह कोई नहीं है।  अगर मिलावटी दूध ,मिठाइयां ,सब्जियां ,दालों इत्यादि का स्वाद लेकर अपने स्वास्थ्य की आंतरिक शक्ति की जांच करनी है ,तो भी हिन्दोस्तान से बढ़िया कोई अन्य जगह होगी ,मुझे संदेह है।
            यहां ऑस्ट्रेलिया में ऐसा कुछ भी नहीं है। साईकल से गिर कर कोई जख्मी ही नहीं हुआ। कोई बूढ़ा किसी गड्ढे में मेरे सामने नहीं गिरा। किसी ने किसी को छेड़ा नहीं। सभी अपने -अपने काम में व्यस्त ऐसे हैं जैसे रोबेट हों ,सांस लेने वाले पुतले हों  या अनुशासित नागरिक हों। किसी भी चौंक में मुझे कोई सिपाही नहीं दिखा। कहीं सड़क पर झगड़ा करते हुए ,एक दूसरे पर चिल्लाते हुए ,गालियां निकालते या दम दबा कर भागते हुए नहीं दिखा। लोग शांति से आ जा रहे हैं। मुस्कुरा रहे हैं ,खा पी रहे हैं। ताज़ी स्वच्छ सब्जियां ,साफ सुथरी दालें। निश्चिंत लोग जानते हैं कि खाने -पीने की चीजों में शुद्धता ,शुचिता और स्वच्छता पर संदेह नहीं है क्योंकि यहां की सरकार और अधिकारी अपने नागरिकों के स्वास्थ्य के प्रति जागरूक हैं और ईमानदार हैं।
               मुझे यहां के एक सरकारी अस्पताल में जाने का अवसर मिला। वैसे तो मैं अस्पतालों से दूर ही रहना  चाहता हूँ ,क्योंकि वहां की दुर्गन्ध ,रोगग्रस्त चेहरे ,रुग्ण शरीर ,कराहते वृद्ध ,रोती स्त्रियां ,अरुचिकर और बीमार डॉक्टर ,बेदर्द नर्सें ,जगह -जगह फैली गंदगी ,भिनभिनाती मक्खियाँ मेरे भीतर बुद्ध का वैराग्य तो जगा देती हैं ,परन्तु दुःख और पीड़ा के निवारण का कोई भी प्रयत्न करने में असमर्थ मैं आज तक बुद्ध नहीं हो पाया हूँ। तो , मेरे मन में यहां के अस्पताल को देखने की इच्छा थी और मैं राजन के साथ चल पड़ा। कार में हमें पंद्रह -बीस मिनट लगे होंगे कि हम अस्पताल के मुख्य द्वार को पार कर चुके थे। मैं एक शांत प्रदेश में खड़ा था। चारों तरफ हरियाली ,कारों की कतारें परन्तु लोग नहीं दिख रहे थे। मुख्य द्वार से लगते लगते ही एक हरे भरे मैदान के बीच सीमैंट का एक चक्र दिखाई दिया। पूछने पर पता चला कि यह एक हैलीपैड है जिसका प्रयोग उन मरीजों के लिए किया जाता है ,जिन्हें बीमारी की गंभीरता के कारण किसी बड़े अस्पताल में परिवर्तित करना होता है। अद्भुत। बिलकुल उलट।
               हम कार से बाहर निकल आये और अस्पताल के भीतरी द्वार की ओर जाने लगे। पूरे रस्ते में मुझे कहीं भी गंदगी ,कागज का कोई टुकड़ा ,दवाइयों के रैपर --कुछ भी नहीं दिखा। कुछ अनुचित तलाशती आँखें  से कब अस्पताल में हम प्रवेश कर गए --पता ही नहीं चला।
               रिसैप्शन पर नर्सों की मुस्कान और प्रफुल्लित आँखों ने हमारा स्वागत किया ऐसे कि जैसे वे हमें वर्षों से जानती हों। कहीं बीमार व्यक्तियों की भीड़ ,लम्बी कतारें ,डॉक्टरों की प्रतीक्षा करती बेचारी आँखें ,दवाइयों के लिए इधर -उधर दौड़ते परिचारक ---कुछ भी तो दिखाई नहीं दिया। मैं बहुत हैरान था। नर्सें व्यस्त तो थीं ,पर थकी हुई नहीं थीं ,सब उल्लसित ,कर्मठ और शांत मिलीं।
अस्पताल में इतनी शांति के कारण जब जानने चाहे तो पता चला कि यहां बीमारों ,दुर्घटनाग्रस्त लोगों का इलाज सरकार की ओर से होता है ,इसलिए सभी जो बीमार हैं या पीड़ित या दुर्घटनाग्रस्त सब अपने -अपने विस्तरों पर हैं। दवाइयाँ अस्पताल देता है ,इसलिए न भाग -दौड़ है ,न अस्त -व्यस्तता और न ही नकली दवाई का डर। जीवन की समस्त सुखद संभावनाएं।
               जिस देश अथवा समाज में व्यक्ति का मूल्य हो वहां जीवन की नवीनता ,उत्कर्ष और सर्वोदय के  मार्ग स्वतः प्रशस्त होते हैं। हमारे देश में अस्पताल से स्वस्थ होकर लौटने वाले परमात्मा का धन्यवाद करते हैं और यहां डॉक्टरों के प्रति कृतज्ञतापूर्ण धन्यवाद है।
               भारतीय मानवता पर इससे बड़ा और तीक्ष्ण व्यंग्य अन्य नहीं हो सकता।
--------------------------------------------क्रमशः --------------अरविन्द -------------------------




