साधु की संगत करन की मन में रही हुलार .
न साधु मिला न संग मिला न मिला विचार .
न कहीं कोई पाप किया न कर पाया पुण्य
न अपने का ही संग मिला कैसा कर्म अगण्य .
गुण अवगुण दोनों नगण्य प्रभु मेरा समदर्शी
न देखे वह कर्म को न ज्ञान की चाहे सु रसी .
कैसा मेरा वह प्रेमी है अब तक छुआ न आए
ऊँचे चढ़ चढ़ पुकारता अब करूँ कौन उपाय
है कोई प्यारा प्रभु का जो उससे मुझे मिलाय
पग धो उसके पियूँ जो सांवरिया मिल जाय
शास्त्र पढ़े सब ग्रन्थ पढ़े जान लिए सब पंथ
किस थायं वह जा छिपा मेरा प्रभु प्यारा कंत.
मन भी निर्मल कर लिया बुद्धि दिया बहाय
छोड़ी सारी जग कामना अब तो कोई मिलाय .
कर्ता रहा न कोई कर्म किया न कछु रहा हँकार
खाली खाली भौन भया न शून्य हुआ साकार .
मैं त्यागूँ अपनी हौं को तू भी त्यागे अपनी तू
बहुतक जीवन अब जी लिए संसार जले धू धू .......अरविन्द
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