हमें निर्भय होना चाहिए। निर्भयता ज्ञान -साधना का पहला सोपान है। विशेष कर
पुस्तक से ,गुरु और परमात्मा से तो बिलकुल भी भयभीत नहीं होना चाहिए।
परन्तु ,कठिनाई यही है कि हम पुस्तक से भी ,गुरु से भी और परमात्मा से भी
डरते हैं। पुस्तक से डर हमें पुस्तक की पूजा करना सिखा देता है। परिणाम हम
सत्य से दूर हो जाते हैं और केवल पाठ तक ही पुस्तक को सीमित कर देते हैं।
विश्लेषण रुक जाता है तो किसी कबीर को कहना पड़ता है कि पौथी पढ़ि पढि जग
मुआ। यही हाल गुरु के साथ है। गुरु से डरना भी हमें गुरु से सम्पर्कित
होने में बाधा है। हम डरते हैं कि कहीं गुरु नाराज न हो जाए। आप ही बताइये
कि क्या कभी कोई कुम्हार मिट्टी से कभी नाराज हुआ है ?नहीं। गुरु चेतना
सांसारिक और व्यवसायी चेतना नहीं है। हम जैसे हैं ,हमें बैसे ही गुरु के
समक्ष आना चाहिए। अगर हम ऐसा नहीं कर पाते हैं ,तो अर्थ है कि हम बनाबटी
हैं और गुरु भी गुरुता से रहित है। अगर हम अपनी चेतना का विकास चाहते हैं
तो हमें निर्भय होना ही होगा। निर्भयता हमारी आस्था को अंधी होने बचाती है।
वैचारिक विश्लेषण देती है। सत्य का साक्षात्कार निर्भयता से ही हो सकता
है। इसी प्रकार परमात्मा से भी डरना नहीं चाहिए क्योंकि वह हमारा मित्र है।
हमारे योगक्षेम का संवाहक है। समस्त आध्यात्मिक विकास निर्भय चेतना के ही
आश्रित है। भयभीत व्यक्ति न तो स्थायी मित्र हो सकता है ,न ही स्थायी
सहयोगी। उसी प्रकार भय देने वाला भी मित्र नहीं है। अगर हमें अपने आत्म
तत्व को उच्चतर अभीप्सा तक ले जाना है तो निर्भयता पहला गुण है। भयभीत
चित्त परमात्म पथ का पथिक नहीं हो सकता। क्योंकि साधना के मार्ग में हमें
स्वयं चलना है। वह हमारी व्यक्तिगत यात्रा है। गुरु और पुस्तक केवल संकेत
दे सकते हैं ,साथ नहीं चल सकते। साथ केवल अपने आत्म में संस्थित परमात्म ही
होता है। और यह सुविधा का मार्ग नहीं है। ………अरविन्द
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