तुम ही भीतर बैठ हमारे
नित कविता रचते रहते हो .
भाव तुम्हारी उत्क्षिपति हैं
हमें नाहक तड़पाते हो।
नित नूतन रूप तुम्हारा प्रभु
अपलक निहारा करता हूँ ,
मौन तुम्हारे इंगित सारे
मैं अर्थ बिगाड़ा करता हूँ।
उदारमना हे मूक प्रभु ,
ले छंद मुझे दुलराते हो।
मैं भटक न जाऊं भव वन में
तुम तर्जन कर समझाते हो।
अब वर्जन तर्जन छोड़ प्रभु
कुछ नूतन सर्जन करते हैं ,
तुम ओट हटाओ भ्रम की
मिल सत्य संदर्शन करते हैं।
जग कहता मिथ्या सब है
क्यों रच डाला इस मिथ्या को।
यह मिथ्या सत्य समान लगे .
आवरण हटाओ ,भर्ता हो।
तुमने ही भेजा था जग में
यात्रा का सुख पाने को ,
अज्ञान कहाँ से आ लिपटा
दुःख ,दर्द और रुलाने को ?
हे लीलाधारी ,अग जग हारी
अब तो माधव कृपा करो ,
देख लिया जंजाल तुम्हारा
पकड़ो हाथ ,सहारा दो।
मैं निर्बल ,निरुपाय प्यारे
संताप हरो ,इशारा दो।
सच है ,जग सब माया ही है
झूठे सब सम्बन्ध विभो।
मेरा मेरा सब जग कहता ,
मेरा यहाँ कुछ नहीं प्रभो। ............. अरविन्द
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें