आवारा चिंतन
कितना विचित्र है यह जीवन ? जन्म से लेकर मृत्यु तक की यात्रा के असीम अनुभव ! दायित्व और दायित्वों का बोध !.घर के दायित्व ,समाज के दायित्व ,देश के प्रति दायित्वबोध ,व्यक्ति के स्वयं के प्रति दायित्व यही दायित्वबोध ही कहीं अत्यंत सघनता के साथ समस्या का रूप धारण कर लेता है . जैसे ही समस्या का शूल कहीं दायित्वों के इस जंगल में चुभता है वहीँ प्रतिक्रिया जन्म लेती है ..तब लगता है में कहीं भी स्वयं के प्रति अकेला नहीं हूँ .स्व का बोध ,पर और परात्पर बोध से सम्बद्ध है . क्या हम अपने इर्दगिर्द की परिस्थितिजन्य अवस्थाओं से मुहं फेर सकते हैं ? नहीं . न तो हम देखना बंद कर सकते हैं और न ही हम अपनी अभिव्यक्ति ही रोक सकते हैं .सभी कुछ नॆसर्गिक है तो भी अभिव्यक्ति कहीं न कहीं ,न चाहते हुए भी ,दूसरे को चुभ जाती है .यही चुभन स्व और पर में समस्या की जननी है .
सर्वप्रथम घर पर ही विचार किया जाये .स्थिति कैन कैसी भी हो ,हम घर से ही जीवन आरम्भ करते हैं .घर महत्वपूर्ण है .क्योंकि यहीं से जीवन का प्रथम चरण उठता है ,प्रथम पाठ आरम्भ होता है .इसे प्राथमिक पाठशाला कहा जा सकता है .जीवन की तैयारी का आरम्भिक अनुच्छेद यहीं से सम्बन्धों की भव्य वीथिका में प्रवेश करता है .में और तूं का भाव भी घर से ही आरम्भ होता है .माया में लिप्तता ,सत्यासत्य के प्रति आग्रह अनाग्रह ,स्वार्थ अथवा परमार्थ ,सुख और दुःख की विविधवर्णी अनुभूतियाँ ,समय सापेक्ष उद्देश्यों का निर्धारण ,संकल्प और उनकी पूर्ति के लिए धारणा -निर्मिति ,कर्मक्षेत्र का चुनाव --व्यक्ति मन और घर से ही आरम्भ होता है .
हम इस दस द्वारे के संगठन को ही शरीर कहते हैं ,परन्तु इस संगठन में मन ही महत्वपूर्ण है .संसार में संसार के प्रति दौड़ मन से ही संचालित होती है .मन ही विविध भावनाओं का अभिव्यक्ति केंद्र है .सभी संघर्ष मन से ही आरम्भ होते हैं .समस्त नैतिक और अनैतिक अवधारानाओं का उत्स केवल मन ही है. व्यक्ति और उसके व्यक्तित्व का निर्माण और निर्धारण मन और उसका मानसिक जगत करता है .इसीलिए कोई भी चेतना कभी भी अ -मन या मन से रहित नहीं हो सकती .जैसे मैं किसी व्यक्ति अथवा व्यक्तित्व को देखता है तो उसके प्रति चाहना या अचाहना का भाव मन में ही जगता है .क्यों कोई किसी सुंदर के प्रति सहजता से आकर्षित हो जाता है ?क्यों कोई नित नए सौन्दर्य का (सुरुचि ) अवगाहन करना चाहता है ?कौन है जो हमें कुत्सित ,गर्हित ,निन्दित के प्रति नाक भौं सिकुडने को बाध्य करता है ?स्पष्ट है कि व्यक्ति चेतना मन के माध्यम से स्वयं को प्रतिफलित करती है .
