ऑस्ट्रेलिया ---9
इन थोड़े दिनों में ही बहुत घूम लिया है। बहुत कुछ देख भी लिया है। सजे हुए
बाजार। सजे हुए पव। साफ़ सुथरे सामान से भरी दुकानें। स्वच्छ और खुले
मंदिर। शांत और निर्मल आस्था। परमात्मा के दिव्य और विराट विग्रह। खुला
बंटता भगवान भोग प्रसाद। मौन में उच्चारित व्यक्तिशः प्रार्थनाएं। बादलों
से भरे आसमान में झांकता ठिठुरता सूर्य। धूल रहित तेज बहती हवाएं।
सामाजिकता की आँखों में उल्लास। प्रेमपूर्ण सौहार्द्र। सडकों को साफ़ करते
वैक्यूम क्लीनर। नगर कौंसिल की तत्परता। भिन्न -भिन्न संस्कृतियों के विविध
समुदाय। अपना -अपना पहरावा पहने लोग। एकांत स्थलों पर खुले चमकते स्कूल।
मैदानों में खेलते भिन्न वर्णी बच्चे। चाइल्ड केयर सेंटर की सुखद ,स्वच्छ
व्यवस्थाएं। भाषा ,भाव ,शब्द और उच्चारण सिखाते खिलौने। वृद्धों का
स्वास्थ्य - ध्यान रखने वाले केंद्र। भिन्न भिन्न मॉल और उनमें घूमते
उल्लसित बच्चे ,बूढ़े ,जवान ,स्त्रियां और पुरुष। बाजार की ईमानदारी। खुले
हरे भरे मैदान। नीलिमा से परिपूर्ण समुद्र। सैर करते लोग। रेस्तरां।
रेस्तराओं में गप्पे हांकते ,मुस्कुराते लोग। बहुत कुछ समीप से देख लिया।
नहीं देखा तो बाल -मजदूरी करते बच्चे। नहीं दिखे भिखारी। नहीं सुनाई दी
सुबह सुबह कीर्तन की ध्वनि। नहीं दिखाई दिए वृक्षों तले ताश खेलते आलसी।
नहीं दिखीं वर्षा के बाद कीचड़ भरी सड़कें। नहीं दिखीं चिपचिपाती हलवाइयों
की दुकानें। नहीं दिखे गंदले पानी में साफ़ होते कांच के गिलास।
नहीं
दिखाई दिए गृहात् बहिष्कृत वृद्ध। नहीं दिखे बस्तों का बोझ उठाये स्कूलों
के बच्चे। विश्वविद्यालय में गपियाते लडके -लड़कियों के समूह --नहीं दिखे।
नहीं दिखा --हम ही सही हैं --का दुराग्रह।
ऐसा नहीं है
कि यहां के सामाजिक आचरण में कोई दोष ही नहीं है। यह भी नहीं है कि यह
देवताओं की भूमि है। चोरी ,बटमारी यहां भी है। नशाखोरी यहां भी है। जुआ
यहां अनैतिक नहीं। परन्तु मैं यहां दोष दर्शन के लिए नहीं आया। दोष तो अपने
में भी हैं ,तो दोषों की संख्या क्यों बढ़ायी जाए। मेरा उद्देश्य गुण
तलाशना है और यह देखना है कि कहीं हम पिछड़े हुए हैं तो क्यों हैं ?
मुझे यह सोचना पड़ रहा है कि हम बोलने की स्वतंत्रता का उपयोग करना तो भली
प्रकार से सीख गए हैं ,तो क्या विचार और वैचारिकता की स्वतंत्रता का
प्रयोग भी कर रहे हैं या नहीं। वैचारिक स्वतंत्रता का प्रयोग हमारी पैतृक
संपत्ति है। हमारे यहां किसी चार्वाक ने किसी गौतम और कणाद को सुकरात की
तरह जहर पीने को बाध्य नहीं किया था ।
हमने बोलने
की अपेक्षा विचार की स्वतंत्रता को महनीय माना था। क्योंकि वैचारिक
स्वातंत्र्य ज्ञान के नव्य मार्गों का उन्मोचन है।
भारत उस तालिबानी सोच को प्रश्रय नहीं दे सकता जो सोच आत्म -निरिक्षण ,आत्म -शोधन और परिष्करण को स्वीकार न करती हो।
आत्मलोचन ही आत्मविस्तार और आत्म विकास है। आज इतना ही। ....... अरविन्द।
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