शुक्रवार, 28 फ़रवरी 2014

आज मैं कुछ यूँ लिखूं

आज मैं कुछ यूँ लिखूं
भावना की भीड़ में
मित्र शत्रु क्यों पख़ूं ?
लहर थी निकल गयी
अब लकीर क्यों पिटूं ?
आज मैं कुछ यूँ लिखूं।
संसार जगता स्वप्न है
मन संकल्प  रत्न है --
अनुभूतियों के जंगल में
मनुष्य अविरत यत्न है।
कटु मधु सब प्रपंच है
क्यों न सुख की बात कहूं ?
आज मैं कुछ यूँ लिखूं।
अपनी अपनी चेतना है
अपनी अपनी देशना है
किसी को वेदना  प्रिय
किसी को सुख लेखना है।
सुख दुःख के पालने में
सिक्त व्यक्ति प्रेरणा है।
क्यों न अनुरक्त हो रहूँ ?
आज मैं कुछ यूँ लिखूं।

मित्र सारे मुस्कुराये
विपरीत नहीं सकपकाये ।
लहलहाते आननों ने
प्रीत के कुछ गीत गाये ।
स्वयं को ही परख लिया
क्यों न अब स्व को गहूं ?
आज मैं कुछ यूँ लिखूं।
कर्म कुदरत ने दिया
नृत्य खुद ही कर लिया
स्वयं को कर्ता समझ
मिथ्या भ्रम को रच लिया
ज्ञान तो अब है मिला
छोड़ दूँ अब मैं ,न अटकूं।
आज मैं कुछ यूँ लिखूं।
जो मिला अद्भुत मिला
शेष नहीं कोई गिला
असत सत सत्य खिला
कर्म नहीं शेष रहा
अकर्ता बन निमित्त बनूँ
आज मैं कुछ यूँ लिखूं।
धन्य धन्य भाग है
धन्य सब अनुराग है
धन्य मेरे रूप सारे
अब धन्य ही सौभाग है।
धन्यता के आलोक में
भगवत्ता को चहुँ।
आज मैं कुछ यूँ लिखूं। ………… अरविन्द





गुरुवार, 27 फ़रवरी 2014

वृक्ष होना

वृक्ष  होना
जागता हुआ रब्ब  होना है ।
अपनी हौंद  को
जमीं में बहुत गहरे
रोप देना है।
जमीन में होकर भी
अस्तित्व का
खुला आकाश होना है।
डालियों और टहनियों में
फैल कर
बेलोस चिड़ियों ,घुगियों
गुटारों की चहचहाट का
घर होना है।
वृक्ष होना जागता हुआ रब्ब होना है।
गिलहरियों की दौड़ धूप
उनके तीखे नाखूनों की
चुभन की
गुदगुदी को वृद्ध सा सहना
कुदरती मुस्कान होना है।
अपने कोमल और गुदगुदे पत्तों में
पखेरुओं के बच्चों को
समेट --
उनका बाप होना है।
शरण में आये का संताप धोना है।
वृक्ष होना जागता रब्ब होना है।
आदमी वृक्ष नहीं हो सकता
न जमीन में गहरे उतर सकता है
न आकाश में ऊँचे उठ सकता है।
स्वार्थ की जंजीरों में बंधा
न अपने पंख खोल सकता है
न दूसरों के सुख को झेल सकता है।
वृक्ष भेद नहीं जानता
आदमी अभेद नहीं मानता ।
इसीलिए वृक्ष रब्ब है
और आदमी
पूरी तरह बेढब है। .......... अरविन्द ( इंदरजीत नंदन के लिए )


बुधवार, 26 फ़रवरी 2014

मुस्कुरा के

लोग हैं कि घर आकर चालाकी दिखा जाते हैं
हम हैं सब देखते हैं और मुस्कुरा के रह जाते हैं । ……… अरविन्द

क्षणिकाएं

अंजामे मोहब्बत का दर्द पूछते हो
जानते होते तो इस आग में न कूदते।
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बसाया है प्यारा यार अपना इस दिल में
इसलिए दिल को ही हम साफ़ करते रहे।
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दिल साफ़ किया है हमने यार को बिठाना है
चेहरों को छोड़िये यह अक्सर झूठ बोलते हैं। ………अरविन्द
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शनिवार, 15 फ़रवरी 2014

