रविवार, 2 दिसंबर 2012

उसे पतझड़ नहीं सुहाता है

उसे पतझड़ नहीं सुहाता है
सदा वसंत वसंत वह चाहता है .
मुसुकुराते फूलों के संग कुछ कलिओं को वह
निरंतर गीत सुनना चाहता है .
                उसे पतझड़ नहीं सुहाता है .
रंग बदलती दुनिया  है
रंग बदलता जीवन भी
रंग बदलते अपने भी
रंग बदलता यह मन भी .
फिर पतझड़ से यह डरता क्यों
नित सावन सावन गा ता है .
               उसे पतझड़ नहीं सुहाता है
संघर्षों को सहकर के
धक्के जीवन के खा करके
अब अपनी कुटिया में वह
जी भर सोना चाहता है
इसीलिए उसे पतझड़ नहीं सुहाता है।
कुछ रंग बिरंगी दुनिया हो
कोई स्वप्नीली मुनिया हो
अब और नहीं रगडा झगडा
बस अपने मन का गुनिया हो
शेष बचे इस जीवन में   .
कुछ फाग और फागुनिया हो
न अगले पल की चिंता हो
न बीते पल का रोना हो
न धक्का मुक्की शेष बचे
न इर्षा द्वेष का टोना हो
 बस जीवन जी  वन जीवन हो
फिर क्यों पतझड़ की बात करें
फिर क्यों दुःख का रोना रोना हो . ....अरविन्द

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