गुरुवार, 27 फ़रवरी 2014

वृक्ष होना

वृक्ष  होना
जागता हुआ रब्ब  होना है ।
अपनी हौंद  को
जमीं में बहुत गहरे
रोप देना है।
जमीन में होकर भी
अस्तित्व का
खुला आकाश होना है।
डालियों और टहनियों में
फैल कर
बेलोस चिड़ियों ,घुगियों
गुटारों की चहचहाट का
घर होना है।
वृक्ष होना जागता हुआ रब्ब होना है।
गिलहरियों की दौड़ धूप
उनके तीखे नाखूनों की
चुभन की
गुदगुदी को वृद्ध सा सहना
कुदरती मुस्कान होना है।
अपने कोमल और गुदगुदे पत्तों में
पखेरुओं के बच्चों को
समेट --
उनका बाप होना है।
शरण में आये का संताप धोना है।
वृक्ष होना जागता रब्ब होना है।
आदमी वृक्ष नहीं हो सकता
न जमीन में गहरे उतर सकता है
न आकाश में ऊँचे उठ सकता है।
स्वार्थ की जंजीरों में बंधा
न अपने पंख खोल सकता है
न दूसरों के सुख को झेल सकता है।
वृक्ष भेद नहीं जानता
आदमी अभेद नहीं मानता ।
इसीलिए वृक्ष रब्ब है
और आदमी
पूरी तरह बेढब है। .......... अरविन्द ( इंदरजीत नंदन के लिए )


कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें