प्रभु ! कैसी यह सृष्टि रची .
रविवार, 31 मार्च 2013
कैसी यह सृष्टि रची
शनिवार, 30 मार्च 2013
प्रभु जी !
प्रभु जी !
दोहे
अहँकार की पोटली सर पे धरी गंवार .
????
तुम्हारे लिए कोई कविता गाऊं ?
गुरुवार, 28 मार्च 2013
अद्वय -गान
अद्वय -गान
रस राज दिया ,श्रृंगार दिया .
तुमको अद्भुत यह साज दिया .
छेड़ो प्रिय के पिय तार पिया .
मदमाती मौन गुंजार पिया .
यह देह बड़ी मतवाली है .
सुमनों भरी इक डाली है .
सुरभि और सदानन्द यहाँ
मन मधुकर- मकरन्द यहाँ .
आत्मरति भी रति कहाँ ?
द्वैतासक्ति नहीं वहाँ
अनुरागी मिथुनासक्ति है .
अनुरक्ति चित की भक्ति है .
वैरागी मन तो पागल था
स्वनिर्मित सृष्टि साहिल था .
मूढ़ अहं चित्त चेरा था .
उसने न प्रभु को हेरा था .
रूप रूप में अपरूप छिपा .
प्रकाशित हुई आत्म विभा .
अन्धकार स्वयं का निर्मित .
गेह सिकता का था, खिसका .
अब पहचानी गात --शिखा .
रूपासक्ति की ज्वलित प्रभा .
अद्भुत गोपिका भाव जगा .
ललिता सा सौभाग्य पगा .
गुरु कृष्ण अब जाग गया .
मन वृन्दावन श्रृंगार सजा .
नित बाँसुरी राग बजता है
नित राधा --राधा करता है .
रसबेनी लहरती है आगे
पग पायल बजती है आगे .
नित कंकण -राग सजता है .
प्रियतम संयोग ही पगता है
कालिंदी बहती तरल तरल .
भव मयूर नाचता विरल विरल .
रास सरसती है प्रतिपल
खिलते कोमल भाव प्रबल .
अब रात प्यारी लगती है .
मधुवात प्यारी लगती है
एकांत प्यारा लगता है
सु कान्त प्यारा लगता है .
नदी कूल प्यारा लगता है
वट मूल प्यारा लगता है .
भुजलता प्यारी लगती है .
नित रास प्यारी लगती है
पदचाप प्यारी लगती है .
मधुछाप प्यारी लगती है .
कोई बोल नहीं सुहाता है .
निशब्द गीत ही भाता है .
जितना उतरता गहरे हूँ -
मन उतना ऊपर जाता है .
क्यों कहूँ कि जग इक माया है
क्यों कहूँ कि भ्रम और छाया है .
सत्य निकट अब आया है .
जग फंद सभी छुड़ाया है .
हिरण्यगर्भ ही अब प्रकट हुआ .
बिसमाद हमारा प्रकट हुआ .
अद्वय का सुख अब भाया है .
कृष्णा ! तू अब आया है ..........अरविन्द
.
रस राज दिया ,श्रृंगार दिया .
तुमको अद्भुत यह साज दिया .
छेड़ो प्रिय के पिय तार पिया .
मदमाती मौन गुंजार पिया .
यह देह बड़ी मतवाली है .
सुमनों भरी इक डाली है .
सुरभि और सदानन्द यहाँ
मन मधुकर- मकरन्द यहाँ .
आत्मरति भी रति कहाँ ?
द्वैतासक्ति नहीं वहाँ
अनुरागी मिथुनासक्ति है .
अनुरक्ति चित की भक्ति है .
वैरागी मन तो पागल था
स्वनिर्मित सृष्टि साहिल था .
मूढ़ अहं चित्त चेरा था .
उसने न प्रभु को हेरा था .
रूप रूप में अपरूप छिपा .
प्रकाशित हुई आत्म विभा .
अन्धकार स्वयं का निर्मित .
गेह सिकता का था, खिसका .
अब पहचानी गात --शिखा .
रूपासक्ति की ज्वलित प्रभा .
अद्भुत गोपिका भाव जगा .
ललिता सा सौभाग्य पगा .
गुरु कृष्ण अब जाग गया .
मन वृन्दावन श्रृंगार सजा .
नित बाँसुरी राग बजता है
नित राधा --राधा करता है .
रसबेनी लहरती है आगे
पग पायल बजती है आगे .
नित कंकण -राग सजता है .
प्रियतम संयोग ही पगता है
कालिंदी बहती तरल तरल .
भव मयूर नाचता विरल विरल .
रास सरसती है प्रतिपल
खिलते कोमल भाव प्रबल .
अब रात प्यारी लगती है .
मधुवात प्यारी लगती है
एकांत प्यारा लगता है
सु कान्त प्यारा लगता है .
नदी कूल प्यारा लगता है
वट मूल प्यारा लगता है .
भुजलता प्यारी लगती है .
नित रास प्यारी लगती है
पदचाप प्यारी लगती है .
मधुछाप प्यारी लगती है .
