सोमवार, 31 दिसंबर 2012

नये वर्ष की प्रथम प्रार्थना

                                                                  नये वर्ष की प्रथम प्रार्थना
एक दर्द देकर 2012 वर्ष व्यतीत हो गया है .इसी प्रकार समय के न जाने कितने चरण व्यतीत हो चुके हैं .जीवन ही व्यतीत हो रहा है ,सांसें चुक रही हैं और बहुमूल्य मानव देह में आबद्ध आत्मा, व्यतीत हो रहे समय के साथ स्वयं न व्यतीत हो जाए ,इसलिए आइये !इस उदित हो रहे नए वर्ष की प्रथम अरुणिम सुबह में अपने प्रभु के द्वार पर करबद्ध खड़े हो जाएँ ,अपने मन ,बुद्धि ,चित ,हृदय और आत्मा का समर्पण करें ताकि उस परमतत्व की कृपा को हम अधिगत कर सकें .

हमारे परमपूज्य आराध्य प्रभु !हमारी अर्चना के मूल प्रेरणा बिंदु ! हमारी साधनाओं के चरम लक्ष्य ! हमारी अभीप्साओं की प्रथम उत्कंठा ! हमारे अस्तित्व के परमोत्कृष्ट परामर्श दाता ! हमारी चेतनाओं के ज्योतित तत्व ! हमारे आगत के स्वामी ! हमारे विगत के द्रष्टा ! हमारे अन्तर्मन के तथागत ! हमारी तपस्चर्या के प्रखर मार्तण्ड ! हे उद्दीप्त ज्ञान के आलोक यज्ञ -पुरुष ! हमारे स्वप्नों के साक्षी ! हमारे अन्तर्जगत के जगदीश्वर ! हमारे जीवन के उज्ज्वल आलोक स्तम्भ ! हमारे परमाराध्य ! हमारे ज्ञान के ज्योतित दीपशिखा ! हे हमारे परम प्रभु -गुरु ! हे सौम्यता के सविता ! हे करुणा मय ! हे हमारे महदानन्द के प्रकाशित स्रोत!    हे  हमारे इस लोक के प्रज्ञा पुरुष ! हम आपके चरणों में अपना विगत 2012 वर्ष समर्पित करते हैं .

हे आलोक पुरुष !विनीत प्रार्थना करते हैं कि आगत वर्ष का प्रत्येक आगत पल हमें आपके सानिध्य में पवित्रता प्रदान करे . शुभता प्रदान करे .आलोक प्रदान करे . हे गुरुओं के गुरु ! आपकी करुणा ने ही हमें सार्थकता प्रदान करनी है . आपने ही हमारे लिए सत्य -मार्ग का मिहिर द्वार खोलना है . आपकी ही ऊर्जा के सध्यस्फूर्त प्रकाश ने हमें उर्ध्वगमन की सामर्थ्य प्रदान करनी है . हे प्रांजल पुरुष ! हमें हमारे समस्त अज्ञान के साथ स्वीकार करने की कृपा करें .यही हमारा संबल है ..हे शरणागत वत्सल ! हे सर्वान्तर्यामी ! हम निराश्रय , निर्बुद्धि , निर्बल , निसत्व  को आश्रय प्रदान करें .ज्ञान शक्ति ,सत्व ,धी ,मति ,मनीषा  का आशीर्वाद दें .

हमारा आत्म -निक्षेप  आपके श्री चरणों का अभिलाषी है . हे प्रभु ! हमें स्वीकार करें .इस उदित हो रहे नए वर्ष में हमें नया आकर दें .नयी वाणी दें ,नया विचार दें ,नया आलोक और नयी दिव्यता दें .अपने हाथों के स्वर्गिक स्पर्श से हमें सुधार दें .इस नए वर्ष की रात्रि सन्ध्या में नए उत्कर्ष के लिए आपके समक्ष विनयावत हैं ..............अरविन्द

गज़ल

अंधों की बसती में कोई दर्पण नहीं खरीदता
मत्स्यगंधाओं को सुगन्ध नहीं रुचता .

