मंगलवार, 9 दिसंबर 2014

अब तो दरवाजा खोलो !

अब तो दरवाजा खोलो !

अनंत काल से
अनंत योनियों में
अनंत रूपों और
अनंत उमंगों से--
तुम्हें , तुम्हारे ही बनाए
रास्तों पर तलाश रहा हूँ।

अनंत आकाश के आच्छादन में
तुमने अपने रास्तों को
ऊँचे वृक्षों , रंग बिरंगे फूलों से सजाया है
तुम्हारी प्रकृति के
मायाचारी रंग मुझ अबोध को
बरबस लुभा लेते हैं , और
मैं विविधवर्णी रंगों में खो जाता हूँ।

तुम छिपे रहते हो,
तुम्हें ढूंढ़ नहीं पाता हूँ।
प्रेम करता हूँ प्रभु , तो
तुम बांसुरी बजाते हो।
अपनी थोथी जानकारियों के
ज्ञान को बघारता हूँ ,तो
तुम शंख बजाते हो।
उदास हो कर बैठ जाता हूँ , तो
आत्मीय बन कर्ण -कुहरों में
मधुर मदिर फुसफुसाते हो ।
थक हार कर सो जाता हूँ ,तो
स्वप्न में आ मुझे जगाते हो।
बेहद तंग गलियों में घुमाते हो ,
प्रभु ,समझ नहीं आता --
प्रत्येक रास्ते पर तुम्हारा
दरवाजा महसूसता तो हूँ ,पर
द्वार दिखता नहीं है।

तुम्हीं बताओ कब तुम्हारे द्वार के
अदृश्य पट खुलेंगे ?
कब मुझे मायाचारी प्रकृति के कुचक्र से
तुम मुक्त करोगे ?
कब अपनी लुका-छीपी का खेल
तुम ही खत्म करोगे?
कब मैं तुम्हें तलाश पाऊंगा ?

कब खोलोगे तुम कृपालु
अपना दरवाजा ?............. अरविन्द

जय राम जी की !

जय राम जी की !

जय राम जी की !
कवि जी ! जय राम जी की।
कामनाओं की देख रहा हूँ
बसी हुई बसती।
जय राम जी की !

नया नया है नित जीवन यह
नित नवीन अनुभव -अभिलाषी
नित नए को चाहे जग
नया कंथा नयी कंथी ।
नया रस रास ,नया भाव
नयी मौलिकता अन्वेषी।
नया पंथ हो ,नए शब्द हों
तू अब तक बना हुआ पुरातन पंथी।
जय राम जी की !

पुराण काल का प्रेम तुम्हारा
बासी प्रेम कहानी।
बासी उपमा , अलंकार सभी , सब
बासी शैली बिंब बेचारी।
नायिका तो है श्याममुखी
तू कहता उसे चंद्रमुखी।
जय राम जी की !

कवि तो क्रांतदर्शी होता है
न होता कुँए का डड्डू।
कब तक टर्र टर्र सुनेगें सारे
तू अटका देहबिंदु पर बुद्धू।
गहरे उतरो ,मन में गहरे
बह रही नदी विविधा जीवन की ।
जय राम जी की !

सत्य कटु मधु चहुँ दिशि व्यापे
देख चमकते जग जीवन में
भांति -भांति के रवि शशि।
जय राम जी की ! …………… अरविन्द

कल मुझे समुद्र मिला था ।

कल मुझे समुद्र मिला था ।

बहुत उल्लास से
बहुत आनन्द से
आत्मीयता पूर्ण हृदय से
और कुछ अपरिचित से
झिझकते हुए
उसने मेरा दरवाजा खटखटाया।

बहुत दिनों बाद
मेरे द्वार पर दस्तक हुई थी
औचक से , कुछ अनमने भाव से
कुछ जिज्ञासा और कौतुहल से
मैने द्वार खोला।

खुलते ही जैसे
अनंत ने मुझे आच्छादित कर लिया हो
समुद्र ने मुझे बाहों में भर लिया ।
ऐसे की जैसे पिता ने
अबोध बालक को
आकाश में उछाल कर
फिर लपक लिया ।
सर्वत्र मेरी खिलखिलाहट का
स्वर ,मंदिर में आरती के समय
बजने वाली घंटियों की
मधुर ध्वनि से भर गया।

आज मेरे द्वार पर
समुद्र आया।

उसने कहा -
क्यों एक बूंद की तरह
सीमित हो कर
अपने होने को कलंकित कर रहे हो ?
बाहर आओ,और अपने जीने को
उन्मुक्त आकाश सा लहराने दो।
क्यों बंद दरवाजे में
घुटते हो ,अस्तित्व से जुडो और
मेरी तरह लहराओ।

अपने भीतर छिपे आनन्द के
अनंत को बुलाओ।
जगाओ।
खुद अनंत हो जाओ।

अब मैं ही समद्र हूँ
अपने आनन्द में लहराता हुआ
मैं ही अनंत हूँ
अपने होने में जगमगाता हुआ।
उमड़ घुमड़ कर
अपनी लहरों को नचाता हुआ ।

आज समुद्र आया था और
मुझे समुद्र कर
अपने संग ले गया ।...........अरविन्द

उदास सा मन

गर्दन झुकाये ,उदास सा मन
आज चिंतन रत है।

सोचता है कि
लोग बेवजह उसे दोष देते हैं।
गधे से गिरते हैं और
कुम्हार को पीटते हैं।
आदमी दुखी या सुखी हो
मन कहीं कारण नहीं।
जो है ही सत्ताहीन
दोष या प्रशंसा का कहीं
अधिकारी नहीं।
राम राम रटने जाए जी
और कहीं बैठ
औटन लग जाए
आदमी कपास ,
मन का कहाँ दोष ?
मन की कहाँ प्यास ?
निर्णय लेता गलत कोई अन्य
पिटाई हो जाती बेवजह
मन की ख़ास।
आज मन है बड़ा उदास !

दुविधा में जीता
आदमी।
संकल्पहीन ,दृढ़ चित्त हीन
पंचेन्द्रिय आदत गुलाम।
न बुद्धि की सुनता
न मन की है गुनता।
केवल अपना स्वार्थ है तकता।
उसे चाहता ,जिससे कुछ लखता।
देखता कहीं ओर और गड्डे में
मूर्ख खुद गिरता।
फिर क्यों दोष मन पर मढ़ता ?
कामना नहीं जगती मन में
सदा बसती यह इन्द्रिय -स्मृति के तन में।
दोष नहीं मन का।

निर्णय के क्षण में
सुनता नहीं मन की
न्याय ,समता की
मर्यादा या नीति की
करता वही यहां हो
लोभ ,मोह , ममता।
फिर भी भृकुटि मन पर है तनता।

पागलपन है बुद्धि का ,कुबुद्धि का ,
इन्द्रिय आसक्ति और अशक्त संकल्प का ।
छोटे छोटे गलत निर्णय
लेता कोई अन्य
दोष मन पर मढ़ता।
करता पाखंड ,स्वार्थ
अविचारित निज हित की
फिर जलता मुझ मन को
अग्नि में पश्चाताप की।

आज अन्तर्लीन मन उदास है। ………… अरविन्द

हे रवि

हे रवि मार्तण्ड भास्कर !
आलोक दो जीवन को मेरे प्रभाकर !
तमा तामस तम अज्ञान दूर हो
खिले हृत - कमल, विमल रक्तोत्पल।

भ्रम विभ्रम ही माया तृष्णा
मोह जनित मानव मृण्मना
मृगतृष्णा में क्षरित हो रही
भुक्ति मुक्ति दिग्वसना।

हे पतंग !
दो ज्योतित रसना।

विमल वाणी ,मन विमल चित्त हो
विमल भाव ,गुण विमल हृत हो
विमल शब्द में विमला विलसे
ज्ञान क्रिया में तव प्रभा हुलसे
निरभ्र कामना हो
सर्व कल्याण प्रमा।

हे मार्तण्ड ! हे आलोकित मित्र मना !………अरविन्द

हम पुकारते हैं

हम पुकारते हैं
रोज ,उसे अपनी प्रार्थनाओं में
हम रोज पुकारते हैं उसे
मन्त्रों की याचनाओं में .
पुकारते हैं हम जिसे
उसे
जानते नहीं होते।
न रूप से ,न रंग से
न गंध से , न शब्द
और न स्पर्श से ,
उसे पहचानते नहीं होते।

जिज्ञासा की तलहटियों में
नाचते प्रश्न --
ज्ञान की लालसाओं में
नाम देना चाहते हैं
उसे अपना समझना और
उसका होना चाहते हैं।

दृश्य के पीछे की
सत्ता उसे मानते हैं।
अस्तित्व के रचना का
नियंता उसे जानते हैं।

यही
हमारी आदिम इच्छा
जन्म दे जाती है --
झूठी मर्यादाओं को।
भक्ति की वीथियों और
मन्त्रों की प्रार्थनाओं को।

आदिम इच्छा की ही परिणति है --
हमारे तुम्हारे सब रूप नाम
राम ,घनश्याम
गोविन्द ,माधव
सर्वेश्वर विष्णु धाम।

आदिम इच्छा ने रच दिए
अनेक ग्रन्थ तथाकथित
सद्भावनाओं में महान।

हम ,पर जान नहीं पाये
उस अज्ञात की सम्भावनाओं को।
अनुभूति में विदयमान
अज्ञात जिज्ञासा की
परछाइयों को।

नहीं जान पाये अपने
स्व की ही विभावनाओं को।

एक है वह
मानकर भी
हमने दे दिया जन्म
अनेकताओं को।
बाँट दिया उसे
धर्म की धुंधताओं में
जगत की विपुल मूर्खताओं में ।

रंग रूप सब उसके न्यारे थे।
ज्ञानी सभी भेदभाव भरे हमारे थे।
इसीलिए हम हो नहीं सके उसके जो
वास्तव में हमारे थे।

पाखण्ड सारा ज्ञान रहा
पाखण्ड सारी साधना
पाखण्ड हमारा ध्यान रहा
पाखण्ड रही उपासना।

जो तत्व भीतर सिक्त है
हम रिक्त उससे रह गये।
पंथ प्रेम एक था --
हम बहु भेद -पंथ बह गये। …………… अरविन्द

मुद्दत बाद

मुद्दत बाद आज उसका गुलाबी खत आया है
माघ महीने में सूरज जैसे निकल आया है।

बहुत कह रहीं हैं वे मासूम आँखें चुपचाप
पहाड़ी पर जैसे अकेला वृक्ष लहलहाया है।

वह चुप नहीं रह सकती बहुत ही बतियाती है
मुसीबत का पिटारा प्रभु तुमने क्यों थमाया है।

सकूँ मिलता ही नहीं घर में और न जंगल में
सागर की लहरों सा शोर मन में समाया है।

वे पूछते रहते हैं मुझसे मेरे मौन का कारण
जिंदगी की व्यस्तताओं ने बहुत सताया है।

अर्थ ढूंढे थे जो हमने दुनिया में जीने के लिए
कोरे शब्दों के उजले जंजालों ने खूब भरमाया है ।

वह आता है चुपचाप और बांसुरी सुना जाता है
साँवला अपने सब रंगों में मुझे बहुत भाया है। …………अरविन्द

जिंदगी

जिंदगी कभी पानी कभी अमृत कभी जहर है
कभी मरुथल कभी उपवन कभी यह कहर है।

कभी गाना कभी रोना कभी है फूल सा हँसना
कभी लुटना कभी बँटना कभी धूल में धंसना
कभी मंजिल शिखरों की कभी खाई में गिरना
कभी हिंसा कभी करुणा कभी प्यार की रचना
बहुत रंग बिरंगी है कभी यह उजड़ी उदासी सी
कभी फुलझड़ीहो नाचे उल्लसित किलकारी सी
कभी यह त्यागती सर्वस, कभी वैरागी हो जावे
कभी अप्सरा की आहट निःशंक भोगी हो जावे
कभी मचलन कभी लटकन सी मसकन सहर है
कभी सागर कभी लहर कभी नदिया की सैर है। ............. अरविन्द

रविवार, 26 अक्तूबर 2014

कान्हा, तेरे संग !

कान्हा, तेरे संग  !

हे गोविन्द !
जब भी तुम्हारी आँखों में झांकती हूँ
अचंभित हो जाती हूँ।


तुम्हारी आँखों की अथाह
नील गहराई में ,
नीलिमा से परिपूर्ण तुम्हारी
गोल पुतलियों की परछाई में
सारी सृष्टि झांकती है ,मेरे कान्हा ।

तलहटियों की हरीतिमा
शिखरो का गाम्भीर्य
नदियों की चंचलता
तरुओं का उर्जस्वित वीर्य
किसलयों की मासूमियत
चहचहाता पक्षियों का कलरव
धूल उड़ाते रथ चक्र
स्फुलिंग छोड़ते अग्निवाण
सद्योजात शिशु
वात्सल्यपूर्ण तरुणियाँ
विस्फारित युवा नेत्र
संघर्ष करते जग जीवन के प्राण
धूं धूं जलती चिताएं
चिंता करते वृद्ध
विरुदावली संगीत
रास के रसमयी नृत्य
सब देखती हूं।

हे कन्हैया !
तुम्हारे नेत्र नेत्र नहीं
गहरा सागर है।

 मैं इस गहरे सागर में

गहरे उतरने का लोभ
संवरण नहीं कर पाती हूँ ।
तुम्हारे देखते देखते
मैं इन नीले नेत्रों में कूद जाती हूँ ।

तुम्हारी मधु मुस्कान ही
मेरा एकमात्र अवलम्ब है।

मैं जानती हूँ कि
इस अथाह गहराई की
गंभीर यात्रा में
तुम मेरे साथ रहोगे।

हे मेरे प्रभु ! हे मेरे माधव ! हे मेरे सखा !
तुम्हारा हृदय ढूंढती हूँ --
वहां करुणा है ,प्रेम है
दया है ,समदर्शिता और
आनंद है।
वहां सर्वत्र मैं हूँ ।

मैं तुम्हारी राधा
मैं तुम्हारी संगिनी
मैं तुम्हारी रास तरंगिनी
मैं तुम्हारी एकांत रागिनी
मैं ही तुम्हारी संघर्ष प्रिया
सर्वत्र मैं हूँ, मेरे कर्णधार !
मैं तुम्हारी करुणा ,
मैं तुम्हारी आत्मीयता
मैं तुम्हारी अंतरंगता
मैं ही तुम्हारी निः संग असंगता हूँ।

मीठा संतोष मुझे आच्छादित कर लेता है।

तुम अकेले नहीं हो।
मैं सर्वत्र तुम्हारे संग हूँ।......अरविन्द
( आज मेरे अनन्य आत्मीय श्री अनूप मित्रसेन ने राधा -कृष्ण के चित्र को भेजा है , यह कविता उसी को अर्पित है।  )

शनिवार, 25 अक्तूबर 2014

जय राम जी की !

जय राम जी की !
जय राम जी की !
कवि जी ! जय राम जी की।
कामनाओं की देख रहा हूँ
बसी हुई बसती।
जय राम जी की !
नया नया  है नित जीवन यह
नित नवीन अनुभव -अभिलाषी
नित नए को चाहे जग
नया कंथा नयी कंथी ।
नया रस रास ,नया भाव
नयी मौलिकता अन्वेषी।
नया पंथ हो ,नए शब्द हों
तू अब तक बना हुआ पुरातन पंथी।
जय राम जी की !

पुराण काल का प्रेम तुम्हारा 
बासी प्रेम कहानी।
बासी उपमा , अलंकार सभी , सब
बासी शैली बिंब बेचारी।
नायिका तो है श्याममुखी
तू कहता उसे  चंद्रमुखी।
जय राम जी की !
कवि तो क्रांतदर्शी होता है
न होता कुँए का डड्डू।
कब तक टर्र टर्र सुनेगें सारे
तू अटका देहबिंदु पर  बुद्धू।
गहरे उतरो ,मन में गहरे
बह रही नदी विविधा जीवन की ।
जय राम जी की !
सत्य कटु मधु चहुँ दिशि व्यापे
देख चमकते जग जीवन में
भांति -भांति के रवि शशि।
जय राम जी की ! …………… अरविन्द




शुक्रवार, 24 अक्तूबर 2014

अब तो दरवाजा खोलो !