बुधवार, 4 जून 2014

चक्क दित्ते फट्टे

चक्क दित्ते फट्टे
आपां नहि कच्चे
दिलां दे हां सच्चे
वांग अंगूरा गुच्छे
मिट्ठे खांदे लच्छे
चक्क दित्ते फट्टे। …… अरविन्द

खुदा दी नजरां हेठ जदों मैं आया


खुदा दी नजरां हेठ जदों मैं आया
इश्क़े दा पल्लू  उस आन थमाया
रग -रग असाडे ओ आन  बसाया
जिन्दे मेरिये क्यों कहर कमाया।
 होउका भर भर हुन  हौका मारां
लब्दी फिरां सोहने यार दी छावां
किदां डुब्बदी ऐ  जिंद नूं परचावां
तिल -तिल माही मैं मरदी जावां ।
कोई न मेरा दारुण दरद ऐह तक्के
खांदी फिरां मैं हुन दुनयावी धक्के
इश्क़ अवलडा रोग मेरी देहीं लाया
खुदा दी नजरां हेठ जदों मैं आया। ………… अरविन्द




हर रोज शाम को

हर रोज शाम को
उदास जाता हूँ।
विदेश की मौन सन्नाटे से भरी
गलियों में
अपने शहर की गलियों में
घरों के बाहर बैठी
बूढ़ियों को तलाशता हूँ।
मुस्कराते चेहरों की
भीड़ में
नमस्ते , नमस्कार करते
खो जाना चाहता हूँ।
हर रोज शाम को
उदास हो जाता हूँ।

वे घर
बहुत याद आते हैं ,जहाँ
शाम होते ही , बिना बताये
चाय की चुस्कियों के साथ
बतियाता रहा हूँ।
गलियों में घूमते
आवारा कुत्ते
याद आते हैं ,
जो मुझे सूंघते और
अपरिचित गुर्राते हैं।
घर के बाहर --
आलू ,गोभी ,मूलियां ले लो "
पुकारने वाला
याद आता है।
बिना कहे ही जो
 सब्जियों की टोकरी
मेरे खुले हाथों में थमा जाता है।
हलवाई की दूकान पर
बेमतलब गप्पें हांकते लोग
नाई की दूकान पर
अखबार पढ़ते
बूढ़े ,
सब याद आते हैं।
ज्योंहीं यहां शाम होती है।
यहां भीगती हुई शाम में
दौड़ती कारें ,
ओवरटाइम काम से
थके कंधे ,
घरो की खिड़कियों पर
टंगे मोटे परदे ,
अपने आप में डूबे हुए लोग ,
अपरिचित मुस्कानें ,
सब हैं।
पर शाम होते ही मन
उदास हो जाता है।
यहाँ साफ़ सुथरी
सडकों पर चलते ही
मुझे गड्ढों भरी अपनी
गलियां याद आती हैं।
धूल भरी हवाएँ ,
पसीने की गंध ,
स्कूटरों के हार्न ,
चोंकों में खड़े आवारा लडके ,
फब्बतियों की ध्वनियाँ ,
गालियों के गीत ,
आवारा घूमते पशु ,
यहां नहीं हैं ,
याद बहुत आते हैं।
हर रोज शाम होते ही
उदास हो जाता हूँ। ………………अरविन्द






