शनिवार, 28 जून 2014

अरविन्द -दोहे

             अरविन्द -दोहे
अपने घर से निकल कर , बाहर आकर  देख ।
दुनिया बैठी चाँद पर ,तू लिखे मिट्टी के लेख । ।
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भरम सदा मुखरित रहे ,सत्य सदा ही मौन।
मृगतृष्णा के जगत में दूर मुक्ति का भौन। ।
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अहंकार मय जीव यह ,आत्मप्रवंचन लीन ।
तलफत फिरे जगत में ,ज्यों कांटे में मीन । ।
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आगत विगत सु गत हुआ ,गत गत मांहि समाय।
सुगत कहीं आकाश में ,ठिठुरत सा  मुस्काय । ।
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मन बालक या जगत में ,सपने माहिं मुस्कात ।
जगत पींजरा सुवर्ण का ,इच्छा फंद लगात। ।
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बहुभाषी यह संसार ,कांव कांव ही कांव।
जिसे केकी पिक हो प्रिय ,नहीं इहां ठाँव। ।
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नवजात शिशु माँ अंक में ,सोवत है मुस्काय।
माया के इस जगत में ,ज्यों ब्रह्म खड़ा लुभाय। ।
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परमात्मा  को जगत में ,ढूंढत जग बौराय।
पुष्पित प्रति प्रसून में ,परमात्मा मुस्काय। ।
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आत्म तत्व को लखे नहीं ,देह देह भरमात ।
उलटा कीर लटकत फिरे ,प्रेम प्यार रटात। ।
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बहुप्रपंची ये  पींजरा ,तामें पंछी जीव।
अहंकार भ्रम को रचे ,अंतर न दीखे पीव । ।
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भाँति भाँति के रूप रंग ,भाँति भांति के जीव।
वसन कहीं ऊपर धरा,अर्ध अनावृत  शरीर । । ............. अरविन्द

          

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