अब तो दरवाजा खोलो !

अनंत काल से

अनंत योनियों में
अनंत रूपों और
अनंत उमंगों से--
तुम्हें , तुम्हारे ही बनाए
रास्तों पर तलाश रहा हूँ।

अनंत आकाश के आच्छादन में
तुमने अपने रास्तों को
ऊँचे वृक्षों , रंग बिरंगे फूलों से सजाया है
तुम्हारी प्रकृति के
मायाचारी रंग मुझ अबोध को
बरबस लुभा लेते हैं , और
मैं विविधवर्णी रंगों में खो जाता हूँ।

तुम छिपे रहते हो,
तुम्हें ढूंढ़ नहीं पाता हूँ।
प्रेम करता हूँ प्रभु , तो
तुम बांसुरी बजाते हो।
अपनी थोथी जानकारियों के
ज्ञान को बघारता हूँ ,तो
तुम शंख बजाते हो।
उदास हो कर बैठ जाता हूँ , तो
आत्मीय बन कर्ण -कुहरों में
मधुर मदिर फुसफुसाते हो  ।
थक हार कर सो जाता हूँ ,तो
स्वप्न में आ मुझे जगाते हो।
बेहद तंग गलियों में घुमाते हो ,
प्रभु ,समझ नहीं आता --
प्रत्येक रास्ते पर तुम्हारा
दरवाजा महसूसता तो हूँ ,पर
द्वार दिखता नहीं है।


तुम्हीं बताओ कब तुम्हारे द्वार के
अदृश्य पट खुलेंगे ?
कब मुझे  मायाचारी प्रकृति के कुचक्र से
तुम मुक्त करोगे ?
कब अपनी लुका-छीपी का खेल
तुम ही खत्म करोगे?
कब मैं तुम्हें तलाश पाऊंगा ?
कब खोलोगे तुम कृपालु
अपना दरवाजा ?............. अरविन्द

शनिवार, 18 अक्तूबर 2014

अरविन्द वाणी

अरविन्द वाणी
तलवारों से नहीं जीती  जाती जंग मुहब्बत की
बोलना होगा हमें मुहब्बत महफूज़ रखने के लिए।
-----
हिसाब रखना समय का , दुआ का मुहब्बत में
उपकार जतलाना भी तो जख्म देने के बराबर है।
------
झूठ बोलने की तुम्हारी आदत गयी नहीं
मनाते भी हो और वह भी झूठ बोल कर । ………… अरविन्द

कहाँ नहीं मैं हूँ !

कहाँ नहीं मैं हूँ !

उदित हो रही उषा की लालिमा में
दुकूल सी सरसराती बयार के स्पर्श रस में
चहकती चिड़ियों की पुलकित पुलक में
भोर के तारे की चमकती किरण में
रंभाती गाय और मासूम बछडे की आँखों में


कहाँ नहीं मैं हूँ !

भीगे केश झटकती तन्वी की उठी बाहों में
चरखा कातती बूढी की कमजोर निगाहों में
कंधे पर बालक बांधे पत्थर ढोती स्त्री की चाहों में
गली में खेल रहे बच्चों की किलकारियों में
माखन बिलोती नारी की चूड़ियों की झंकृति में
खांसते बूढ़े की हिलती ठठरी में

कहाँ नहीं मैं हूँ !

उपदेश सुन रहे ऊँघते समुदाय में
किसी प्रवाचक की रसभरी कथा में
कीर्तन में बज रहे झांझ तबले की तिरकन में
मस्जिद से आ रही ऊँची अजान में
हवन की मंत्रबिद्ध आहुतियों में
देवताओं की मूर्तियों की टिकी आँखों में
आरतियों के संगीत गीतों में

कहाँ नहीं मैं हूँ !

बहती हुई नदी में उछलती मछली में
नदी में नहाते रेशमी वपु की तरंग में
क ख ग रटते बच्चों की सामूहिक ध्वनि में
सडकों पर धकयाती भीड़ में
राशन के लिए लपकते हाथों में
रोटी के लिए तरसती आँखों में
कवियों की तर्कहीन बातों में
अध्यापकों की बेबजह बहसों में

कहाँ नहीं मैं हूँ !

माथे की बेंदी, चूड़ियों की छनछन और
पायल की रुनझुन में
आँखों के सुरमे और वेणी की थिरकन में
दरवाजे पर खड़ी मुस्कान में
अप्रासंगिक बुढापे की थकान में

कहाँ नहीं मैं हूँ !

टिकटी पर की मृत देह में
जन्म लेते शिशु के भीगे नेह में
बिगड़े हुए यौवन के विकृत गेह में
क्रान्ति के लिए तड़पते हिय में
असफलता से विकल प्राण देह में
सफल उल्लसित नेह स्नेह में

कहाँ नहीं मैं हूँ !

सब जगह तो मैं हूँ
इसमें उसमें तुममें सबमें तो मैं हूँ
कहाँ नहीं मैं हूँ ।........अरविन्द

रविवार, 12 अक्तूबर 2014

आजकल

भाव न देख सन्दर्भ देखते हैं
रस ध्वनि व्यंजना वृत्ति नहीं
अर्थ भावार्थ संयोजना नहीं
बस लोग हैं कविता उधेड़ते हैं।

हर वर्ष


पाजेब कंकण चूड़ियां करघनी छन छन छनकती
हर वर्ष उतरता  है  संगीत सीढ़ियां  मेरे घर की ।...अरविन्द

देख ली दुनिया

देख ली दुनिया बहुत ही घूम कर जटिल
झगड़ना तुझी से जी भर है बिगड़ना मुझे।

नचा नचा कर नाच बेहद थका दिया तुमने
कितने पर्दों में छिपा तू देखना अब है मुझे।

खत्म हुए तारे सभी ,चन्द्रमा भी बुझ गया
अब तो आ जा सामने या तड़पना है मुझे ।

ठंडी हवाओं में तू तो सुख से है सो रहा
इस झुलसती गर्मी में अभी जगना है मुझे।

कब तुम्हारे अंक हिमानी में आ मैं सिर धरूँ
कुछ तो कृपा करो प्रभु मेरे कि सोना है मुझे।

तुमने ही तो कहा था कि हाथ थामो जरा
जिंदगी के गीत को सुनना सुनाना है मुझे।

जीना मुश्किल कर दिया है निगोड़ी प्यास ने
प्यास जलती हुई देकर तुमने तड़पाना मुझे।

कब तलक मैं द्वार पर दीपक जला बैठा रहूँ
कितनी आरती स्तुतियाँ ,मनुहार करनी है मुझे। ………अरविन्द

तुमने तो कहा था

तुमने तो कहा था
मेरा हाथ पकड़ो ,आओ
तुम्हें अपनी बनायी सृष्टि में
घुमा कर लाता हूँ।

यहां कहाँ मौन बैठे तुम
अपने ही आत्म से
अकेले ही खेल रहे हो।

अशब्द शब्दों में रचे
मेरे संगीत को
सुनते हो ,विभोर हो रहे हो।

अद्वैत के आत्म -लोडित
स्व -विमोहित अंतर्लीन
निर्विकल्पिक शांत के
एकांतिक समाधि सुख को
अंतिम मान
स्वयं में ही आलोड़ित हो रहे हो।

तुमने ही कहा था --
द्वैत का सुख जानो।
पूर्णता के बिंदु से निकल
पूर्णता को पहचानो।
अपूर्णता की पगडण्डी के चारों ओर
उत्कीर्णित रचना में
कर्ता को जानो।

यहां अद्वै है।
तुम में मैं हूँ
मुझ में तुम लय है।
अभेदता के सागर में
आत्म -आलोड़न के अतिरिक्त
क्या है ?

