महान भारत का वर्तमान-------8 .
इसमें कोई संदेह नहीं है कि मेरा भारत महान है। क्योंकि भारत का अतीत
महान रहा है। हमारे ऋषियों की आत्म -निष्ठ प्रज्ञा ने वैश्विक कल्याण हेतु
प्रकृति के विविध आवरणों में सुप्त और लुप्त अनेक रत्न मानव के सुख
,सौंदर्य ,आनंद और जीवन भोग के लिए खोजे। ज्ञान -विज्ञान की समस्त कलाएं
यहां ही विकसित हुईं। खानपान ,दर्शन ,आचरण ,विविध विद्याओं के विपुल स्रोत
यहां ही निःसृत हुए। परन्तु प्रश्न यह है कि क्या हम अपनी महानता के इस
गौरव को अक्षुण्ण रख पाये ? क्या हम अपने पुराकालीन ज्ञान को संभाल पाये ?
धरोहर में मिली सम्पदा कहाँ गयी ? कौन से ऐसे कारण थे कि हम ने अपनी
सभ्यता और संस्कृति के क्षरण को होने दिया ? इस अभिशाप से मुक्त होने के
लिए हमारे कौन कौन से प्रयास थे ? क्या हमने गंभीरता के साथ कभी इन
प्रश्नों पर विचार किया ? महामानवों की भूमि क्यों और कैसे क्षीण क्षुद्र
लघु मानवों की जन्मस्थली बन गयी ? हम विचार नहीं कर सके। किसने हमें विचार
करने से रोक ? हमने कभी नहीं सोचा।
और एक झूठा पाखंडपूर्ण गौरव ओढ़ कर बैठ गए कि हम महान हैं ,हमारा भारत महान है।
कुँए के मेंढक समुद्र का परिचय जान ही नहीं सकते। विश्व की अन्य सभ्यताओं
,संस्कृतियों से सम्पर्क से हीन विकास और संतुलन का मार्ग भूल गए। हमने कभी
यह भी जानने का प्रयत्न नहीं किया की हमारी जागृत प्रज्ञा और युवक विदेशों
की आकर्षित क्यों हो रहे हैं। ब्रेन -ड्रेन की समस्या का कोई समाधान हमारे
पास नहीं। हमने कभी चाहा है क्या कि हम उन युवाओं को अपने ही देश में
सौहार्द्रपूर्ण भूमि करें कि वे यहीं रह कर अपने शोध से ज्ञान के नए -नए
क्षितिजों का उन्मेष करें?
जिस देश का वृद्ध बौद्धिक
वर्ग ज्ञान -विज्ञानं के द्वार पर कुंडली मारे साँप के स,मान बैठा हो
,मार्ग अवरोधक हो ,वहां के जिज्ञासु अपनी प्रज्ञा का प्रदर्शन वहीं करेंगे
जहाँ उन्हें कार्य करने की स्वतंत्रता होगी। अगर कहीं कोई तुलना करे तो
सलमान रुश्दी ,अरुंधति की तरह देश निकाला। असुरक्षा। तो क्या सोचना और
विचारणा बंद हो ? अपने घोँसले से बाहर की दुनिया न देखना
हमारी
आदत बन चुकी है। हम सब अपने खोल में सिमटे वे कछुए हैं जो प्रगतिशील ,उन्नत
,विकसित और भविष्योन्मुखी सभ्यताओं की ओर देखना ही नहीं चाहते। बल्कि उस
अवसर की तलाश में हैं कि कभी तो यह खरगोश भागते -भांगरे सोयेगा। और यह कछुआ
दौड़ जीत जाएगा।
तुलना करना और अपनी दीनता ,क्षीणता
,दरिद्रता ,दुर्बलता और अभाव देखना हमारी आदत ही नहीं। मुझे लगता है कि हम
उस इंद्र जैसे अभिशप्त हैं जो अपनी अलकापुरी को भूल चुका है और पंकिल
परिवेश को ही अपना स्वर्ग मानने लगा है। अंधों के लिए अंधत्व ही सत्य हो
गया है। अगर कोई प्रकाश की किरण फैंके तो वह शत्रु। अगर हमनें स्वयं को
दुराग्रहों से ,विविध मतवादों से ,पूर्वाग्रहों से मुक्त रखा होता ,तो शायद
हम अपनी भारतीयता और स्वर्णिम अतीत की सुंदरता को सुरक्षित रख पाते।
किसी भी समाज ,सभ्यता या संस्कृति को स्वस्थ ,सुंदर और अक्षुण्ण रखने के
लिए आंतरिक वैचारिकता ,मनस्विता ,तथ्यात्मक तार्किकता ,सत्यानुग्रही
अन्वेषण और आत्म -परिक्षण आवश्यक हैं। अगर हमने ये सभी तत्व चिन्तना और
आचार में व्यवहृत रखे होते ,तो कोई संदेह नहीं कि हम अपनी सर्वांगीण
अभ्युदय के शिखर पर आरूढ़ रहते। पर हमारा सामूहिक आलस्य, सामूहिक बेहोशी
,दूरदृष्टि का अभाव हमें उन्नत नहीं होने देता। हम आज भी उसी मानसिकता के
शिकार हैं जहाँ हम समुद्र पार जाने वालों को जाति बहिष्कृत करते रहे हैं।
पल भर के लिए अन्य उन्नत देशो से तुलना छोड़ दें और महाभारत कालीन भारत से
ही अपनी तुलना करें ,तो भी हमें अपनी रक्षा के लिए अनेक बहाने घड़ने होंगे।
वास्तव में हमें यह स्वीकार कर लेना चाहिए कि हम अपने सामूहिक आचार
,व्यवहार ,शिक्षा ,नीति ,सामाजिक व्यवस्था ,न्याय , परंपरा , सामाजिक जीवन
,धर्म और आत्म -रक्षण में पिछड़ चुके हैं। यह सब तर्क से और प्रामाणिकता से
सिद्ध किया जा सकता है। ----इसे आराम से विस्तार देंगे क्योंकि अभी
अंतर्मन में मंथन है। ................ अरविन्द
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