राजनीति में संवेदना तो आकाशकुसुम है
सिकता को पीस कर तेल नहीं मिलता .

मध्यवर्ग संभालता मूल्य और चरित्र को है
उच्च और नीच में यह फूल नहीं खिलता .

दूसरों को शिक्षा देना बहुत ही आसान है
कुत्ते की पूँछ कोई सीधी नहीं करता .

जिसने खो दिए गुण, धर्म ,करुणा, प्रेम
उस घर में  अब मानव नहीं जन्मता .

दानवों की नगरी में वही तो सुरक्षित आज
विष से विष का उपचार जो है करता .

कांटा भी जरूरी है फूलों की सुरक्षा हेतु
तनया की देह में हो ज्वालामुखी धधकता .
अरविन्द गज़ल 

रविवार, 30 दिसंबर 2012

फिसल गयी जिन्दगी

कागजों के ढ़ेर पर फिसल गयी जिन्दगी

यह जो फाइल सामने बहुत मोटी है -
मेरे अर्जित ज्ञान की यही पोथी है
इकट्ठे किए हैं जो भी प्रमाणपत्र
नौकरी के बाद हो गयी थोथी है।
बिता दिए साठ वर्ष इसे सँभालते
नष्ट किए सुखद क्षण इसे खंगालते
कागजों में सिमट गए संघर्ष जिन्दगी
ओहो !मिली हमें कैसी कागजी जिन्दगी ..

बीत गया वक्त सारा रस छानते
श्रृंगार की बीथिओं में बीभत्स बांटते
नायिका के  भेद पर आनंद छांटते
कबीर संत तुलसी की गाँठ बांधते .
व्यर्थ लग रही यहाँ  सारी पढाई है
सार्थकता मरीचिका है  ,परछाई है .
जहाँ भी मैं रूका वहां मिली गंदगी
ओहो !यह कैसी कागजी जिन्दगी .

देख लिए बापू सारे ज्ञान बघारते
ऊँची ऊँची गद्दियाँ सजते संवारते .
माया के मंचों पर ठुमक नाचते
भीड़ में रंगदार भक्ति को बांटते
न कृष्ण देखा इन्होंने न राम देखा है
सब और नाचता बस काम देखा है
अहंकार के पुतले कर रहे बंदगी
ओहो !कैसी यह कागजी जिन्दगी .

फट गये पृष्ठ सारे  जो प्रेम पगे थे
अपनी अपनी इच्छा के घुन लगे थे
स्वार्थों की दौड़ में हम सब पड़े  थे
आत्मार्थ रक्षा के कुछ गुम्बद खड़े थे
सिद्धांती वहां लगता सिर्फ कसाई था
भाई की गर्दन पर भाई सवार था .
चुपचाप रोते देखी है जिन्दगी
वाह !कैसी मिली कागजी जिन्दगी .

अब नाहीं बचा कुछ राम राम कर
सत्य के द्वार पर ठगा हुआ मर
भ्रम में जिया अब भ्रम त्याग दे
नाते बंधु सगे व्यर्थ, सब त्याग दे
एक ही तत्व तेरे भीतर जागता
उसकी बात सुन क्यों है कांपता
अर्थ तेरे आगे खोल रही जिन्दगी
कागजों के ढेर से निकल रही जिन्दगी .......अरविन्द

शनिवार, 29 दिसंबर 2012

नागार्जुन से क्षमा सहित

नागार्जुन से क्षमा सहित
काले काले नेता ,काले काले लोग
काली काली नीतियाँ ,काले काले भोग
काले काले कर्म ,काला काला भेष
काली काली टोपी ,काला काला देश .
काला काला कल अरु काला काला आज
काले काले सिर पर काला काला ताज .

शुक्रवार, 28 दिसंबर 2012

बलात्कार की समस्या --समाधान की तलाश

बीते कुछ दिनों से हम सब एक अमानवीय समस्या से जूझ रहे हैं .देश के हर कोने से स्त्रिओं पर हो रहे अत्याचार की ख़बरों ने हर संवेदनशील को झकझोर दिया है . क्या इस प्रकार के भारत की कभी कल्पना की थी ?शायद नहीं . लगता है आदमिओं के वेश में दुर्दांत राक्षस जन्म ले चुके हैं . सरकारें जो उपचार तलाश रही हैं वे सार्थक प्रतीत नहीं हो रहे .समस्या कहीं अन्यत्र है .विचार करें ...
1.क्या आपको ऐसा नहीं लगता की नवयुवकों की मनोचिकित्सा जरूरी है . अगर जरूरी है तो इसके लिए कोण सी योजना है .?
2. मनमोहन सिंह की आर्थिक नीतियों ने देश के चरित्र को काफी हद तक दूषित किया है क्या ?लूट खसूट ,भ्रष्टाचार ,पतनग्रस्त मानव और मानवीयता ,क्या इन नीतियों का परिणाम नहीं है ?
3.शिक्षा में क्यों नहीं व्यक्ति निर्माण के प्रयास किये जा रहे ?
4.स्वस्थ आदमी के निर्माण के लिए किसी नीति का निर्माण किसी भी संस्था अथवा सरकार द्वारा क्यों नहीं हो रहा ?
5.स्कूलों में मानवीय मूल्यों की स्थापना के लिए कौन कौन से प्रयास किये जा रहे हैं ?
6.समाज का कौन सा केंद्र ऐसा है जो बदतमीज ,बददिमाग ,बिगडैल ,असभ्य और विकृत मानसिकता के लोगों को सुधारने का काम कर रहा है ?
7.व्यक्ति निर्माण के लिए सरकार की कौन सी नीति है ?
8.मानवीयता के कलंकों को क्यों न ऐसा दंड दिया जाये जो दुष्टों में भय का संचार कर सके ?
9.युवकों में इस यौन विकृति का क्या कारण है ,समाजशास्त्री और शिक्षा शास्त्री क्यों नहीं सोचते हैं ?
10.मनोचिकित्सक क्यों मौन बैठे हैं ?
            समस्त भारत को यह जान लेना चाहिए की वर्तमान सरकार लोक कल्याण के लिए नहीं बल्कि भ्रष्ट तंत्र के कल्याण के लिए नीतियां बना सकती है ,किसी भी प्रकार के सामाजिक सुधार की आशा राजनीति से करना एक आकाश कुसुम है ---यह हम सबको जान लेना चाहिए .............................................अरविन्द

गुरुवार, 27 दिसंबर 2012

हम सब नितांत अकेले हैं

हम सब नितांत अकेले हैं .
अपने अपने सब अपने झमेले हैं
संसार कुछ नहीं बिंदु का पसारा है
परखो यहाँ कोई  कुछ नहीं हमारा है
अकेले आदमिओं के लग रहे मेले हैं
हम सब नितांत अकेले हैं .

अनुभूतियाँ जो लगती बहुत प्यारी थीं
देख लीं सब की सब निकलीं खारी थीं
पकड़ा था जिन्हें बहुमूल्य समझ कर
सरक गये रेत के कण दरक दरक कर
सत्य के तूफान बहुत झेले हैं
हम सब नितांत अकेले हैं .

खेल जाता है चुपचाप कोई अपनापन
अपना नहीं रहता कोई पराया तन
गुमसुम सोचता है बिखरा हुआ मन
ना प्रभु ही मिला ना कोई उसका गण
अगरु धूप बाती के लगा दिए मेले हैं
हम सब नितांत अकेले हैं ..................अरविन्द

मंगलवार, 18 दिसंबर 2012

जनून है


इश्क इन्कलाबियों का नू है 
त्म नही परमात्म का सकूँ है !
वह मेरा है या मेरी है हीं जानता हूँ 
दिल पर खुदा खुदा का मजबून है !
आकाश में उभरती हैं उसकी परछायाँ 
मेरे महबूब का चेहरा बहुत मासूम है !

कहाँ से पुकारूँ ....प्रभु !


जी चाहता  है 

हृदय  की सबसे  ऊँची बुर्जी  पर 
खडे होकर तुम्हें 
आवाज  दूँ 
घाटियों में  छा  जाए 
तुम्हारे  नाम  की 
अनुगूँज ...
और मैं  देर  तक सुनता  रहूँ .