बस !
मौन है ,स्तब्ध आनन्द का
निरीन्द्रिय प्रवाह है।
विकीर्णित पंच भूतों का
निरर्थक डाह है।
विसर्जित अहं की उत्सर्जित
आह है।

चलो ! आओ !
मेरा हाथ पकड़ो
मैं तुम्हें द्वैत दिखाता हूँ।
अहंकार के विविध वर्णी
गीत सुनाता हूँ।
पाँचों तत्वों के मिश्रण से
नए पुतले बनाता हूँ।
नहीं को हैं में परिवर्तित कर
चंचल मन को सजाता हूँ।
पुतले में कर्ता होने का भ्रम टिकाता हूँ।
मेरी प्रकृति में
वासना भण्डार है ,
उसमें ईर्ष्या ,द्वेष ,अज्ञान
पाखंड , भ्रम का ब्रह्म बिठाता हूँ।

चले आओ !
तुम्हें रचना के रस को
समझाता हूँ।

मैं तुम्हारी मदु मुस्कान
मदिर शब्दावली
उन्मुक्त उल्लास
स्नेहिल स्पर्श
प्रेमिल आत्मीयता
अविश्रांत विश्वास
अनन्य अनन्यता के
भुलावे में आ गया ।

तुमने रचना की माया में
मुझे विमोहित देख चुपके से
हाथ छुड़ा लिया ,
स्वयं को छिपा लिया।

अब तुम्हारी यह रचना
नीरस विरस है ,
और मेरी
आतुर पुकार है।

हे निर्दयी ! तुम कहाँ हो ?…………… अरविन्द

तुम्हारे भरोसे ही

प्रभु ।
दुर्विनीत दुर्वासनाओं का
अहंकार पूरित कामनाओं का
मन की चिरसंचित एषनाओं का
उद्दंड समुद्र मुझ में लहराता है।

विषैले सांप के समान
सिर उठा लेता हूँ
जब भी कोई आकर
अयाचित
पुकारता है।

कैसा मैं दिया है , जो
बेगाने साम्राज्य में
स्वयं को ही सम्राट मान
बेवजह इतराता है ?

तुम्हारी कृपा अद्भुत है
मेरी दुर्विनीत वासनाओं को
असीम कामनाओं को
तुम कठोर पिता से
नकार देते हो,
अदृश्य होते हुए भी
तुम मेरी बाहं पकड़ उठा लेते हो,
सांसारिक दलदल में गिरने से
बचा लेते हो।

दीखते नहीं पर
होने के आभास से
मुझे चमका देते हो, हैरान कर देते हो।

इतना ही प्रेम है, तो
यह भी बता दो प्रभु
क्यों इन एषनाओं की
विभीषिका में धकिया देते हो ?

तुम्हारे इस प्रेम के कारण ही
स्वतन्त्र और स्वछन्द होकर भी
मैं सीमा नहीं तोड़ पाटा हूँ।
तुम्हें जानता हूँ ,चाहता हूँ और
तुम पर इतराता हूँ।

तुम्हारे भरोसे ही
इस सागर में खूब
धमाचौकड़ी मचाता हूँ।........अरविन्द

कविता माँ है।

कविता माँ है।

रोना
चीखना
चिल्लाना
ताना मारना
दोष देना
सब संभाल लेती है।
कविता माँ ही तो है।

सुख
संवेदना
प्रेम प्यार
आत्मीयता
सहानुभूति
ख्याति और वीरता
श्रृंगार
उदारता से देती है।
दुःख हरती है।
कविता माँ है।

दुःख हो
दर्द हो
आह हो या
कराह हो
कष्ट और अवसाद हो
निराशा , घना बोध
अपराध हो
पश्चाताप का दाह हो
पौंछती है, संताप हरती है।
कविता माँ है।........अरविन्द

वाह रे, धर्मात्मा !

देह को नकार कर
ढूंढ़ रहे आत्मा ।
रास्ता गलत पकड़ लिया
वाह रे, धर्मात्मा !

प्रदर्शन जिसे प्रिय हो
वह आवरण ही जानता ।
लीलामय जगत जीवन
आनन्द केवल भासता ।

आँख करो बंद,सोचो
दृश्य लुप्त हो गया ,
भ्रम है,अज्ञान को
सत्य क्यों है मानता ?

देह सत्य, नष्ट होकर
देह भाव न नकारती ।
द्रव्य ही के कारण तो
उतर रही उसकी आरती ।

तत्व भिन्न भिन्न नहीं
अभेद तत्व एक है ।
रेशम के जीव ने स्वयं
ओढ़ी परत अनेक है।.....अरविन्द

अरविन्द क्षणिकाएँ

छत पर मेरे चाँद को देख चाँद शरमा गया
कौन है यह दूसरा जो मेरी जगह आ गया ।

झाँक रहा है चाँद चुपके से मेरी खिड़की में
मुस्कुरा रहा हूँ मैं अपने घर में चाँद रख के ।

चाँदनी लहराते हुए मेरी सीढियां उतर आई
साल बाद मन का भीगा आँगन मुस्काया है ।

पाजेब कंकण चूड़ियां करघनी छन छन छनकती
साल बाद उतरता है सीढियां संगीत मेरे घर की ।

कहने को तो बहुत कुछ है जो कह सकता हूँ
यह मेरा संकोच शर्म ही है जो कहने नहीं देती

भला हो डाक्टरों का जो दाँत नए लगा दिए
चिलगोजा बजाते थे हवा ही सरक जाती थी ।

कभी तो हमारे दर्द को पहचाना करो जालिम
साथ रहते सुइयां चुभोना अच्छी आदत नहीं।

मैं समुद्र की तरह तुम्हें अपने में समेट लूँगा।
नदी की तरह लहराते हुए तुम आओ तो सही।

नियति है संघर्ष तो कूद जा अकेले ही
भाग्य होगा तो हनुमान मिल ही जायेंगे।
----
मत कर भरोसा किसी दूसरे की बाँह का
पहचान नहीं पाओगे आस्तीन कहाँ सांप कहाँ है।

कहाँ जाएँ किसे सुनाए हम दुखड़ाअपना
जिसे भी छूते हैं भरा फोड़ा ही मिलता है।

आदमी कुछ , कुछ कठपुतलियों से हैं
धागे कहीं ओर और नाच कहीं ओर हैं ।

बुराइयां भी पाल रखीं हैं अपने पींजरे में।
कबूतरों को भीतर रखो बाहर बाज बैठे हैं ।

जी चाहता है उतार दूँ कुछ चेहरों से नकाब।
रुक जाता हूँ सोच कर ये भी तो अपने ही हैं ।

उसने तो भेजा था तुम्हें पूरा आदमी बना कर ।
किसने तुम्हें हिन्दू, किसने मुसलमान बना दिया।....अरविन्द

शुक्रवार, 3 अक्तूबर 2014

बरसात ने आकर

बरसात ने आकर
मैदान में अकेले खड़े
रावण के कागजी पुतले को
भिगो दिया ।

वह प्रतीक्षा में है
अब अग्नि दाह
कोई कैसे करेगा।

इस कागजी रावण को भी
राम की प्रतीक्षा है ।
इसीलिए तो हर बर्ष
जलने के लिए
मैदान में आ धमकता है।

राम नहीं आ रहे
वे भी
अपने पुतलों को ही
भेज देते हैं ।

रावण भी राम की
प्रतीक्षा में है ।
राम भी संसार में
कहीं खो चुके
रामत्व को ढूंढ़ रहे हैं ।....अरविन्द

मुश्किल है

मुश्किल है तेरी गली में बार बार आना।
मुश्किल है तुम्हें देख वहां मेरा मुस्काना ।

हद तो समुद्र की भी होती होगी कही न कहीं।
मुश्किल है बेहद गहरे अनुभव को लांघ पाना।

वे शब्द भी दे दो जो तुम्हें बयाँ कर सकें ।
मुश्किल है भाषा की गरीबी को कह पाना।

बादलों की ओट से झांकना तेरी आदत है।
मुश्किल है मेरी तुम्हें जमीन से पकड़ पाना।

बहुत हैं ऐसे जो हरदम प्रेम को ही पुकारते हैं ।
तुम सामने होते हो नहीं कह पाता कह पाना।

एकांत में पुकारता हूँ झलक दिखा जाते हो ।
अच्छी नहीं है आदत तेरी यूँ छुपना छिपाना ।
..............अरविन्द...

क्यों नहीं दिखता

अपरूप से भरी दुनिया में रूप नहीं मिलता
दिल में छिपा है जो बाहर क्यों नहीं दिखता ?....अरविन्द

अपने मल्लाह के साथ

अपने मल्लाह के साथ
घूम रहा हूँ
उसके ही सागर में,
इस तनुत्र नौका में।

प्रवाह के मध्य
जहां धारा दुर्गम और दुर्दमनीय हो जाती है
मेरा मल्लाह मुस्कुराते हुए नाचता है,
लहराते हुए गाता है ।

मैं समझ नहीं पाता हूँ कि
मुझे डराता है
या कि मेरे डर को भगाता है ।
मैं समझ नहीं पाता हूँ ।

नदी की उफनती लहरें ।
मेरे इर्दगिर्द तैरते
नदी के विकराल जीव ।
गूंजती नदी की अनुगूँज ।
कभी दहकता सूरज ।
कभी दमकती चाँदनी ।
कभी तेज बहती हवा की
फुफकारती आवाज ।
कभी बादलों की गरजती
फुत्कार।

कभी आती उषा में
गाते पक्षी।
कभी उतरती संध्या में
झलकती विभावरी।

कुशल मल्लाह के साथ
मैं नौका में हूँ।
मैं नदी में हूँ ।
इसी मल्लाह ने मुझे
धारा के विपरीत रख
प्रवाह के प्रभाव को
निर्भय हो दिखाया है ।

आशंका ।
भय।
अपरिचित परिचय ।
दुबकता विश्वास ।
संकोची उल्लास।
और अस्फुट वाणी में
मैने करबद्ध प्रार्थना की ।

बच्चे की तरह पल्लू पकड़
किनारे पर जाने को कहा ।

मल्लाह ने सुना
मल्लाह मुस्कुराया और
दूर से उसने मुझे
सप्तरंगी किनारा दिखाया ।
मुझे स्निग्ध नयनों को कोरों से
भरमाया।
मैं अभी तक नदी में हूँ।.......अरविन्द

आओ ! बन्धु !!

आओ ! बन्धु !!
बार्ध्यक्य को उत्सव बनाएं।
नाती, पोते ,पोतियों संग खेलें
क्यों मुहं बिचकाए ?

अकेले होना , असंगी होना
बुरा नहीं ।

बुरा है अकारण
मुहं ढक कर सोने का
बहाना ।

बुरा है बेमतलब
उदास होना।
बुरा है मार खाई ततैया जैसे
झुंझलाना, पंख फडफडाना।
बुरा है शब्दों को
नीरस बनाना,
उन्हें कडवाहट में डुबोना।

बुरा है बार बार
रक्तचाप भांपना ।
हकीमों के यहाँ चक्कर लगाना।
सहानुभूति बटोरना।
दोष ढूंढना और
बहू-बेटियों पर
खीझ उतारना बुरा है।

बुढापा तो सौगात है
सौभाग्य का प्रभात है
अनुभवों के आनन्द की
धीमी बरसात है
मूर्खताओं को देख
मुस्कुराने की बात है।

निकालो अपने ही बनाए
खोल से बाहर निकलो ।
कुदरत की उठान को देखें
बाहर आये।

गजगामिनी , मधु भामिनी के
स्वनिर्मित सौन्दर्य
प्रकोष्ठ में जाएँ।
बीत गये यौवन की
मधुस्मृति में खो जाएँ।

कुसुमायुध के धनुष को
आवाहन की टंकार सुनाएँ।
सोये हुए शक्तिपुंज को
ललकारें,
झिंझोड़ कर जगाएं।
अपने वार्ध्यक्य का उत्सव मनाएं।

देह अशक्त है, हो।
मन की आसक्ति को बुलाएं।
जीवन का मूल
जिजीविषा है, उसे उदास हो
क्यों भगाएं ?

अंततोगत्वा तो जाना है
फिर अभी से क्यों
यम से संवाद को अकुलायें?
खाली बैठने की कला को
फिर से अपनाएं।
बीत गया संघर्ष सारा
अब नाचे गाएं, उल्लसित
उत्सव मनाएं।.
आओ !बन्धु !!
जीवन राग गुनगुनाएं ।...अरविन्द

शनिवार, 27 सितंबर 2014

सुनो !

सुनो  !
महेश्वर के
निनादित डमरू से निकले
सूत्रों को , तुमने
सात स्वरों का संगीत दिया।
लय के प्राण
स्निग्ध स्वरों में गुंजरित किये ,
जीवन को रस दिया ।
मुझे जीवन की
 वीणा देते समय
तुम जानबूझ कर भूल गए. प्रभु।
केवल तीन तार की वीणा देकर
मुझे भेज दिया ।
कहा कि इस वीणा से
स्वर्गिक संगीत बुनूं ,
नाद की झंकार में
बहुवर्णी लय  ताल से
तुम्हारी प्रसन्नता के
आह्लादित स्वरों को सुनूं।
भोला मैं ,
तुम्हारी मुस्कान में छिपी
धूर्तता को समझ ही नहीं सका।
नहीं जान सका कि
छलिया छल रहा है।
चुपचाप वीणा ले
उतर आया इस
निविड़ एकांत के
मानुषी जंगल में
तुम्हें संगीत सुनाने के लिए।
तुम्हें रिझाने के लिए ।
जैसे ही तार छेड़े
विसंवादी स्वरों ने
कर्ण कुहरों में कोहराम मचा दिया।
पक्षी मुझ पर हँसने लगे।
वृक्षों ने मुहं फेर लिया।
बहुत प्रयास किया प्रभु
कि इसकी तीन तारों को कसूं .
देह की तार क्या छेड़ी
अनघढ़ नाद बेचैन कर गया।
मन की तार को अभी छुआ ही था
कि कामनाओं की चीत्कारें
अतृप्त वासनाओं की दमित
पुकारें ,
बेसुरी तान में चिल्लाने लगीं।
मुझे तुम पर बहुत
गुस्सा आया , पर तुम
दूर कहीं सातवें आकाश में बैठे
मेरी झल्लाहट पर
प्रसन्न होते होगे -- लगा।
तब सोचा कि देखूं तो सही
इस जीवन वीणा की
तीसरी तार कैसी है ?
शायद यहाँ से ही
ऐसा संगीत उत्सर्जित हो
जो तुम्हें भा जाए।
मैने छुआ
आत्मा की इस तीसरी तार को
मूक ,अशब्द ,आलसी ,
मौन ,बेहोश तार।
निष्प्राण !
सोये हुए जिद्दी बच्चे सी
ऊँ ऊँ कर चुप हो गयी।
बहुत प्रयास किया
आजतक मोहन मोहक
संगीत न उत्पन्न हुआ।
तोड़ना चाहते हुए भी
मैं इसे तोड़ नहीं सकता।
अब लोटा लो अपनी यह वीणा
तिलंगी चीजें मुझे पसंद नहीं हैं।
देना चाहते हो, तो
पूर्णता दो
फिर संगीत सुनो और
खुल कर विभोर हो
आनंदकंद तब आनंद लो ,दो। ................ अरविन्द



शुक्रवार, 26 सितंबर 2014

नहीं प्रभु !


नहीं प्रभु !
सब छोड़ सकता हूँ।
 
यह काम , यह क्रोध
यह लोभ ,यह मोह।
सब छोड़ सकता हूँ।
ये सब
अंधी  बंद गली में फंसे
बच्चे की आतुर चीख है।
किसी असहाय हो चुके
बलवान की
उच्छिष्ट भीख है।
ये सब -
लिजलिजे पश्चाताप के
हेतु हैं।
रेतस् के ऊर्ध्वगमन के
अवरोधक हैं।
मृगतृष्णा की फाँस  और
मृत्यु के बोधक हैं।
सुख के शोधक नहीं ,
आनन्द  के शोषक हैं।
ये सब छोड़ सकता हूँ।
छोड़ सकता हूँ --
इन पाँचों तत्वों के संघठन को।
विसर्जित कर सकता हूँ
पृथ्वी को पृथ्वी में .
 
