शनिवार, 8 फ़रवरी 2014

अपना एकांत है

जख्मों  से डरते होते
तो क्यों हम पत्थरों पर चल रहे होते।
मखमली रेत की क्यों करें इच्छा
जख्म भी तो
अपनों से ही तो हैं मिले होते।
अपना एकांत है
जो सिरहाने के कोनों को भिगो देता है
वरना तकियों का सहारा हम
क्यों लिए होते।
भीड़ के चेहरों में भी
अपने को ढूंढते हैं
वरना हम सागर के किनारे
तपती रेत  पर
यूँ न चले होते।
सागर नहीं गहरा
गहरा तो मेरा
विकल मन का कोना है ,
मिलता नहीं इसमें मुझे
मेरा प्रभु ,
मनमोहना है।
कुदरत की हर गली में भटका हूँ
प्रेम से ,
दुनिया को भी जांचा है
बड़े प्रेम से।
जो भी मिला ,पाया
न इच्छा की थी कभी
संभाला है सब कुछ
माना वस्तु प्रभु की।
फिर भी जख्म कुछ गहरे मिले हैं
बेगाने ही सब जगह अपनों में मिले हैं। ………… अरविन्द

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