हम कभी रावी कभी सतलुज कभी व्यास होते हैं
जब भी उसकी इच्छा से बहुत पास पास होते हैं .
देवदारु से लिपट जाती है जैसे मासूम सी लता
धरती और आकाश ही गलबहियों में नहीं होते हैं
गंगा का वेग भी नहीं इतना उमड़ता घुमड़ता होगा
जब भी कभी हम गहरे समुद्र से आस पास होते हैं
लीला बड़ी विचित्र है मेरे उस परम परमात्मा की
आनंद नाचता हैजब प्रकृति पुरुष साथ साथ होते हैं ...अरविन्द
जब भी उसकी इच्छा से बहुत पास पास होते हैं .
देवदारु से लिपट जाती है जैसे मासूम सी लता
धरती और आकाश ही गलबहियों में नहीं होते हैं
गंगा का वेग भी नहीं इतना उमड़ता घुमड़ता होगा
जब भी कभी हम गहरे समुद्र से आस पास होते हैं
लीला बड़ी विचित्र है मेरे उस परम परमात्मा की
आनंद नाचता हैजब प्रकृति पुरुष साथ साथ होते हैं ...अरविन्द
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