उंडेल सकता हूँ जल को
जल में।
प्रवाहित कर सकता हूँ
दसों प्राणों को
दिशहीन बहती
हवाओं में।
सहस्रांशु की किरणों में
समर्पित की जा सकती है
अपनी तेजोमयी
तेजस्विता।
बिना किसी राग के।
अनंत ब्रह्माण्ड के शब्द में
लय  कर सकता हूँ
अपने आंतरिक और
बहिर्गत शब्द  के
नाद को , निनाद को
निःसंकोच।
पर नहीं छोड़ सकता प्रभु
अपने अहं को।
यह अहं ही है कि
मैं मैं हूँ और तुम तुम।
यह अहं ही है कि
तुम्हें पाने को
फलांग जाता हूँ गहरी
अगम्य मन की खाइयों को।
अहं ही है जो मुझे
वासना के उत्तुंग
हिमालय से कूदने का
साहस देता है।
अहं के कारण ही प्रभु
न मैं मरता हूँ  और न तुम।
हम दोनों की चिरजीविता है
यह अहं।
क्यों  छोड़ूँ इसे ?
इसी के कारण तो
मेरे होने का उद्देश्य ,
तुम्हारे होने का प्रयोजन
सिध्द होता है।
इसे बना रहने दो नाथ
झीना आवरण है।
हम दोनों के
आनन के शाश्वत
सौंदर्य का।
उन्मुक्त आनंद और
स्वच्छंदता के सुख का  । ………… अरविन्द





गुरुवार, 25 सितंबर 2014

बरसात ने आकर
मैदान में अकेले खड़े
रावण के कागजी पुतले को
भिगो दिया ।

वह प्रतीक्षा में है
अब अग्नि दाह
कोई कैसे करेगा।

इस कागजी रावण को भी
राम की प्रतीक्षा है ।
इसीलिए तो हर बर्ष
जलने के लिए
मैदान में आ धमकता है।

राम नहीं आ रहे
वे भी
अपने पुतलों को ही
भेज देते हैं ।

रावण भी राम की
प्रतीक्षा में है ।
राम भी संसार में
कहीं खो चुके
रामत्व को ढूंढ़ रहे हैं ।....अरविन्द

अरविन्द -दोहे

अरविन्द -दोहे
अपने घर से निकल कर , बाहर आकर देख ।
दुनिया बैठी चाँद पर ,तू लिखे मिट्टी के लेख । ।
--------
भरम सदा मुखरित रहे ,सत्य सदा ही मौन।
मृगतृष्णा के जगत में दूर मुक्ति का भौन। ।
--------
अहंकार मय जीव यह ,आत्मप्रवंचन लीन ।
तलफत फिरे जगत में ,ज्यों कांटे में मीन । ।
------
आगत विगत सु गत हुआ ,गत गत मांहि समाय।
सुगत कहीं आकाश में ,ठिठुरत सा मुस्काय । ।
-------
मन बालक या जगत में ,सपने माहिं मुस्कात ।
जगत पींजरा सुवर्ण का ,इच्छा फंद लगात। ।
--------
बहुभाषी यह संसार ,कांव कांव ही कांव।
जिसे केकी पिक हो प्रिय ,नहीं इहां ठाँव। ।
---------
नवजात शिशु माँ अंक में ,सोवत है मुस्काय।
माया के इस जगत में ,ज्यों ब्रह्म खड़ा लुभाय। ।
---------
परमात्मा को जगत में ,ढूंढत जग बौराय।
पुष्पित प्रति प्रसून में ,परमात्मा मुस्काय। ।
--------
आत्म तत्व को लखे नहीं ,देह देह भरमात ।
उलटा कीर लटकत फिरे ,प्रेम प्यार रटात। ।
--------
बहुप्रपंची ये पींजरा ,तामें पंछी जीव।
अहंकार भ्रम को रचे ,अंतर न दीखे पीव । ।
--------
भाँति भाँति के रूप रंग ,भाँति भांति के जीव।
वसन कहीं ऊपर धरा,अर्ध अनावृत शरीर । । ............. अरविन्द

हरि बोल

नितरायी रात ।
निताई साथ ।
हरि बोल।...........अरविन्द 

अंश हूँ

अंश हूँ
शुचिता के सागर का
निर्मल प्रेम की
परिणति हूँ।

कहाँ से मिले
मलिन वस्त्र
विकृत अहंकृति के
अहंकार का
पुतला हूँ,क्यों?

इच्छाओं का ज्वलित बवंडर
कामनाओं का पुंज,
निजता का भग्न दूत
अस्थिर चित्त का
नर्तन हूँ।

कहाँ गया वह ब्रह्म सरोवर
कहाँ गयी शांत सरिता
कहाँ लुट गयी
आनंद धरोहर
कहाँ छिपी ज्ञान सविता।

झूठा है सब शब्दजाल यह
झूठी मान उपाधि सब।
झूठा है संसृति का केतु
झूठी अस्ति का हेतु सब।

मिथ्या अस्थि बंधन सारा
मिथ्या चंचल प्राण विकल।
सार्थकता के नाथ परात्पर
क्यों छुटा नाद परा अविकल।

ग्रंथि बड़ी गहरी है
इसका मूल ढूंढ़ न पाया हूँ।
शांत मन:स्थिति मन मसोसती
संभाल नहीं मैं पाया हूँ।

उपलब्धि सब शून्य हुई है
अर्थहीन जगती सारी।
व्यर्थ जन्म और व्यर्थ मृत्यु है
व्यर्थ प्रकृति विकृति सारी।

जीवन अथक यात्रा केवल
समझ नहीं पाते है ।
किसी वृक्ष को नीड़ समझ
अकारथ पिटे जाते हैं।....अरविन्द

अरे! ओ रे मेरे मौन !


अरे! ओ रे मेरे मौन !
देह में भटकती
इन्द्रियाँ जब थक हार कर
अपनी अपनी खौह में
चुपके से दुबक जाती हैं,
तब हे मेरे मौन
तुम
बिना बुलाय अतिथि से
चुपके से
मेरे अंतर में उतर आते हो।

थका हारा मैं
बेहोश कर दिए गए
किसी मरीज -सा
तुम्हारी गोद में
चुपचाप सो जाता हूँ।

प्रभु ! कहाँ से भेज देते हो
यह गुदगुदाता मौन
मेरी स्वप्निल आत्मा को
जो जिद्दी बच्चे सा
कुरेद कुरेद कर जगाता है ।

गहराती नदी में घूमते
भंवर --मन में
उतरने लगती हैं
आकृतियाँ ।

चतुर्भुज रूप पर
लहराता मयूर पंख ।
स्वर्णमयी बांसुरी में
लहराती हवा का
सुरमयी संगीत।
रक्ताभ होंठों पर
झूलते नीलाभ हाथ।
सागर के लहराते आँचल में
मुस्कुराती ललिताम्बा।
ज्योत्स्ना के माधुर्य में
भूशायी मैं
अहोश शिव
उत्कीर्णित वक्ष पर
नाचती शिवा की अचंभित मुद्रा ।
पुनः अन्तस्थ के
संकोच से बहिर्गत
रक्तिम रसना।

सचमुच यह मौन
मुझे आकाश के विराट
अम्बुधि में पटक देता है ।

ऐसा आकाश जहाँ
सहस्र फन
पर मैं ही नृत्य निरत हूँ।
मैं नाचता हूँ या
वह मुझे नचाता है-
कोई अंतर नहीं लगता।
मैं जानता हूँ , अजानता हूँ ।

यह मौन अहोशी
मुझे बहुत प्रिय है।
जैसे माँ को बालक।
बच्चे को खिलौना।
भूखे को रोटी।.........अरविन्द

कितना मुश्किल है

कितना मुश्किल है
अपने ही हाथों से अपने
मोह की गाठों को खोलना ?

किससे कहूँ ?
कौन करेगा मेरी सहायता ?
कोई है जो खोल पायेगा
मेरी गांठे ?

सघन मोह की
लुब्ध अपघातें ?

कोई भी नहीं है ।

सब अपने अपने मोह के
दुर्गम दुर्ग की
अंध कारा में बंद,
मरू मारीचिका में
अनजाने सुख की तलाश के
धृतराष्ट्र हैं।

वे क्या ग्रंथिया खोलेंगे
इन्हें तो निज में
निजता की ग्रंथि नहीं दीखती ।

कहाँ जाएँ, किससे कहें ?