लेकिन  जब भी  मैने 
तुम्हें  हौले  से  पुकारा  है ...हे  मेरे  प्रभु !
आंधीयां उठी ... भावों  के  भयभीत  पंछी 
उड़  गए  हृदयाकाश  में  बेतरतीब .

तुम्हारा  नाम  प्रकृति  को झकझोर  जाता  है ... मेरे  आत्मीय .. मेरे  प्रभु !

कहो ! तुम्हें  कहाँ  से  पुकारूँ ....मेरे  प्रभु !?!

मंगलवार, 11 दिसंबर 2012

दोहे

मन निर्मल  चित निर्मल हो व्यवहार
निर्मलता में  पाइये अपने मन का यार .

मूर्ति में न मिला न मिला तीर्थ बाज़ार
जब भी उसको पाया भीतर आँख पसार .


न ध्यान न ज्ञान न कर्मकाण्ड की बात
वह तो प्यारा प्यार का पाओ ताको जाग .....अरविन्द



सोमवार, 10 दिसंबर 2012

मुहब्बत की बात मुहब्बत से किया करें हजूर
यह सियासत नहीं जहाँ उठा पटक चलती हो ....अरविन्द

प्रभु जी !कुछ तो बात करो

प्रभु जी !कुछ तो बात करो .
भवसागर में मुझ को फैंका अब क्यों मौन धरो .
कहाँ गया वह वचन आपका सब कुछ गयो बिगरो .
दयालु कहलावत कृष्णा काहे  भए निर्मम सिगरो .
कैसा मन ये तुमने दीना नित नित करो झगड़ो .
ज्ञान भक्ति की बात न माने काम क्रोध लिपटो .
मन वच करम माया संग लिपटा नाहिं रहा खरो .
अरविन्द नाम धरो याही  देहका आकंठ पंक परो .
क्या करों माधव कछु नाहिं सूझे अब तो  हाथ धरो .....अरविन्द

शुक्रवार, 7 दिसंबर 2012

मेरे मोहन !मेरे मनभावन !

मनमोहन हो  कर कंस बने  हो
शीला से लीला करबाते .
बसे बसाये घर तुड बाते
अवसरवादी मंत्रिंयों के
विकृत चेहरे दिखलाते .

जनता बेचारी द्रुपदसुता सी
अपनी लाज बचाना चाहती .
दुशासन से मनमोहन तुम
ध्रितराष्ट्र सा मुस्काते हो
कलयुग में भी  लीला करते हो .

प्रभु !माया तेरी बहुत मुलायम
मुरली मनोहर तेरे पायन
जन जन तेरी ओर तके है
तुम बने धनपतियो  के बने हो  वाहन .


राधा तज किसको  ले आए .
तुम नाचे या वह नचवाये .
मौन मौन में मेरे मनमोहन
अद्भुत पांसे तुम चलवाये .
शकुनि बेचारा ढूंढ़ रहा है ,

कहीं चुल्लू भर पानी मिल जाये .


भापे !अद्भुत तेरी राजनीति है
अद्भुत तेरा बंसी वादन
नहीं समझ पाते बूढ़े दल
तुम जुटा लेते संख्या मनभावन .

मेरे मोहन !मेरे मनभावन  !

साल दो साल और खेल लो
माया ममता खूब देख लो
जिस दिन जन की आँख खुलेगी
उस दिन प्यारे बीन बजेगी .
लीला तेरी नहीं चलेगी .............अरविन्द




चलो एक दीपक जगाएँ

चलो एक दीपक जगाएँ
अँधेरे के विरुद्ध युद्ध का बिगुल बजाएँ .

प्रकाश प्रकृति की कृपा है .
प्रकाश ऋषि  की ऋचा है .
अंधेरे के विरुद्ध खड़ा जो
प्रकाश उसकी भवितव्यता है .

