बच्चे थे , तब अच्छे थे .
खाते पीते हँसते थे
खेल खेलते रोते थे
धमा चौकड़ी करते थे .
सब को प्यारे लगते थे .
बच्चे थे , तब अच्छे थे .
विदयालय जब जाते थे
गला फाड़ तब रोते थे .
टीचर गले लगाती थी
बड़ी प्यारी लगाती थी .
उछल कूद ही जीवन था
माँ ही एक खिलौना था .
चूमा चाटी करते थे
सब को न्यारे लगते थे .
बच्चे थे , तब अच्छे थे .
बारिश हमें भिगोती थी
छप छप हमें नहाती थी .
हम कपड़े गंदे करते थे
दो -चार चांटे पड़ते थे .
नित नयी शरारत आती थी
हमें भरपूर नचाती थी .
कुछ झिडके भी हम खाते थे
कुछ मार कुटायी होती थी .
रो -धोकर चुप हो रहते थे
बच्चे थे ,तब अच्छे थे .
अब हम बूढ़े हो रहे हैं
गधे भार को ढ़ो रहे हैं .
चिंता की गठरी लादे
जीवन का रस खो रहे हैं .
आशंकाओं के मकड़ जाल में
मृग तृष्णा को बो रहे हैं .
खुशियाँ हुई तितिलियाँ हैं
उठती हैं, ललचाती हैं
हाथ नहीं आ पाती हैं .
चैन नहीं मिल पाता है
बचपन याद ही आता है
बीत गए दिन सुख के वे
बच्चे थे , तब अच्छे थे .
बड़े हुए अहँकार जगा
नया एक बुखार चढ़ा .
नयी अलामत जाग गयी
ईर्ष्या द्वेष की आग लगी .
चुगलखोरी ही भाती थी
निन्दा अमृत लाती थी .
पाखण्ड सिरों पर नाच गया
सुख शान्ति को दाह लगा .
सब मैं मैं मैं मैं करते थे
दूजे का भाग हड़पते थे .
लालच की लाठी लेकर
कथा झूठ की रचते थे .
बच्चे थे , तब अच्छे थे .
अब वृद्धावस्था आ गयी है
रोग कई जगा गयी है .
नित दवाइयां खाते हैं
और घिसटते जाते हैं .
दम -ख़म सारा लुप्त हुआ
चेतन तत्व विलुप्त हुआ .
क्या खोते और क्या पाते हैं
अभी भी सोच न पाते हैं .
कर्म विपाक का फल बैठा
अपने आप को छल बैठा .
आत्म ग्लानि भाव जगे
बच्चे थे , तब अच्छे थे ............अरविन्द