मंगलवार, 3 जून 2014

आस्ट्रेलिया ---६

आस्ट्रेलिया ---६
कुछ दिनों से लगातार वर्षा हो रही है। सूरज भी पल दो पल के लिए अर्पित जल के अर्घ्य को ग्रहण करने के लिए निकलता है ।  सुबह सुबह आँख तो अपनी आदत के कारण खुल जाती है ,परन्तु यहां की मीठी -मीठी सर्दी में  लिहाफ अपनी  गलबहियों से हमें निकलने ही नहीं देता और मन पुनः चहचहाती सुबह नींद के मखमली दुपट्टे में दुबक कर अनजाने देशों की स्वप्निल दुनिया की सैर करने के लिए निकल जाता है। पता ही तब चलता जब  दस बजते हैं और ईशान आकर कानों के किनारों पर अपनी तीखी और प्यारी कुहुक छोड़ देता है। तब हमें लिहाफ बाँध नहीं पाता ,बचपन की उछलती ,मचलती ,ठुमकती किलकारियां अधिक स्नेहिल ऊष्मा प्रदान करती है।  और मन भारतीय बच्चे के मुँह से निकलती तुतलाती अंग्रेजी के वाक्यों का आनन्द लेने लगता है। परिवेश बच्चों के निर्माण में कितना गहरा प्रभाव छोड़ता है --इसका भान यहां आकर ही मिला। जहाँ हमारे बच्चे अपनी माँ की गोद में सिर छुपा कर इठलाते रहते हैं ,वहीँ यहां सुबह ही  टी वी में विविध शैक्षणिक कार्टून बच्चों को जगाते हैं ,उनके संग खेलते हैं और अनजाने में ही उन्हें भाषा के व्यावहारिक प्रयोगों से अवगत करा देते हैं और बच्चे धारावाही प्रवाह में स्वयं को अभिव्यक्त करना सीख जाते हैं।
       भारतीय परिवेश निषेधात्मक है। सुबह से ही अनेक निषेधात्मक वाक्य हमारे यहां सुने जा सकते हैं। परिणाम यह है कि बच्चों की जिज्ञासा को पनपने का अवसर ही नहीं मिलता। न भाषा पर सहज पकड़ हो पाती है और न मुखरता ही मिल पाती है। इसीलिए हमारे अधिकतर बच्चे शर्मीले ,दबे हुए और मौन रहते हैं। जबकि यहां शिक्षण की  सभी अनौपचारिक विधियों का प्रयोग बच्चों के विकास के लिए हो रहा है।
      ईशान ने मुझे शैया छोड़ने के लिए बाध्य कर दिया और मैं अलसाये मन को किनारे रख बच्चे संग खेलने लगा।
          दैनिक कार्यों से निवृत होने के लिए गुसलखाना पहली प्राथमिकता है। यहां सर्दी के लगातार दस महीने होते हैं। इसलिए नलकों में सदा ही गर्म पानी उपलब्ध रहता है। वहां, इन दिनों जून के महीने में हम ठन्डे पानी के लिए तरसते रहते हैं क्योंकि बिजली चली जाती है. फ्रिज काम करना बंद कर देते हैं और यहां ठंडा गर्म  पानी  सदा ही उपलब्ध रहता है। बिजली आँख मिचौनी नहीं खेलती।
जून के महीने में गर्म पानी से नहाना एक अद्भुत अनुभव है। भूमिगत पानी के सन्दर्भ में एक उल्लेखनीय तथ्य यह है कि यहां की सरकारों ने अभी तक धरती से पानी की एक भी बून्द नहीं निकाली हैऔर हमने जल का इतना दोहन किया है कि अब जल संरक्षण के लिए हमें आंदोलनों की आवश्यकता है। मुझे लगता है कि हिन्दोस्तान ही एकमात्र ऐसा देश है जिसमें प्राकृतिक संसाधनों का अधिकाधिक दोहन हो रहा है। हमारी सरकारों के पास भविष्य की योजनाएं नहीं हैं। यह देश धृतराष्ट्रों का देश है। हमने पृथ्वी ,जल ,तेज ,वायु और आकाश सभी को दूषित कर दिया है और हम चाहते हैं कि हम सदा चिरंजीवी रहें --अद्भुत है यह नीतिगत अंधत्व !
          दूसरी तरफ हमारा पड़ौसी चीन ! चीन जानता है कि उनकी बढ़ती हुई जनसँख्या के कारण उन्हें भविष्य में धरती भी चाहिए और अनाज भी । यहां जनसँख्या कम होने के कारण चीन की कम्पनियाँ ऑस्ट्रेलिया में बड़े बड़े फार्म ले रही हैं और हम पुराकालीन चादर में ही पाँव पसार कर जीने की आलसी आदत से मुक्त नहीं हो पा रहे हैं। अब तो न चादर सुरक्षित है और न हम। पर हम अपनी कछुआ प्रवृति और शतुर्मुर्गी आदत को छोड़ना नहीं चाहते।
   यह ऐसा मारक घुन हमारी सभ्यता और संस्कृति में लग चुका है जिसे न व्यक्ति समझ रहा है ,न संस्थाएं और न ही सरकारें।