कोई बोल नहीं सुहाता है .
निशब्द गीत ही भाता है .
जितना उतरता गहरे हूँ -
मन उतना ऊपर जाता है .
क्यों कहूँ कि जग इक माया है
क्यों कहूँ कि भ्रम और छाया है .
सत्य निकट अब आया है .
जग फंद सभी छुड़ाया है .
हिरण्यगर्भ ही अब प्रकट हुआ .
बिसमाद हमारा प्रकट हुआ .
अद्वय का सुख अब भाया है .
कृष्णा ! तू अब आया है ..........अरविन्द
.
मंगलवार, 26 मार्च 2013
होली
होली
रस रंग राग भीगी
होली आई फाग भीगी
गुलाल की लाल लाली
तेरे कपोलों पर छा गई
सखि ! होली आ गयी .
प्रिय -कर -कठोर परस
वक्ष पर अधर धर
कठिन कसी काछिनी
पीताभ शरमा गयी .
उरु कछु कसमसाए
चुनरी लुढ़क लुढ़क जाए
बहु रंग भीगी तेरी --
कंचुकी भरमा गयी .
अरी ! होली छा गयी .
चपल चित्त
चकोर नयन
ठुमक उठे पाँव गहन
ढोलकी की थाप
रंगे तन तेरे छा गयी
प्रियतमा ! होली आ गयी .
थाप ! थाप ! थाप !
गुलाबी एडियो की धमक थाप
नाच ! नाच ! नाच ! लाली
अलक्तक सी भा गयी .
सजनि ! होली आ गयी .
बाल वृद्ध लास भरे
हाथों में गुलाल भरे
देह की चमक सारी
हुलसित नहा गयी .
प्रिये ! होली आ गयी .
छोड़ सारी शर्म लाज
घर के सब काम काज
मारी पिचकारी तूने
मेरे तन छा गयी .
सहचरि ! होली आ गयी .
द्वंद्व सब धुल गए
रंग घुल मिल गए
काटी जो चिकोटी तूने
अंग अंग जगा गयी .
ओ री ! होली आ गयी ........अरविन्द
रस रंग राग भीगी
होली आई फाग भीगी
गुलाल की लाल लाली
तेरे कपोलों पर छा गई
सखि ! होली आ गयी .
प्रिय -कर -कठोर परस
वक्ष पर अधर धर
कठिन कसी काछिनी
पीताभ शरमा गयी .
उरु कछु कसमसाए
चुनरी लुढ़क लुढ़क जाए
बहु रंग भीगी तेरी --
कंचुकी भरमा गयी .
अरी ! होली छा गयी .
चपल चित्त
चकोर नयन
ठुमक उठे पाँव गहन
ढोलकी की थाप
रंगे तन तेरे छा गयी
प्रियतमा ! होली आ गयी .
थाप ! थाप ! थाप !
गुलाबी एडियो की धमक थाप
नाच ! नाच ! नाच ! लाली
अलक्तक सी भा गयी .
सजनि ! होली आ गयी .
बाल वृद्ध लास भरे
हाथों में गुलाल भरे
देह की चमक सारी
हुलसित नहा गयी .
प्रिये ! होली आ गयी .
छोड़ सारी शर्म लाज
घर के सब काम काज
मारी पिचकारी तूने
मेरे तन छा गयी .
सहचरि ! होली आ गयी .
द्वंद्व सब धुल गए
रंग घुल मिल गए
काटी जो चिकोटी तूने
अंग अंग जगा गयी .
ओ री ! होली आ गयी ........अरविन्द
मौन मनमोहन ..
मौन मनमोहन ...
मेरा मनमोहन मौन ही रहता है .
कभी नहीं किसी को कुछ कहता है .
पलक न झपके ,होंट न झटके .
कभी माथे पर बल नहीं लाता है .
सबकी सहता ,नहीं कुछ कहता -
बस टुक टुक ताकता रहता है .
मेरा मनमोहन मौन ही रहता है .
जीवन जगत को माया माने .
नश्वरता जग की पहचाने .
लूट रहे धरती के धन जो -
उनको भी अपना ही माने .
लुटे हुए किसान रो रहे .
गरीबों का लूट लिया अन्न
सैनिकों का सम्मान लुटा
अबलाओं के लुटे वसन .
लुट गया वह मान पुरातन
लुट गया सुख ,चैन ,अमन .
फिर भी मौन हुए बैठा है
मंदिर में सुंदर मनमोहन .
गुणज्ञ है ,अर्थज्ञ है ,बहुज्ञ है
समदर्शी और सर्वज्ञ है .
बगुले और हंस सब इसके लिए
समान हैं --
मेरा मनमोहन महान है .
शोषित की चीख पर
पीड़ित की पुकार पर
नहीं कभी देता कान है .
सुख दुःख सब समान है .
मौन मनमोहन महान है .
अद्भुत इसकी राज -कला
अद्भुत इसका ज्ञान है .
जहरीली साग सब्जिया
जहरीला हुआ खान पान है
मिट्टी का यह कैसा माधव
नहीं इसे भान है .
बेईमान सब फलें फूलें
ठग सब झूला झूलें
लुटेरों ने बना लिए
ऊँचे भवन ,मकान है
मेरा मनमोहन मौन महान है ......अरविन्द
मेरा मनमोहन मौन ही रहता है .
कभी नहीं किसी को कुछ कहता है .
पलक न झपके ,होंट न झटके .
कभी माथे पर बल नहीं लाता है .
सबकी सहता ,नहीं कुछ कहता -
बस टुक टुक ताकता रहता है .
मेरा मनमोहन मौन ही रहता है .
जीवन जगत को माया माने .
नश्वरता जग की पहचाने .
लूट रहे धरती के धन जो -
उनको भी अपना ही माने .
लुटे हुए किसान रो रहे .
गरीबों का लूट लिया अन्न
सैनिकों का सम्मान लुटा
अबलाओं के लुटे वसन .
लुट गया वह मान पुरातन
लुट गया सुख ,चैन ,अमन .
फिर भी मौन हुए बैठा है
मंदिर में सुंदर मनमोहन .
गुणज्ञ है ,अर्थज्ञ है ,बहुज्ञ है
समदर्शी और सर्वज्ञ है .
बगुले और हंस सब इसके लिए
समान हैं --
मेरा मनमोहन महान है .
शोषित की चीख पर
पीड़ित की पुकार पर
नहीं कभी देता कान है .
सुख दुःख सब समान है .
मौन मनमोहन महान है .
अद्भुत इसकी राज -कला
अद्भुत इसका ज्ञान है .
जहरीली साग सब्जिया
जहरीला हुआ खान पान है
मिट्टी का यह कैसा माधव
नहीं इसे भान है .
बेईमान सब फलें फूलें
ठग सब झूला झूलें
लुटेरों ने बना लिए
ऊँचे भवन ,मकान है
मेरा मनमोहन मौन महान है ......अरविन्द
सोमवार, 25 मार्च 2013
जीवन यहाँ ...
जीवन यहाँ महाभारत है
प्रतिक्षण लिखी जाती यहाँ
संघर्षों की इबारत है .
उद्भ्रान्ति यहाँ भ्रान्ति यहाँ .
संशय यहाँ क्लान्ति यहाँ .
कुछ भी नहीं शाश्वत है .
जीवन यहाँ महाभारत है .
अपना ही चक्रव्यूह रचता .
अपना ही अभिमन्यु मरता .
अपनी ही उत्तरा के भ्रूण पर
अपना ही शस्त्र चलता .
अपनी ही कुंती के संग -
वनबासी होना निश्चित है .
जीवन यहाँ महाभारत है .
मानव में छिपे जंतु भारी
हिंसक और अत्याचारी .
खेल खेलते भयकारी .
लड़ने की है लाचारी .
जीते जी जीतें या हारें हम
सब मरने की है तैयारी ..
अद्भुत कर्म संकुलता है .
जीवन यहाँ महाभारत है .
हम स्व स्व स्व ही करते हैं .
स्वार्थ को नेता वरते हैं .
जितनी नैतिकता उतना पाखण्ड .
धर्म हुआ है यहाँ भांड
ईश्वर को पाताल भेज -
रच रहे सभी अपना ब्रह्माण्ड .
शिखंडियों का साम्राज्य यहाँ .
शकुनियों की घातें प्रचण्ड .
एकाक्षी द्रोणो का यहाँ -
निर्द्वन्द्व चले प्रतिघाती दण्ड .
यम का चले सदाव्रत है .
जीवन यहाँ महाभारत है .
प्रेम नहीं यहाँ सत्य नहीं .
भक्ति नहीं यहाँ भक्त नहीं .
ईश्वर की कोई शक्ति नहीं .
सुनीति नहीं यहाँ रीति नहीं .
भयमुक्त यहाँ कोई वीथी नहीं .
मानव पशु में छिपा हुआ--
दुर्दांत दानव यहाँ रत है .
जीवन यहाँ महाभारत है ......अरविन्द
जीवन यहाँ महाभारत है
प्रतिक्षण लिखी जाती यहाँ
संघर्षों की इबारत है .
उद्भ्रान्ति यहाँ भ्रान्ति यहाँ .
संशय यहाँ क्लान्ति यहाँ .
कुछ भी नहीं शाश्वत है .
जीवन यहाँ महाभारत है .
अपना ही चक्रव्यूह रचता .
अपना ही अभिमन्यु मरता .
अपनी ही उत्तरा के भ्रूण पर
अपना ही शस्त्र चलता .
अपनी ही कुंती के संग -
वनबासी होना निश्चित है .
जीवन यहाँ महाभारत है .
मानव में छिपे जंतु भारी
हिंसक और अत्याचारी .
खेल खेलते भयकारी .
लड़ने की है लाचारी .
जीते जी जीतें या हारें हम
सब मरने की है तैयारी ..
अद्भुत कर्म संकुलता है .
जीवन यहाँ महाभारत है .
हम स्व स्व स्व ही करते हैं .
स्वार्थ को नेता वरते हैं .
जितनी नैतिकता उतना पाखण्ड .
धर्म हुआ है यहाँ भांड
ईश्वर को पाताल भेज -
रच रहे सभी अपना ब्रह्माण्ड .
शिखंडियों का साम्राज्य यहाँ .
शकुनियों की घातें प्रचण्ड .
एकाक्षी द्रोणो का यहाँ -
निर्द्वन्द्व चले प्रतिघाती दण्ड .
यम का चले सदाव्रत है .
जीवन यहाँ महाभारत है .
प्रेम नहीं यहाँ सत्य नहीं .
भक्ति नहीं यहाँ भक्त नहीं .
ईश्वर की कोई शक्ति नहीं .
सुनीति नहीं यहाँ रीति नहीं .
भयमुक्त यहाँ कोई वीथी नहीं .
मानव पशु में छिपा हुआ--
दुर्दांत दानव यहाँ रत है .
जीवन यहाँ महाभारत है ......अरविन्द
शनिवार, 23 मार्च 2013
फिर उलझ गया है
यज्ञोपवीत फिर उलझ गया है .
तेरे प्यारे बुंदों में
तेरे पायल के घुंघरू में .
तेरे गलहार के कुंडों में
तेरी टिकया के झूमर में
किंकिणी में है उलझ गया .
कहाँ कहाँ सुलझाओं इसको
तीनों तारों की उलझन को .
उलझ गया फिर उलझ गया .
मेखला उलझी गुन्झलिका में
तेरे माथे की लड़ियो में
गांठें इसकी उलझ गयीं हैं
सतलड़िये की इन धारों में .
ब्रह्म ग्रंथि में रूद्र ग्रंथि
विष्णु ग्रंथि भी उलझ गयी
पिघले वपु की लहरों पार .
उलझ गए हैं गात हमारे
उलझ गए सांसों के हार
नहीं सुलझी हैं गलबहिया
नहीं सुलझता है अधर प्यार .
मेरी छाती पर आ चमकी
तेरी बिंदिया की चमकार .
कहो ,कहाँ सुलझाऊ सब कुछ
तुमने वपु वस्त्र लिए संभार .
रजनी देखो खिसक रही है
ऊषा आ बैठी है द्वार .
कैसे सुलझाऊ मैं ,बोलो
यज्ञोपवीत के उलझे तार ?......अरविन्द
तेरे प्यारे बुंदों में
तेरे पायल के घुंघरू में .
तेरे गलहार के कुंडों में
तेरी टिकया के झूमर में
किंकिणी में है उलझ गया .
कहाँ कहाँ सुलझाओं इसको
तीनों तारों की उलझन को .
उलझ गया फिर उलझ गया .
मेखला उलझी गुन्झलिका में
तेरे माथे की लड़ियो में
गांठें इसकी उलझ गयीं हैं
सतलड़िये की इन धारों में .
ब्रह्म ग्रंथि में रूद्र ग्रंथि
विष्णु ग्रंथि भी उलझ गयी
पिघले वपु की लहरों पार .
उलझ गए हैं गात हमारे
उलझ गए सांसों के हार
नहीं सुलझी हैं गलबहिया
नहीं सुलझता है अधर प्यार .
मेरी छाती पर आ चमकी
तेरी बिंदिया की चमकार .
कहो ,कहाँ सुलझाऊ सब कुछ
तुमने वपु वस्त्र लिए संभार .
रजनी देखो खिसक रही है
ऊषा आ बैठी है द्वार .
कैसे सुलझाऊ मैं ,बोलो
यज्ञोपवीत के उलझे तार ?......अरविन्द
गुरुवार, 21 मार्च 2013
किंकिणी की रागिनी
सोने नहीं दूंगी तुम्हें ,कंगना चुभोउंगी
पलकों को चूम चूम नींद को भागऊँगी .
प्यारी सी रात जगी मौन गीत छा गया
रोयाँ रोयाँ दीप बले नेह को जगा गया
दिन जब जागता संबंधी जग जाग जाते
झुकी झुकी पलकों से नयन तुम्हें निहारते
बोल सारे चुप ,भाषा देह बन पुकारती
चूड़ियाँ भी बोलतीं ,रुनझुन पायल भी पुकारती
कैसे तुम्हें सोने दूँ ,जग सोया तू जाग प्यारे .
किंकिणी की रागिनी तुम्हें है दुलारती .........!!!!....अरविन्द
पलकों को चूम चूम नींद को भागऊँगी .
प्यारी सी रात जगी मौन गीत छा गया
रोयाँ रोयाँ दीप बले नेह को जगा गया
दिन जब जागता संबंधी जग जाग जाते
झुकी झुकी पलकों से नयन तुम्हें निहारते
बोल सारे चुप ,भाषा देह बन पुकारती
चूड़ियाँ भी बोलतीं ,रुनझुन पायल भी पुकारती
कैसे तुम्हें सोने दूँ ,जग सोया तू जाग प्यारे .
किंकिणी की रागिनी तुम्हें है दुलारती .........!!!!....अरविन्द
सो गयी पायल मेरी
सो गयी पायल मेरी ,बिछुआ भी सो गया
नींद के सिरहाने लग पिया कहाँ खो गया .
मैं तो अकेली मौन रातरानी सी महकती रही
आस कंगनों की खनक व्यर्थ ही बहकती रही .
तुम कहाँ खोये खोये चाँद से सरक गये --
तेरे द्वार लगी चकवी पिय पिय पुकारती रही .
विरह भीगी रात मेरी आँख मेरी रास भीगी
देह सारी प्यारी मेरी सागर के ज्वार भीगी
कब मेरी लहर बहर तेरे तट तक आयेगी ?
शबरी सी खड़ी तेरी बाट बिट बिट निहारती हूँ
शायद यह जिन्दगी अचाही उडीक बन जाएगी ...अरविन्द
नींद के सिरहाने लग पिया कहाँ खो गया .
मैं तो अकेली मौन रातरानी सी महकती रही
आस कंगनों की खनक व्यर्थ ही बहकती रही .
तुम कहाँ खोये खोये चाँद से सरक गये --
तेरे द्वार लगी चकवी पिय पिय पुकारती रही .
विरह भीगी रात मेरी आँख मेरी रास भीगी
देह सारी प्यारी मेरी सागर के ज्वार भीगी
कब मेरी लहर बहर तेरे तट तक आयेगी ?
शबरी सी खड़ी तेरी बाट बिट बिट निहारती हूँ
शायद यह जिन्दगी अचाही उडीक बन जाएगी ...अरविन्द
बुधवार, 20 मार्च 2013
बोलो बच्चो !
ऐसा कौन है जो कहलाता बड़ा बापू है
भक्ति समुद में जो अहंकार का टापू है ?
वेदांती है पर नित द्वैत में ही रहता है .
पानी की बौछारों में दूसरों को नहलाता है
फिर भी बच्चो ,बापू बापू कहलाता है .?
जो भी बालक अब तत्काल उत्तर देगा
होली के रंग की फुहारों का आनंद लेगा .
बाकी बाहर बैठ कर बस तालियाँ बजाएँगे
बापू की नोटंकी का आनंद नहीं ले पायेंगे ....बोलो बच्चो !
ऐसा कौन है जो कहलाता बड़ा बापू है
भक्ति समुद में जो अहंकार का टापू है ?
वेदांती है पर नित द्वैत में ही रहता है .
पानी की बौछारों में दूसरों को नहलाता है
फिर भी बच्चो ,बापू बापू कहलाता है .?
जो भी बालक अब तत्काल उत्तर देगा
होली के रंग की फुहारों का आनंद लेगा .
बाकी बाहर बैठ कर बस तालियाँ बजाएँगे
बापू की नोटंकी का आनंद नहीं ले पायेंगे ....बोलो बच्चो !
चलो !
चलो ! तुम्हें जंगल की सैर कराता हूँ .
सूखे ,बिखरे पत्तों पर चल कर
वृक्षों का संगीत सुनाता हूँ .
चहकती चिड़िया के
फुदकते नाच पर
नाचती हुई फूलों की
फुनगी का नाच दिखाता हूँ .
चलो ! तुम्हें जंगल की सैर कराता हूँ .
यह वट वृक्ष है
विशाल और सुदृढ़ .
जैसे किसी बड़े बूढ़े का
घर पर घना साया हो .
जिसकी गोद में लहराती कोंपलों ने
अपना भाग्य सराहा हो .
आओ न ! देखो !!
इस देवदारु को
सीधा आकाश की ओर गया है
अपनी डालिओं सी भुजाओं को खोल
ऊपर और ऊपर ..
यह नहीं जानता कि बूढ़ा वट
इसे चुपचाप निहारता है
जवान होते बेटे को
जैसे कोई बाप पुचकारता है .
बगल में खड़ी
मौलसिरी ,मंद मंद सुगंध में
मुस्कुराती है
इश्कपेचे की बेल
मुग्धा की तरह इस देवदारु से
लिपट लिपट जाती है .
अपने नीले नीले फूलों को
प्रेम से लुटाती है .
मौलसिरी चुपचाप झर -झर
झरझराती है .
बेले की महक मंगल गीत गाती है .
डरो मत ,अब यहाँ
शेर ,चीते ,लोमड़ी और रीछ नहीं हैं
आदमी की अंतर -खोह में
जा बसे हैं .
इसीलिए जंगल अब
अबोले बोल सा शांत है
परमात्मा के गीत सा निर्भ्रान्त है .....अरविन्द
सूखे ,बिखरे पत्तों पर चल कर
वृक्षों का संगीत सुनाता हूँ .
चहकती चिड़िया के
फुदकते नाच पर
नाचती हुई फूलों की
फुनगी का नाच दिखाता हूँ .
चलो ! तुम्हें जंगल की सैर कराता हूँ .
यह वट वृक्ष है
विशाल और सुदृढ़ .
जैसे किसी बड़े बूढ़े का
घर पर घना साया हो .
जिसकी गोद में लहराती कोंपलों ने
अपना भाग्य सराहा हो .
आओ न ! देखो !!
इस देवदारु को
सीधा आकाश की ओर गया है
अपनी डालिओं सी भुजाओं को खोल
ऊपर और ऊपर ..
यह नहीं जानता कि बूढ़ा वट
इसे चुपचाप निहारता है
जवान होते बेटे को
जैसे कोई बाप पुचकारता है .
बगल में खड़ी
मौलसिरी ,मंद मंद सुगंध में
मुस्कुराती है
इश्कपेचे की बेल
मुग्धा की तरह इस देवदारु से
लिपट लिपट जाती है .
अपने नीले नीले फूलों को
प्रेम से लुटाती है .
मौलसिरी चुपचाप झर -झर
झरझराती है .
बेले की महक मंगल गीत गाती है .
डरो मत ,अब यहाँ
शेर ,चीते ,लोमड़ी और रीछ नहीं हैं
आदमी की अंतर -खोह में
जा बसे हैं .
इसीलिए जंगल अब
अबोले बोल सा शांत है
परमात्मा के गीत सा निर्भ्रान्त है .....अरविन्द
रविवार, 10 मार्च 2013
मुश्किल .
जगत में पाना समीहित का नहीं आसान है कुछ .
किन्तु पाने की समीहा छोड़ पाना और मुश्किल .
यह जगत है ,भावनाएं कब फलित होती यहाँ पर
हर जवानी काल के ही गाल में सोती यहाँ पर
सत्य के हर पक्ष पर सौ सौ झूठ की परछाईयां हैं .
राजमार्ग कहीं कहीं हैं ,अधिक तो बस खाइयाँ हैं
भेद इस जग का तनिक पाना नहीं आसान है कुछ .
भेद पाने की समीहा छोड़ पाना और मुश्किल .
विपद बरसाना सदा सब पर रही आदत दनुज की .
हर विपद से जूझना है बन गई फितरत मनुज की .
किन्तु हर कोई दनुज निज को मनुज ही तो जानता है
वह स्वयं को शुभ ,अशुभ तो इतर जन को मानता है
दानवों के इस नगर में खोजना मानव कठिन है .
किन्तु यूँ इस खोज से पीछा छुड़ाना और मुश्किल .
रस्म ,रीति ,रिवाज के पहरे यहाँ प्रतिदिक लगे हैं .
भावना ,विश्वास जब आए ,तभी जग ने ठगे सब .
अर्थ है विकराल ,उससे स्वार्थ भी कुछ अधिक ही है
अधिकतम भीषण यहाँ वे ,जो बहुत अपने सगे हैं .
मनुजता की लाज डूबी जा रही ,देखे न बनता .
किन्तु उसके त्राण से नजरें बचाना और मुश्किल .
किन्तु पाने की समीहा छोड़ पाना और मुश्किल .
यह जगत है ,भावनाएं कब फलित होती यहाँ पर
हर जवानी काल के ही गाल में सोती यहाँ पर
सत्य के हर पक्ष पर सौ सौ झूठ की परछाईयां हैं .
राजमार्ग कहीं कहीं हैं ,अधिक तो बस खाइयाँ हैं
भेद इस जग का तनिक पाना नहीं आसान है कुछ .
भेद पाने की समीहा छोड़ पाना और मुश्किल .
विपद बरसाना सदा सब पर रही आदत दनुज की .
हर विपद से जूझना है बन गई फितरत मनुज की .
किन्तु हर कोई दनुज निज को मनुज ही तो जानता है
वह स्वयं को शुभ ,अशुभ तो इतर जन को मानता है
दानवों के इस नगर में खोजना मानव कठिन है .
किन्तु यूँ इस खोज से पीछा छुड़ाना और मुश्किल .
रस्म ,रीति ,रिवाज के पहरे यहाँ प्रतिदिक लगे हैं .
भावना ,विश्वास जब आए ,तभी जग ने ठगे सब .
अर्थ है विकराल ,उससे स्वार्थ भी कुछ अधिक ही है
अधिकतम भीषण यहाँ वे ,जो बहुत अपने सगे हैं .
मनुजता की लाज डूबी जा रही ,देखे न बनता .
किन्तु उसके त्राण से नजरें बचाना और मुश्किल .
शनिवार, 9 मार्च 2013
आवारा चिंतन
आवारा चिंतन
कितना विचित्र है यह जीवन ? जन्म से लेकर मृत्यु तक की यात्रा के असीम अनुभव ! दायित्व और दायित्वों का बोध !.घर के दायित्व ,समाज के दायित्व ,देश के प्रति दायित्वबोध ,व्यक्ति के स्वयं के प्रति दायित्व यही दायित्वबोध ही कहीं अत्यंत सघनता के साथ समस्या का रूप धारण कर लेता है . जैसे ही समस्या का शूल कहीं दायित्वों के इस जंगल में चुभता है वहीँ प्रतिक्रिया जन्म लेती है ..तब लगता है में कहीं भी स्वयं के प्रति अकेला नहीं हूँ .स्व का बोध ,पर और परात्पर बोध से सम्बद्ध है . क्या हम अपने इर्दगिर्द की परिस्थितिजन्य अवस्थाओं से मुहं फेर सकते हैं ? नहीं . न तो हम देखना बंद कर सकते हैं और न ही हम अपनी अभिव्यक्ति ही रोक सकते हैं .सभी कुछ नॆसर्गिक है तो भी अभिव्यक्ति कहीं न कहीं ,न चाहते हुए भी ,दूसरे को चुभ जाती है .यही चुभन स्व और पर में समस्या की जननी है .