मोह
आत्म की स्वच्छता
चुरा ले गया।
मन की निर्मलता नहीं रही ।
वाणी सौम्यता खो बैठी ।
कर्मों का सत्व नष्ट हो गया ।
पंकिल संबंधों के दाग मिले ।
तेजस्वी सात्विकता गुम हो गयी ।
कुछ भी पास नहीं रहा।

स्वतंत्रता ध्वस्त ।
स्वछंदता नष्ट।

मैं याचना करना चाहता हूँ ,प्रभु ।
संकोच पकड़ लेता है ।
शर्मसार हूँ
कोई उत्तर नहीं है।

अब भयभीत हूँ
कि उसकी कृपा से मोह गया, तो
मैं कहाँ रहूँगा ?.......अरविन्द

रविवार, 7 सितंबर 2014

अनुग्रह

आभार प्रभु आपकी
अनंत कृपा का आभार।
लिया तुमसे बहुत कुछ
ज्ञान,अर्थ,अर्थार्थ प्रेम साकार।
बहुत आभार।
तुमने क्यों नहीं माँगा था
हिसाब?
आज कहा है ,तो कहो
क्या क्या धरुं
चरण पर अनुभार।
दांत से पकड़ा कि
चाहे हाथ से,
अब लोटाना है मुझे
अवनत विनम्र माथ से।
पुन: निवेदन है प्रभो
लौटा नहीं सकता
प्रेमपूर्ण ज्ञान हे अहो।
अर्थ हुआ दुर्वह
लौटाता हूँ विभो।
अन्यथा न लें मेरी प्रार्थना
निर्भार करना चाहता हूँ
तव आत्मा।........अरविन्द

शुक्रवार, 5 सितंबर 2014

अरविन्द कवित्त

अरविन्द कवित्त
ललकारते संसार को फटकारता हूँ मैं अभी ,
ज्ञान औ प्रेम के अद्भुत कुछ तीखे उपहार हैं
अपनी अपनी मैं का सुख सबको प्यारा लगे ,
ईर्ष्या ,द्वेष ,प्रतिशोध पाखण्ड के भरमार हैं।
एषणा का पूत मानव अपूत स्वार्थ दास हुआ,
दुर्भावना का दूत हुआ दुर्वासना की मार  है।
झूठा तप त्याग सब  नेम योग यज्ञ ,याग ,
पाखण्ड हुए सम्बन्ध सब अहंकार अंगार है।
-----------
2 .
तुच्छता त्याग नर निज स्वरूप ध्यान कर
तू तो शुद्ध ब्रह्म अज दृश्य को प्रकाशी  है।
तुम्हारे ही अज्ञान ने जगत का प्रपंच रचा ,
अहं का संहार कर तू तो पूत अविनाशी है।
पाहन से देव  सारे  मूर्छित  मूर्तिवत जान ,
पत्थरों को पूज नाहिं तू सहज सुखराशि है।
जीव तू ईश्वर अंश मोह के आभास लिप्त
माया के प्रभाव से तू काहे को प्रभासी है।
-------
3 .
बड़ी ही अनोखी बात दुनिया में देखि जात
जिन्हें हम पढ़ाते थे वे आज हमें पढ़ाते हैं।
काव्यशास्त्र पास नहीं काव्यदोष भान नहीं ,
अभिधा में कही बात सन्दर्भों माहिं जाँचें हैं।
आलोचना निमित्त लो कृति कहीं फैंक देते
खामखाह  कृति  भीतर कृतिकार  भाँपे हैं ।
अंधों के हाथ  जैसे लाठी कोई  आन दीनी
बिना ही विचारे बेचारे इत उत घुमाते हैं। …………अरविन्द


गुरुवार, 4 सितंबर 2014

-क्षणिकाएँ

न आदत ही बदल सके न तक़दीर को हम।
जैसे हैं वैसा भी तो रहने नहीं देते हो तुम ।
--------
बन्धनों की क्या औकात हमें बाँध लें।
हम ही हैं जो जानबूझ कर बंधे बैठे हैं ।
---------
आकाश की नीली आँखों से वह निहारता है मुझे।
मैने ही अभी तक उसे खुलकर नहीं पुकारा है।
--------
न पाने के तो सैंकड़ों बहाने हैं ।
उसका हो के तो चल हर जगह वह है।
---------
हे मेरे मन !
अनमना बन।
-------

बहुत गहरे में उतर आयें
तो स्तब्ध उदासियाँ हैं वहां।
सतह पर तो केवल
बुलबुले नाचते हैं।...अरविन्द
----------------------------------------क्षणिकाएँ --------------------------------------------

जख्म देने से पहले

अपने दर्द को मुस्कान में छिपा लेते हैं हम।
बेगानों को घर का गर्भ गृह दिखाया नहीं करते।
-------
नयन मूंद कर उतर जा ,गहरे मन में झांक ।
वहां विराजे ब्रह्म वह ,आँक स्वयं को जांच।।

------
नाच नचाता मन हमें ,दूसर का नहीं दोष।
भीतर दबी लालसा, भरा हुआ असंतोष ।।
---------
भोर तो होगी ही हर रात की
कौन जाने कौन जागते मिलेंगे।
-------
तुम्हारे घर के सामने बैठ कर पीयूंगा शराब ऐ खुदा
तुम्हें भी पता चले कि तेरी दुनिया कितनी ख़राब है ।
-------
खुदा के घर के सामने बैठ पीयूंगा शराब।
सुना है बिगड़ों को पहले संभालता है वह।
---------
शराब न होती, बड़ा मुश्किल होता जीना
उसने मुश्किलें दीं ,शराब ने आसां कर दिया।
-------
तेरी मस्जिद के बाहर बैठ नित शराब पीता हूँ
तू मुझे बना कर भूल गया ,मैं तुम्हें पीकर भूलता हूँ ।
--------

तूफ़ान सह कर जब निकलता है आदमी।
बदल जाती है रंगों- सूरत और सीरत भी ।
---------
सिर के बाल कभी के उड़ा दिए थे बच्चों ने
पोते ,पोतियां ,दोहते अब तबला बजा रहे हैं।
------------
प्यार की माला जपने वाले हजारों
देह के किनारे पर डूबे हमें मिले हैं।
----------
जख्म देने से पहले जो सोचा होता
दर्द भी आदमी को गूंगा बना देता है।
---------
ग़ालिब ,मीर ,जफ़र इकवाल गए जहाँ से
ख्याल अभी भी दुनिया में कम नहीं हुए हैं। ………अरविन्द

देख ली दुनिया

देख ली दुनिया बहुत ही घूम कर जटिल
झगड़ना तुझी से जी भर है बिगड़ना मुझे।

नचा नचा कर नाच बेहद थका दिया तुमने
कितने पर्दों में छिपा तू देखना अब है मुझे।

खत्म हुए तारे सभी ,चन्द्रमा भी बुझ गया
अब तो आ जा सामने या तड़पना है मुझे ।

ठंडी हवाओं में तू तो सुख से है सो रहा
इस झुलसती गर्मी में अभी जगना है मुझे।

कब तुम्हारे अंक हिमानी में आ मैं सिर धरूँ
कुछ तो कृपा करो प्रभु मेरे कि सोना है मुझे।

तुमने ही तो कहा था कि हाथ थामो जरा
जिंदगी के गीत को सुनना सुनाना है मुझे।

जीना मुश्किल कर दिया है निगोड़ी प्यास ने
प्यास जलती हुई देकर तुमने तड़पाना मुझे।

कब तलक मैं द्वार पर दीपक जला बैठा रहूँ
कितनी आरती स्तुतियाँ ,मनुहार करनी है मुझे। ………अरविन्द

अरविन्द दोहे--

भारत वर्ष में आ गये ,नहीं मिला आराम ।
जगह जगह है गंदगी,तड़प रहा भगवान।।
-------
मक्खी मच्छर भिनकते, काक्रोच भरमार।
भ्रष्टाचारी सज रहै, हर कुर्सी पर आज।।
---
मुल्क बहुत बीमार है, जनता है लाचार।
रास्ता नाहीं सूझता, कैसे करें उपचार।।
---
रब्ब आसरे मुल्क हुआ, रब्ब आसरे लोग।
रब्ब बेचारा क्या करे,मिले मिलावटी भोग।।
--------अरविन्द दोहे------------