अकर्मण्यता ही अंधकार है .
निराशा तमस पारावार है .
बीज नहीं मानता दबा रहना
सूर्य जीवन का पहरेदार है

तो  क्यों हम मुंह ढक सोते रहें ?
निसर्ग की प्रतीक्षा में रोते रहें ?
अस्मिता का तत्व ही अस्तित्व है
परम का वही अभीष्ट तत्व है .

रचें उस नये संसार को ,जहाँ
 न अंधकार का  आकार  हो .
सबके लिए आशा का खुला द्वार हो .
परमात्म इस मनुष्य में साकार   हो .

चलो ,एक नया दीपक जगाएँ
अँधेरे के विरुद्ध घात लगाएं ........अरविन्द

गुरुवार, 6 दिसंबर 2012

जिन्दगी बड़ी विचित्र है

जिन्दगी बड़ी विचित्र है .

कहीं तटस्थ ,कहीं शत्रु ,कहीं मित्र है .
बाँट दिया सब कुछ जो जग ने  दिया था
अब सब  चित्रों में रक्षित  सुरक्षित है .
सचमुच .जिन्दगी बड़ी विचित्र है .

पराये अपने हुए ,अपने हुए पराये
सबने अपने -अपने रास्ते सुझाये .
सोचा था गन्तव्य को पा ही  लूँगा
हटा नहीं पाया अर्धसत्य के साये .
बाहर भरा भरा दीखे ,रिक्त भीतर है
सचमुच, जिन्दगी बड़ी विचित्र है .

महलों में सिंहासनों पर संत सजे हैं .
त्यागिओं के दर पर गजराज बंधे हैं .
उदासिओं के जहाँ महफ़िल सजी हुई .
वेरागिओं के पुत्रों की पांत लगी हुई .
संसार का दीखा  अजीब चरित्र है .
सचमुच ,जिन्दगी बड़ी विचित्र है.

सुख के लिए ही  संसार सजा था 
आनंद के लिए यह गृहस्थ बसा था
लुभा नहीं पाया जो कुदरत ने  दिया था
ढूंढता रहा  जिसे परमात्मा कहा था
बड़े बड़े अनुभव, दुनिया व्यर्थ है
सचमुच जिन्दगी बड़ी विचित्र है .

कहाँ जाऊं क्या करें कुछ सूझता नहीं
कर्म का अज्ञान यह छूटता नहीं .
हर तरफ माया का प्रपंच खड़ा है
स्वंयभू अज्ञात सौंदर्यमय  प्रभु 
दत्त ज्ञान कोदंड मूक कुंद पड़ा है .
मृग मारीचिका जगत शून्य अत्र है .
जिन्दगी सचमुच बड़ी विचित्र है ........अरविन्द



बुधवार, 5 दिसंबर 2012

ऍफ़ डी .आई --संसदीय असंसदीयता

ऍफ़ डी .आई --संसदीय असंसदीयता
आज भारतीय जनतंत्र में प्रजातान्त्रिक मूल्यों के स्थान पर गुटबंदी ,दलबंदी स्वार्थ और प्रतिबद्धता का अनीतिक दृश्य प्रकट हुआ .जीत हार महत्वपूरण  नहीं है ..महत्वपूरण है सपा और बसपा का पाखंड ..मुलायम सिंह राजनीतिक कम और सौदेबाज ज्यादा लगा जो राष्ट्र के लिए ठीक नहीं है ...बसपा का आज का चरित्र भारतीय राजनीति का दुर्भाग्य है ...मायावती की अवसरवादिता कोई लुकी छिपी नहीं है ,इस पार्टी के पास दूरदर्शिता का अभाव है ..जब तक ये दोनों राजनीति में रहेंगे भारतीय प्रजातंत्र की भलाई नहीं हो सकेगी ....इन दोनों ने आज राष्ट्रीय हित को नुकसान पहुँचाया है ...बीजेपी की कुंठित मानसिकता को भी अब समझना जरूरी है क्योंकि इस पार्टी नै उन लोगों और पार्टिओं को कभी करारा जबाब नहीं दिया जो इस पार्टी को सम्प्रदायक कहते हैं ...इस आरोप से बीजेपी को तकलीफ हो न हो पर बहुसंख्यक समाज को तकलीफ होती है ...केवल उतरप्रदेश का ही हित चाहना साम्प्रदायिकता नहीं? .....और विरोध में भाषण देकर पक्ष में वोट डालना क्या राष्ट्र के साथ विश्वासघात नहीं? ....आज प्रजातंत्र नहीं छोटे छोटे दलों का स्वार्थ तंत्र बन गया है ....यह चिन्तनीय है  ....हमें सोचना होगा की ये लोग प्रजातंत्र को राजनीतिक और सतात्मक दासता की और लेकर जा रहे हैं .....यह देश और प्रजातंत्र के लिए घातक है .....अरविन्द