सर्वप्रथम घर पर ही विचार किया जाये .स्थिति कैन कैसी भी हो ,हम घर से ही जीवन आरम्भ करते हैं .घर महत्वपूर्ण है .क्योंकि यहीं से जीवन का प्रथम चरण उठता है ,प्रथम पाठ आरम्भ होता है .इसे प्राथमिक पाठशाला कहा जा सकता है .जीवन की तैयारी का आरम्भिक अनुच्छेद यहीं से सम्बन्धों की भव्य वीथिका में प्रवेश करता है .में और तूं का भाव भी घर से ही आरम्भ होता है .माया में लिप्तता ,सत्यासत्य के प्रति आग्रह अनाग्रह ,स्वार्थ अथवा परमार्थ ,सुख और दुःख की विविधवर्णी अनुभूतियाँ ,समय सापेक्ष उद्देश्यों का निर्धारण ,संकल्प और उनकी पूर्ति के लिए धारणा -निर्मिति ,कर्मक्षेत्र का चुनाव --व्यक्ति मन और घर से ही आरम्भ होता है .
हम इस दस द्वारे के संगठन को ही शरीर कहते हैं ,परन्तु इस संगठन में मन ही महत्वपूर्ण है .संसार में संसार के प्रति दौड़ मन से ही संचालित होती है .मन ही विविध भावनाओं का अभिव्यक्ति केंद्र है .सभी संघर्ष मन से ही आरम्भ होते हैं .समस्त नैतिक और अनैतिक अवधारानाओं का उत्स केवल मन ही है. व्यक्ति और उसके व्यक्तित्व का निर्माण और निर्धारण मन और उसका मानसिक जगत करता है .इसीलिए कोई भी चेतना कभी भी अ -मन या मन से रहित नहीं हो सकती .जैसे मैं किसी व्यक्ति अथवा व्यक्तित्व को देखता है तो उसके प्रति चाहना या अचाहना का भाव मन में ही जगता है .क्यों कोई किसी सुंदर के प्रति सहजता से आकर्षित हो जाता है ?क्यों कोई नित नए सौन्दर्य का (सुरुचि ) अवगाहन करना चाहता है ?कौन है जो हमें कुत्सित ,गर्हित ,निन्दित के प्रति नाक भौं सिकुडने को बाध्य करता है ?स्पष्ट है कि व्यक्ति चेतना मन के माध्यम से स्वयं को प्रतिफलित करती है .
मन की ही तरह प्रभु भी व्यक्ति की महनीय उपलब्धि है .मनुष्य की अगर कोई श्रेष्ट और वन्दनीय कल्पना है तो वह केवल परमात्मा है ..हमारी समस्त चेतना एक पराचेतन को स्वीकार करती है .देवताओं की परिकल्पना ,अदेखे परमात्मा का रूप चिंतन ,उसके दर्शन के लिए विविध साधन ,अनुभूति प्राप्त करने के लिए मौन की अंतर्यात्रा ,अव्यक्त का व्यक्तिकरण ---सब केवल मन करता है .इसीलिए वह हमारे बहुत समीप है ,जिसे समझाना बहुत आवश्यक है ....यही वह तत्व है जिसे जान कर सब कुछ जान लिया जाता है ................अरविन्द
कितना विचित्र है यह जीवन ? जन्म से लेकर मृत्यु तक की यात्रा के असीम अनुभव ! दायित्व और दायित्वों का बोध !.घर के दायित्व ,समाज के दायित्व ,देश के प्रति दायित्वबोध ,व्यक्ति के स्वयं के प्रति दायित्व यही दायित्वबोध ही कहीं अत्यंत सघनता के साथ समस्या का रूप धारण कर लेता है . जैसे ही समस्या का शूल कहीं दायित्वों के इस जंगल में चुभता है वहीँ प्रतिक्रिया जन्म लेती है ..तब लगता है में कहीं भी स्वयं के प्रति अकेला नहीं हूँ .स्व का बोध ,पर और परात्पर बोध से सम्बद्ध है . क्या हम अपने इर्दगिर्द की परिस्थितिजन्य अवस्थाओं से मुहं फेर सकते हैं ? नहीं . न तो हम देखना बंद कर सकते हैं और न ही हम अपनी अभिव्यक्ति ही रोक सकते हैं .सभी कुछ नॆसर्गिक है तो भी अभिव्यक्ति कहीं न कहीं ,न चाहते हुए भी ,दूसरे को चुभ जाती है .यही चुभन स्व और पर में समस्या की जननी है .