हम पुकारते हैं

हम पुकारते हैं
रोज ,उसे अपनी प्रार्थनाओं में
हम रोज पुकारते हैं उसे
मन्त्रों की याचनाओं में .
 पुकारते हैं हम जिसे
उसे
जानते नहीं होते।
न रूप से ,न रंग से
न गंध से , न शब्द
और न स्पर्श से ,
उसे पहचानते नहीं होते।
 जिज्ञासा की तलहटियों में
नाचते प्रश्न --
ज्ञान की लालसाओं में 
नाम देना चाहते हैं
उसे अपना समझना और
उसका होना चाहते हैं।
दृश्य के पीछे की
सत्ता उसे मानते हैं।
अस्तित्व के रचना का
नियंता उसे जानते हैं।
यही
 हमारी आदिम इच्छा
जन्म दे जाती है --
झूठी मर्यादाओं को।
भक्ति की वीथियों और
मन्त्रों की प्रार्थनाओं को।
आदिम इच्छा की ही परिणति है --
हमारे तुम्हारे सब रूप नाम
राम ,घनश्याम
गोविन्द ,माधव
सर्वेश्वर विष्णु धाम।
आदिम  इच्छा ने रच दिए
अनेक ग्रन्थ तथाकथित
 सद्भावनाओं में महान।
हम ,पर जान नहीं पाये
उस अज्ञात की सम्भावनाओं को।
अनुभूति में विदयमान
अज्ञात जिज्ञासा की
परछाइयों को।
नहीं जान पाये अपने
स्व की ही विभावनाओं  को।
एक है वह
 मानकर भी
हमने दे दिया जन्म
 अनेकताओं को।
बाँट दिया उसे
 धर्म की धुंधताओं में
जगत  की विपुल मूर्खताओं में ।
 
रंग रूप सब  उसके न्यारे थे।
ज्ञानी सभी भेदभाव भरे हमारे थे।
इसीलिए हम हो नहीं सके उसके जो
वास्तव में हमारे थे।
पाखण्ड सारा ज्ञान रहा
पाखण्ड सारी साधना
पाखण्ड हमारा ध्यान रहा
पाखण्ड रही  उपासना।
जो तत्व भीतर सिक्त है
हम रिक्त उससे रह गये।
पंथ प्रेम एक था --
हम बहु भेद -पंथ बह गये। …………… अरविन्द




सोमवार, 10 फ़रवरी 2014

अरे !

अरे ! देख लिया होगा
अब तक तुमने --
मुंडेर पर बैठा चाँद ?
रजनीगंधा की क्यारी के पास
भटकते तारे भी --
 देख लिए होंगे अब तक ?
सारी रात बाग़ में ही गुजार दोगी  क्या ?
अब तो पौ फट गयी है।
सुबह चिड़ियों का
चहचहाना भी सुन लिया होगा ?
मधुमक्खी के गुनगुनाते सन्देश को भी
बाँध लिया होगा
अपनी गुलाबी चुनरी के कोने में ?
क्या बादलों के बदलते रंग ने
नहीं बताया कि कोई
भीतर सारी रात ध्रुव तारे सा
 जागता रहा है ?
कब तक तुम्हारा
प्रकृति - प्रेम
हमारे प्राकृतिक प्रेम को
ओस की बूंदों सा लुढ़काता रहेगा ?
कब तक एक लोरी की प्यारी
छाँह के लिए
यह भोला मन
रात  भर जगता ,ललचाता रहेगा ?.......... अरविन्द



आने दो

आने दो चिरागों की यह रौशनी अभी कुछ देर और
अंधेरों ने नहीं मुझे दुनिया की तंगदिली ने रोका है । …अरविन्द