सोमवार, 3 दिसंबर 2012

राजनीति की चौसर

राजनीति की चौसर पर मनमोहन लाचार
डुबो दी कांग्रेस  लुटिया इसने भरे बाज़ार
इसने भरे बाज़ार कर दिये  नेता सब नंगे .
खा गए बड़ी दलाली कोयले  की चंगे चंगे .
कहे अरविन्द राज सत्ता की नीति दुर्नीति .
बिखर गई यह भाजपा भी  देखो  राजनीति ...अरविन्द





माधव !करो कृपा की कोर

माधव !करो कृपा की कोर .
भटक रहा हूँ भवसागर में नहीं मिला है छोर .
छोटे छोटे पापी तुम तारे अब मेरी और निहोर .
पकड़ हमारी बहियाँ कृष्ण देख लेओं तेरा जोर .
 मन्त्र न जानूं तंत्र न जानूं न जानूं भक्ति प्यारे .
तेरी ओर इकटक निहारों मेरे प्रियतम मेरे  दुलारे .
कहे अरविन्द  सत लूट के ले गये तेरे पांचों चोर .
अब तो कृपा करो मुरारी छूट रही संसारी की  डोर ......अरविन्द

रविवार, 2 दिसंबर 2012

उसे पतझड़ नहीं सुहाता है

उसे पतझड़ नहीं सुहाता है
सदा वसंत वसंत वह चाहता है .
मुसुकुराते फूलों के संग कुछ कलिओं को वह
निरंतर गीत सुनना चाहता है .
                उसे पतझड़ नहीं सुहाता है .
रंग बदलती दुनिया  है
रंग बदलता जीवन भी
रंग बदलते अपने भी
रंग बदलता यह मन भी .
फिर पतझड़ से यह डरता क्यों
नित सावन सावन गा ता है .
               उसे पतझड़ नहीं सुहाता है
संघर्षों को सहकर के
धक्के जीवन के खा करके
अब अपनी कुटिया में वह
जी भर सोना चाहता है
इसीलिए उसे पतझड़ नहीं सुहाता है।
कुछ रंग बिरंगी दुनिया हो
कोई स्वप्नीली मुनिया हो
अब और नहीं रगडा झगडा
बस अपने मन का गुनिया हो
शेष बचे इस जीवन में   .
कुछ फाग और फागुनिया हो
न अगले पल की चिंता हो
न बीते पल का रोना हो
न धक्का मुक्की शेष बचे
न इर्षा द्वेष का टोना हो
 बस जीवन जी  वन जीवन हो
फिर क्यों पतझड़ की बात करें
फिर क्यों दुःख का रोना रोना हो . ....अरविन्द

शनिवार, 1 दिसंबर 2012

जब भी

हम कभी रावी कभी सतलुज कभी व्यास होते हैं
जब भी उसकी इच्छा  से बहुत पास पास होते हैं .

देवदारु से लिपट जाती है जैसे मासूम सी लता
  धरती और  आकाश ही गलबहियों में नहीं होते हैं

गंगा का वेग भी नहीं इतना उमड़ता घुमड़ता  होगा
जब भी कभी हम गहरे समुद्र से आस पास होते हैं

लीला बड़ी विचित्र है मेरे उस परम  परमात्मा की
आनंद नाचता हैजब प्रकृति पुरुष  साथ साथ होते हैं ...अरविन्द