सर्वप्रथम घर पर ही विचार किया जाये .स्थिति कैन कैसी भी हो ,हम घर से ही जीवन आरम्भ करते हैं .घर महत्वपूर्ण है .क्योंकि यहीं से जीवन का प्रथम चरण उठता है ,प्रथम पाठ आरम्भ होता है .इसे प्राथमिक पाठशाला कहा जा सकता है .जीवन की तैयारी का आरम्भिक अनुच्छेद यहीं से सम्बन्धों की भव्य वीथिका में प्रवेश करता है .में और तूं का भाव भी घर से ही आरम्भ होता है .माया में लिप्तता ,सत्यासत्य के प्रति आग्रह अनाग्रह ,स्वार्थ अथवा परमार्थ ,सुख और दुःख की विविधवर्णी अनुभूतियाँ ,समय सापेक्ष उद्देश्यों का निर्धारण ,संकल्प और उनकी पूर्ति के लिए धारणा -निर्मिति ,कर्मक्षेत्र का चुनाव --व्यक्ति मन और घर से ही आरम्भ होता है .
हम इस दस द्वारे के संगठन को ही शरीर कहते हैं ,परन्तु इस संगठन में मन ही महत्वपूर्ण है .संसार में संसार के प्रति दौड़ मन से ही संचालित होती है .मन ही विविध भावनाओं का अभिव्यक्ति केंद्र है .सभी संघर्ष मन से ही आरम्भ होते हैं .समस्त नैतिक और अनैतिक अवधारानाओं का उत्स केवल मन ही है. व्यक्ति और उसके व्यक्तित्व का निर्माण और निर्धारण मन और उसका मानसिक जगत करता है .इसीलिए कोई भी चेतना कभी भी अ -मन या मन से रहित नहीं हो सकती .जैसे मैं किसी व्यक्ति अथवा व्यक्तित्व को देखता है तो उसके प्रति चाहना या अचाहना का भाव मन में ही जगता है .क्यों कोई किसी सुंदर के प्रति सहजता से आकर्षित हो जाता है ?क्यों कोई नित नए सौन्दर्य का (सुरुचि ) अवगाहन करना चाहता है ?कौन है जो हमें कुत्सित ,गर्हित ,निन्दित के प्रति नाक भौं सिकुडने को बाध्य करता है ?स्पष्ट है कि व्यक्ति चेतना मन के माध्यम से स्वयं को प्रतिफलित करती है .
मन की ही तरह प्रभु भी व्यक्ति की महनीय उपलब्धि है .मनुष्य की अगर कोई श्रेष्ट और वन्दनीय कल्पना है तो वह केवल परमात्मा है ..हमारी समस्त चेतना एक पराचेतन को स्वीकार करती है .देवताओं की परिकल्पना ,अदेखे परमात्मा का रूप चिंतन ,उसके दर्शन के लिए विविध साधन ,अनुभूति प्राप्त करने के लिए मौन की अंतर्यात्रा ,अव्यक्त का व्यक्तिकरण ---सब केवल मन करता है .इसीलिए वह हमारे बहुत समीप है ,जिसे समझाना बहुत आवश्यक है ....यही वह तत्व है जिसे जान कर सब कुछ जान लिया जाता है ................अरविन्द
बुधवार, 6 मार्च 2013
अपना अपना ढूंढते खोया अपना आप
अपने इस संसार में अपना नहीं है बाप .
रिश्ते सारे बिगड़ गए कैसा यह अभिशाप
प्रेम बंधन सब खो गये कुटिल हो गया साथ .
बादल बरसा समुद पर तरसा रेगिस्तान
जहाँ जहाँ कुछ चाह है वहां वहां परेशान .
कैसी लीला प्रभु की कैसी संसार सौगात
गृहस्थी तो कंगला सन्यासी महल आवास .
साठ साल के हो गये उतरा नहीं बुखार
हमने तो इकट्ठा किया, लालच का परिवार .
पढ़े पढ़ाये बहुत हैं तो भी समझ न पाए
अहंकार के पुतलों को ,स्वार्थ ही सुहाए
जान समझ कर लाये थे तो भी जान न पाए
जान जान कर जान को जान नहीं सुहाए ....अरविन्द
अपने इस संसार में अपना नहीं है बाप .
रिश्ते सारे बिगड़ गए कैसा यह अभिशाप
प्रेम बंधन सब खो गये कुटिल हो गया साथ .
बादल बरसा समुद पर तरसा रेगिस्तान
जहाँ जहाँ कुछ चाह है वहां वहां परेशान .
कैसी लीला प्रभु की कैसी संसार सौगात
गृहस्थी तो कंगला सन्यासी महल आवास .
साठ साल के हो गये उतरा नहीं बुखार
हमने तो इकट्ठा किया, लालच का परिवार .
पढ़े पढ़ाये बहुत हैं तो भी समझ न पाए
अहंकार के पुतलों को ,स्वार्थ ही सुहाए
जान समझ कर लाये थे तो भी जान न पाए
जान जान कर जान को जान नहीं सुहाए ....अरविन्द
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