रविवार, 9 फ़रवरी 2014

गुरु ने खोल ली दुकान

गुरु ने खोल ली दुकान
देखो बिक रहा भगवान् ।
काले पीले सफ़ेद नारंगी
टेढ़े मेढ़े लम्बे तिरषे सजे
तिलक, सजी हुई मुस्कान। 
          देखो बिक रहा भगवान्।
मन्त्र दान लो ,दीक्षा ले लो
पूजा -पथ की माला ले लो
सत्संग की हाला भी ले लो
मिटेगा कष्ट कलुष  महान।
           देखो सजी हुई दूकान।
ज्ञान नहीं बस भक्ति चाहिए
गुरु देह की अनुरक्ति चाहिए
तन मन देह  समर्पित चाहिए
गूंगों का अँधा अर्पण  चाहिए
मन  बेहोश का  तर्पण चाहिए
             यही दान दो हो कल्याण।
राम मिलेगा ,श्याम मिलेगा
गोपी वल्ल्भ कान्ह मिलेगा
अर्जुन  दिया ज्ञान  मिलेगा
राधा बनो  भगवान् मिलेगा
              गुरु को सब कुछ जान।
कर्म काण्ड तुम त्यागो प्यारे
पाप पुण्य भय तज लो  सारे
यज्ञ ,हवन सब झूठे हैं  प्यारे
गुरु का पल्ला पकड़ो हे प्यारे
                इसमें छिपा हुआ भगवान्।
पुत्र चाहिए ,तो पुत्र मिलेगा
चित्र सजाओ व्यापार चलेगा
सर्वस्व गुरु के अर्पण कर दो
स्वर्ग तुम्हारे द्वार खिलेगा
                 फल का दान करे महान।
नाम दान लो ,भंडार खुला है
त्रिकुटी खुलेगी स्पर्श मिला है
सातवें द्वार तक ले जायेंगे --
दसवें द्वार गुरु रूप खड़ा है।
                जो यह  बोले  सच्च मान।
प्रश्न करेगा ,गिर जाएगा
जिज्ञासा , तिर न पायेगा
प्यार करेगा भर जाएगा -
गुरु दुविधा से पार करेगा।
                 प्रभु का रूप तू  पहचान।
चरणों में सतलोक पड़ा है
गोदी में तो कृष्ण खड़ा है
हाथों की कोमलता में तो -
सुख सौंदर्य अपार खिला है।
                गुरु में छिपा हुआ भगवान्।
-----------------अरविन्द -------------




            





शनिवार, 8 फ़रवरी 2014

धर्म और धर्माचार में

धर्म और धर्माचार में आजकल सैद्धांतिक शब्दों के साथ ,सिद्धांतों के साथ अनाचार हो रहा है। वे लोग जिन्हें न तो सनातन धर्म का ज्ञान है ,न उनके पास कोई अनुभूत सत्य या प्रयोग हैं ,उन्होंने अपने अज्ञान को छिपाने के लिए भारतीय धर्म साधना के मूल तत्व पर आक्रमण किया हुआ हे। हालाँकि इस क्रिया से मौन साधकों को कोई नुकसान नहीं होता परन्तु अधकचरे लोग असत्य को ही सत्य मानने लग जाते हैं। ऐसे शब्द जिनकी आत्मा और अर्थ के साथ अनाचार किया गया है ,संख्या में बहुत हैं ---जैसे ,सत्संग ,ध्यान ,परमात्मा , गुरु ,गुरु माँ ,मंदिर ,पाठ इत्यादि। आप खुद ही सोचिये कि वे प्रवाचक जो अपने प्रवचनों में हिंदुओं के या सनातन धर्म के कर्म काण्ड का खुला विरोध करते हैं वही इसी कर्म काण्ड में आपाद -मस्तक लिप्त हैं। क्या यह प्रपंच और पाखण्ड नहीं ?तप ,जप ,भजन ,कीर्तन, अनुभव साधना ,कर्म ,कर्म काण्ड ,मन्त्र ,दीक्षा ---और भी अनेक शब्द हैं जिनके  मूल अर्थ ही बदल दिए गये हैं। इसीलिए आज साधना का प्रभाव और परिणाम कहीं दिखायी नहीं देता। केवल दुकानदारी दिखायी  देती है। आज के युग में  सत्य के संरक्षण के लिए ,सत्य के सार्थक अनुसन्धान के लिए और सत्य की निष्ठां के लिए वास्तव में एक और  कबीर की आवश्यकता है। नित -प्रति की खबरों में साधुओं के नैतिक पतन की संख्या प्रतिक्षण बढ़ रही है। जो खुद ही पथ भ्रष्ट हो चुके हो वे किसी दूसरे को क्या मार्ग दिखाएंगे ?तथाकथित गुरुओं के अंधत्व की बड़ी लम्बी पंक्ति है। कबीर ने अपने युग में भी  कहा था  ---जाका गुरु भी अंधला चेला खरा निरंध। यह कल भी सत्य था और आज भी सत्य है। उपनिषद् भी कहता है कि सत्य का मुहं हिरण्य से आवृत है। और यह आज का कटु सत्य है कि असत्य कभी सत्य को प्रकट नहीं कर सकता। आज कल के तथाकथित प्रवाचकों में छिपी प्रति स्पर्धा ,ईर्ष्या ,द्वेष ,झूठ और मेकअप किसी से भी नहीं छिपा है। बेशर्मी की हद्द है। सही साधक और ईमानदार संत ,जिनकी कथनी और करनी एक हो ---ऐसे गुरुजन सचमुच दुर्लभ हैं। कबीर भी कह चुका  है। बाबा फ़क़ीर भी कहते रहे हैं कि जिन्होंने अपना घर नहीं संभाला वे लोगों को शिक्षा दे रहे हैं। फ़क़ीर कितना निर्भीक संत होगा ---यह जानने के लिए उनके साहित्य को पढ़ना जरूरी है। बाबा फ़क़ीर जैसी स्पष्टता ,निर्मलता ,समदर्शिता ,समता ,निस्वार्थ प्रेम आज कल के प्रवाचकों में नहीं मिलता। इसीलिए परमसत्य की परछाई भी कहीं दिखायी नहीं देती। परमसंत कहलवाना आसान है ,परमसत्य का साक्षात्कार आसान नहीं है। वैसे इन लोगो को परमसत्य की आवश्यकता भी नहीं है। .......... अरविन्द