मंगलवार, 5 अगस्त 2014

जिंदगी गीत है

कठिनाइयां बहुत आती हैं रास्ते में
जिंदगी गीत है क्यों नहीं गुनगुनाते हो।
चेहरा मुस्कुराने के लिए मिला है जालिम
क्यों मासूम महबूब को पत्थर बनाते हो ?
थाम लो हाथ रास्ता आसान कर देंगे
क्यों नहीं सहयात्री को हाथ थमाते हो ?
मंजिल जब एक हो ,रस्ते अलग नहीं होते
क्यों इधर उधर अपने पाँव डगमगाते हो ?
तेरे लिए तो खोल दिए है दरवाजे हमने
रौशनी में कदम रखने से क्यों घबराते हो ?………… अरविन्द







आसमान पर

आसमान पर जाकर ज्योंही देखता हूँ नीचे
हर चीज छोटी हो जाती है ऊँचे उठकर ।
-------
बिखरने पर आ ही गए हैं
तो बिखर जाएंगे मिट्टी की तरह।
किसी के तो काम आएंगे
सिर पर छत बनाने के लिए।
----------
ख्वाहिशों नहीं ये मेरी बस रक्तबीज हैं
जितना दफ़नाऊँ कई गुणा जन्म लेती हैं।
--------
कैसे होंगे वे ,जो तोड़ नहीं पाये बंदिशें
न कविता ही समझते हैं ,न भावना को।
--------
हमने भी कुछ बाज पाल रखे हैं मन की कोटर में
अपना ही माँस खिलाते हैं और मुस्कुराते हैं हम ।
---------
नित सुबह उठ शाप देना यही काम है
अक्सर जो लोग मंदिरों में माथा टेकते हैं।
--------
दूसरों में दोष देखना गिन  गिन  कर
दोस्तों ने आजकल यही शुगल रखा है। ………… अरविन्द






सोमवार, 4 अगस्त 2014

तुम्हारे घर के सामने

तुम्हारे घर के सामने बैठ कर पीयूंगा शराब ऐ खुदा
तुम्हें भी पता चले कि तेरी दुनिया कितनी ख़राब है ।
-------
खुदा के घर के सामने बैठ पीयूंगा शराब।
सुना है बिगड़ों को पहले संभालता है वह।
---------
शराब न  होती, बड़ा मुश्किल होता जीना
उसने मुश्किलें दीं ,शराब ने आसां कर दिया।
-------
तेरी मस्जिद के बाहर बैठ नित शराब पीता हूँ
तू मुझे बना कर भूल गया ,मैं तुम्हें पीकर भूलता हूँ । ………अरविन्द

रविवार, 3 अगस्त 2014

आज अभिव्यक्त

दोस्ती की हो तो दोस्ती का अहसास जानोगे ।
व्यापारियों के लिए दोस्ती बसशुगल होती है।
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दुःख,दर्द, कष्ट, पराजय सब सह लेता है आदमी।
नहीं सहा जाता वह दर्द जो पाखंडी दोस्त देता है।
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दोस्ती के अहसास ने ही जिन्दगी आसान कर दी ।
वरना इस जिन्दगी में जीने लायक रखा ही क्या है ।
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दोस्ती के भी दिन होते हैं, यह तो अभी पता चला।
यह तो सदा बहार उत्सव है, हर दिन मनाया जाता है।
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तुम्हें वासंती रंग में देखता हूँ ,वसंत उतर आती है ।
हमारे यहाँ तो सारा साल पतझड़ ही रहा करती थी।
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यार दिलदार मिले ,रब्ब की इनायत है ।
ज्यादातर तो लोग मुहं में राम राम रखते हैं।
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बड़ी मासूमियत से आते हैं , दिल चीर जाते हैं।
यार हैं अपने कि हम परदे उठा नहीं सकते ।
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दिल से बने रिश्ते को दिल से सम्भालियेे
दिल में न रखा तो दिल दिल ही न रहेगा।
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ढूंढता था मैं जिसे नित गिरि कन्दराओ में
वह प्रतीक्षा में था मेरी ही अपनी गुफाओं में ।
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चिंता क्यों करता है मेरे मन ।
मुक्त करो अभिव्यक्ति
खोलो रे , जड़ बंधन।

चेतना में सत्य विराजित
अनुभूति अखंड
अविभाजित,
तू सोच रहा पर को
जो है बंधन ।
कटु नहीं सत्य,
न मधु है।
कटुता , मधुता
मोहित के मूढ़  बंधन।
रे मन !
अभिषेक करो
अपने ललाट पर
अनुभूति के सत्य का
बेलाग
अभिव्यक्त
सुरभित चन्दन ।

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दिल से मिले दिल जख्म दे नहीं सकते।
शर्त एक ही केवल दिल बनावटी न हो।...अरविन्द
  

गुरुवार, 31 जुलाई 2014

प्रेम मुक्ति का पंथ

प्रेम मुक्ति का पंथ ,प्रेम नहीं बंधन होता
प्रेम अहं अतिक्रमण, स्व- विसर्जन सोता ।
प्रेम सौंदर्य का निकष , जीवन की जयति ,
प्रेम न इति ,न भीति ,न ही है यह भ्रान्ति।
प्रेम हृदय का कमल खिले मानस सर में ,
प्रेम सुरभि आत्म विमल की दिशि दृषि में।
कामना लिप्त तृषा को प्रेम नहीं कहते हैं ,
वासना उद्दीप्त हृदय प्रेमिल नहीं सहते हैं ।
प्रेम बांधता वहां जहाँ स्व अविकारी नहीं है ,
अतृप्ति ,आस प्यास बंधन है ,प्रेम नहीं है ।
ससीम असीम प्रेम की धरा ,खिली पवन है।
प्रेम जहाँ बंधन हो जाए शापित वह मन है ,
दिव्य विभूति समझ न पाये ,नग्न हुआ तन है।
नहीं जानते प्रेम मन्त्र को ,रटते प्रेम रटन है ,
प्रेम पंथ प्रकाश परम का ,आत्मा का धन है। ............. अरविन्द

सोमवार, 28 जुलाई 2014

असमर्थता

असमर्थता

किसी कूट काव्य की पंक्ति हो तुम ।
आज तक अर्थ ढूंढ़ नहीं पाया हूँ मैं।
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कण कण में रचा है खुदा ने खुद को
जानता हूँ फिर भी ढूंढ़ नहीं पाया हूँ मैं।
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बुतों को तराशना भी इबादत ही होगी
चाहते हुए भी इन्हें तोड़ नहीं पाया हूँ मैं.............. अरविन्द



शुक्रवार, 25 जुलाई 2014

दिल्लगी

रुलाता भी है और सिसकने भी नहीं देता
यह इश्क़ ही है जो ऐसी दिल्लगी करता। ………अरविन्द

बुधवार, 23 जुलाई 2014

दरकती है ईष्टिका

दरकती है ईष्टिका
राग मंदिर की
वैसे ही जागती है
ज्ञानोद्दीप्त मुनि मन में
विराग अनल हवन की।
स्थिर यहां
असंभव आकाशकुसुम
सम्बन्ध -च्युत
परिवर्तनशील
भव -विभव जीवन
मुक्त -उन्मुक्त
हो रही
मन वाञ्छा भुवन की।
वितान का
अस्थिर आच्छादन
स्व -निर्मित
अज्ञान भवन
मोह तान
मन -भावन।
साक्षात हुआ सत्य
प्राकृत की कृपा
अनुरक्त राग हुआ ध्वस्त।
मुक्त हुआ भुक्त
आरम्भ की उड़ान
उन्मुक्त गगन की।
मूल को मूल की चाह
अश्वत्थ के जीर्ण पर्ण
स्वतः चाहें दाह।
मिटी चाह
क्षण -भंगुर जीवन की।
सार्थक
नहीं संसार ,
सार्थक
न आचार ,विचार
दुर्निवार।
सार्थक
न देह ,मन
भौतिक व्यवहार।
सार्थक
न युवा -यौवन
स विकार।
सार्थक नित्य
आत्मगत भाव का
स्वभाव।
फिर क्यों न इच्छा हो
 अतनु की । …………… अरविन्द