मन की ही तरह प्रभु भी व्यक्ति की महनीय उपलब्धि है .मनुष्य की अगर कोई श्रेष्ट और वन्दनीय कल्पना है तो वह केवल परमात्मा है ..हमारी समस्त चेतना एक पराचेतन को स्वीकार करती है .देवताओं की परिकल्पना ,अदेखे परमात्मा का रूप चिंतन ,उसके दर्शन के लिए विविध साधन ,अनुभूति प्राप्त करने के लिए मौन की अंतर्यात्रा ,अव्यक्त का व्यक्तिकरण ---सब केवल मन करता है .इसीलिए वह हमारे बहुत समीप है ,जिसे समझाना बहुत आवश्यक है ....यही वह तत्व है जिसे जान कर सब कुछ जान लिया जाता है ................अरविन्द
कितना विचित्र है यह जीवन ? जन्म से लेकर मृत्यु तक की यात्रा के असीम अनुभव ! दायित्व और दायित्वों का बोध !.घर के दायित्व ,समाज के दायित्व ,देश के प्रति दायित्वबोध ,व्यक्ति के स्वयं के प्रति दायित्व यही दायित्वबोध ही कहीं अत्यंत सघनता के साथ समस्या का रूप धारण कर लेता है . जैसे ही समस्या का शूल कहीं दायित्वों के इस जंगल में चुभता है वहीँ प्रतिक्रिया जन्म लेती है ..तब लगता है में कहीं भी स्वयं के प्रति अकेला नहीं हूँ .स्व का बोध ,पर और परात्पर बोध से सम्बद्ध है . क्या हम अपने इर्दगिर्द की परिस्थितिजन्य अवस्थाओं से मुहं फेर सकते हैं ? नहीं . न तो हम देखना बंद कर सकते हैं और न ही हम अपनी अभिव्यक्ति ही रोक सकते हैं .सभी कुछ नॆसर्गिक है तो भी अभिव्यक्ति कहीं न कहीं ,न चाहते हुए भी ,दूसरे को चुभ जाती है .यही चुभन स्व और पर में समस्या की जननी है .
सर्वप्रथम घर पर ही विचार किया जाये .स्थिति कैन कैसी भी हो ,हम घर से ही जीवन आरम्भ करते हैं .घर महत्वपूर्ण है .क्योंकि यहीं से जीवन का प्रथम चरण उठता है ,प्रथम पाठ आरम्भ होता है .इसे प्राथमिक पाठशाला कहा जा सकता है .जीवन की तैयारी का आरम्भिक अनुच्छेद यहीं से सम्बन्धों की भव्य वीथिका में प्रवेश करता है .में और तूं का भाव भी घर से ही आरम्भ होता है .माया में लिप्तता ,सत्यासत्य के प्रति आग्रह अनाग्रह ,स्वार्थ अथवा परमार्थ ,सुख और दुःख की विविधवर्णी अनुभूतियाँ ,समय सापेक्ष उद्देश्यों का निर्धारण ,संकल्प और उनकी पूर्ति के लिए धारणा -निर्मिति ,कर्मक्षेत्र का चुनाव --व्यक्ति मन और घर से ही आरम्भ होता है .
हम इस दस द्वारे के संगठन को ही शरीर कहते हैं ,परन्तु इस संगठन में मन ही महत्वपूर्ण है .संसार में संसार के प्रति दौड़ मन से ही संचालित होती है .मन ही विविध भावनाओं का अभिव्यक्ति केंद्र है .सभी संघर्ष मन से ही आरम्भ होते हैं .समस्त नैतिक और अनैतिक अवधारानाओं का उत्स केवल मन ही है. व्यक्ति और उसके व्यक्तित्व का निर्माण और निर्धारण मन और उसका मानसिक जगत करता है .इसीलिए कोई भी चेतना कभी भी अ -मन या मन से रहित नहीं हो सकती .जैसे मैं किसी व्यक्ति अथवा व्यक्तित्व को देखता है तो उसके प्रति चाहना या अचाहना का भाव मन में ही जगता है .क्यों कोई किसी सुंदर के प्रति सहजता से आकर्षित हो जाता है ?क्यों कोई नित नए सौन्दर्य का (सुरुचि ) अवगाहन करना चाहता है ?कौन है जो हमें कुत्सित ,गर्हित ,निन्दित के प्रति नाक भौं सिकुडने को बाध्य करता है ?स्पष्ट है कि व्यक्ति चेतना मन के माध्यम से स्वयं को प्रतिफलित करती है .
मन की ही तरह प्रभु भी व्यक्ति की महनीय उपलब्धि है .मनुष्य की अगर कोई श्रेष्ट और वन्दनीय कल्पना है तो वह केवल परमात्मा है ..हमारी समस्त चेतना एक पराचेतन को स्वीकार करती है .देवताओं की परिकल्पना ,अदेखे परमात्मा का रूप चिंतन ,उसके दर्शन के लिए विविध साधन ,अनुभूति प्राप्त करने के लिए मौन की अंतर्यात्रा ,अव्यक्त का व्यक्तिकरण ---सब केवल मन करता है .इसीलिए वह हमारे बहुत समीप है ,जिसे समझाना बहुत आवश्यक है ....यही वह तत्व है जिसे जान कर सब कुछ जान लिया जाता है ................अरविन्द
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