अपना एकांत है

जख्मों  से डरते होते
तो क्यों हम पत्थरों पर चल रहे होते।
मखमली रेत की क्यों करें इच्छा
जख्म भी तो
अपनों से ही तो हैं मिले होते।
अपना एकांत है
जो सिरहाने के कोनों को भिगो देता है
वरना तकियों का सहारा हम
क्यों लिए होते।
भीड़ के चेहरों में भी
अपने को ढूंढते हैं
वरना हम सागर के किनारे
तपती रेत  पर
यूँ न चले होते।
सागर नहीं गहरा
गहरा तो मेरा
विकल मन का कोना है ,
मिलता नहीं इसमें मुझे
मेरा प्रभु ,
मनमोहना है।
कुदरत की हर गली में भटका हूँ
प्रेम से ,
दुनिया को भी जांचा है
बड़े प्रेम से।
जो भी मिला ,पाया
न इच्छा की थी कभी
संभाला है सब कुछ
माना वस्तु प्रभु की।
फिर भी जख्म कुछ गहरे मिले हैं
बेगाने ही सब जगह अपनों में मिले हैं। ………… अरविन्द

शुक्रवार, 7 फ़रवरी 2014

वाह ! मेरे प्रभो

वाह ! मेरे प्रभो ,तेरी लीला तुम ही गहो .
सुंदर वेश बना कर प्रभु जी ,किस -किस को कहाँ बिठाते हो.
ज्ञान का अद्भुत आवरण लगाकर छिपा अज्ञान समझाते हो।
लीलाधारी लीला तेरी अद्भुत न्यारी दुनिया गजब दिखाते हो।
साधु नाचे ता- ता थैया ,आँख बंद कर बैठी मैया मनवाते हो।
भक्त बेचारे हाथ जोड़ कर द्वार खड़े , देख देख मुस्काते हो ।
ऊँची गद्दी ,आसन सुंदर मखमली तकिये हमें बहु ललचाते हो।
मीठी मीठी प्यारी प्यारी बातों से प्रभु मछली बड़ी फँसाते हो ।
अब कृपा करो मेरे माधो ,अपने हो क्यों इतने नाच नाचते हो ।.……… अरविन्द

बुधवार, 5 फ़रवरी 2014

आओ सम्भाले हम !

आओ सम्भाले हम !
खिली हुई केतकी ,
महकती चम्पा ,
लहराता गुलाब
और मुस्कुराता हुआ पीपल
हम संभालें।
मुन्ने की कटोरी में
झांकता चाँद ,
चाँद के भीतर बैठा
खरगोश ,
मुंडेर पर का ,खा ,गा
पढ़ते कौए।
कभी कभी जंगल से आती
कोयल की मधुर कूक
पुकारती हो जैसे प्यासी पिया
कंठ पर रख लेती हो ,जैसे हिया।
आओ ! इसे संभालें।
हम क्यों सहेजें वे दर्द
जो दुनिया ने हमें दिए ?
हम नहीं संभालेंगे वे जख्म
जो अपनों ने मुहं -अँधेरे हमें दिए।
हम छोड़ आये हैं वह नगर
जहाँ ईर्ष्या और द्वेष के जल रहे थे
मन में दीये।
हम संभालेंगे गंगा की लहरों की
चंचल शीतलता
हम संभालेंगे ऊँचे पर्वतों का
धैर्य ,कवच सी कठोरता ,
हम सभालेंगे सूर्य का तेजस
विभा की सौम्यता।
जीवन अभी है शेष और
न यात्रा ही पूर्ण हुई।
तो क्यों सहेजे हम
दुःख ,दर्द और जख्म की गाथा
जो बीत गयी।
न झुका पौरुष कभी
न ही झुक सकता है पुरुष
चेतना में बलवती
आभा प्रभु की।
नहीं हो सकती कभी
कलंकमयी।
सहेजने को मिला है प्यार ,
करुणा ,क्षमा ,प्रगल्भता
तर्कातीत अन्वेषण तथता का
सुंदर आत्म चेतना।
आओ ! सहेजें सर्वांश
विभु संकल्प ,
निर्भ्रांत देशना। ............. अरविन्द ]


 

शनिवार, 1 फ़रवरी 2014

आवारा चिंतन

हमें निर्भय होना चाहिए। निर्भयता ज्ञान -साधना का पहला सोपान है। विशेष कर पुस्तक से ,गुरु और परमात्मा से तो बिलकुल भी भयभीत नहीं होना चाहिए। परन्तु ,कठिनाई यही है कि हम पुस्तक से भी ,गुरु से भी और परमात्मा से भी डरते हैं। पुस्तक से डर  हमें पुस्तक की पूजा करना सिखा देता है। परिणाम हम सत्य से दूर हो जाते हैं और केवल पाठ तक ही पुस्तक को सीमित कर देते हैं। विश्लेषण रुक जाता है तो किसी कबीर को कहना पड़ता है कि पौथी पढ़ि पढि जग मुआ। यही हाल गुरु के साथ है। गुरु से  डरना भी हमें गुरु से सम्पर्कित होने में बाधा  है। हम डरते हैं कि कहीं गुरु नाराज न हो जाए। आप ही बताइये कि क्या कभी कोई कुम्हार मिट्टी से कभी नाराज हुआ है ?नहीं। गुरु चेतना सांसारिक और व्यवसायी चेतना नहीं है। हम जैसे हैं ,हमें बैसे ही गुरु के समक्ष आना चाहिए। अगर हम ऐसा नहीं कर पाते हैं ,तो अर्थ है कि हम बनाबटी हैं और गुरु भी गुरुता से रहित है। अगर हम अपनी चेतना का विकास चाहते हैं तो हमें निर्भय होना ही होगा। निर्भयता हमारी आस्था को अंधी होने बचाती है। वैचारिक विश्लेषण देती है। सत्य का साक्षात्कार निर्भयता से ही हो सकता है। इसी प्रकार परमात्मा से भी डरना नहीं चाहिए क्योंकि वह हमारा मित्र है। हमारे योगक्षेम का संवाहक है। समस्त आध्यात्मिक विकास निर्भय चेतना के ही आश्रित है। भयभीत व्यक्ति न तो स्थायी मित्र हो सकता है ,न ही स्थायी सहयोगी। उसी प्रकार भय देने वाला भी मित्र नहीं है। अगर हमें अपने आत्म तत्व को उच्चतर अभीप्सा तक ले जाना है तो निर्भयता पहला गुण है। भयभीत चित्त परमात्म पथ का पथिक नहीं हो सकता। क्योंकि साधना के मार्ग में हमें स्वयं चलना है। वह हमारी व्यक्तिगत यात्रा है। गुरु और पुस्तक केवल संकेत दे सकते हैं ,साथ नहीं चल सकते। साथ केवल अपने आत्म में संस्थित परमात्म ही होता है। और यह सुविधा का मार्ग नहीं है। ………अरविन्द