बुधवार, 8 अप्रैल 2015

आज की कुण्डलियाँ मित्रो...

आज की कुण्डलियाँ मित्रो ---
1 .  आओ मन झरना बनो , लें पर्वत का संग।
      पर्वत के तरुओं तले , हो प्रियतम का संग।
      हो प्रियतम का संग , मुरलिया सुंदर बाजे।
      सुन अन्तर का नाद , कृष्ण को साजें साजे।
      कहता है अरविन्द , अरे तुम साज सजाओ।
      मनभावन हो आज , प्रियतम शीघ्र तुम आओ।
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2 .  जंगल जंगल मन हुआ , डाली डाली फूल।
      कित हो मेरे साइंया , रस को मत तू भूल।
      रस को मत तू भूल , राधिका कान्ह पुकारे। 
      मधुवन छाया रास ,कृष्णा तुम्हें निहारे।
      कहता है अरविन्द ,माधवी अब हो मंगल।
      यमुना गाती राग ,तरंगित तन है जंगल।
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3 . वनवासी मन ढूंढता , उदासीन सा आप।
     विषय भोग संसार के ,जगती का संताप।
     जगती का संताप ,सहजता सुलभ न आए।
     बंधन है अभिशाप ,विकल मन तड़पा जाए।
     कहता है अरविन्द ,मुक्ति तरुतल की वासी।
     मन वैरागी आज , सुखद जीवन वनवासी।…………अरविन्द







मंगलवार, 7 अप्रैल 2015

कुण्डली छन्द

मित्रो आज कुछ कुण्डली छन्द का आनन्द लेते हैं ---
1 . मित्रता अनमोल रत्न , है सौभाग्य सुजान।
     समदर्शी निष्कपटता , नहीं मान अपमान।
      नहीं मान अपमान , देवत्व दे मनुज को  ।
      करती देव समान , शुभ्रता वरदाती हो  ।
      कहता है अरविन्द ,जिसे हो चाह पात्रता।
      रत्नों का है रत्न , वरो निष्कपट मित्रता।
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2 . आलोचक हों भाड़ में , चिन्ताशील निमग्न।
     कुण्डल को हैं रच रहे , जो हैं छन्दो भग्न  ।
     जो हैं छन्दो भग्न , वही अब नाचें जी भर।
     कहता है अरविन्द , मनाते खुशियां जी भर।
     उल्टा पुल्टा लिखो , हम हैं छन्द उन्मोचक।
     भय अब छोड़ो प्रिये , भाड़ में हों आलोचक।
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3 .   सुकीर्ति को पाओ कवि , उधड़े कविता खाल।
       आकर कहाँ हम फंसे , कवि जी हैं बेहाल  ।
       कवि जी हैं बेहाल , श्रृंगार क्लिष्ट हुआ है  ।
       विरह ग्रस्त है त्रस्त , प्रिये उन्मुक्त हुआ है।
       कहते हैं अरविन्द , होत है  बड़ी अपकीर्ति  ।
        कहाँ छिपे हो छन्द , पढ़ रहे कविता सुकृति।
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4 .   पत्नी बोली आन कर , छोड़ कुंडली प्राण।
        घर भीतर भी देख ले , मचा हुआ तूफ़ान।
        मचा हुआ तूफ़ान  , तुझे बस कविता सूझे।
        आटा  दालें  खत्म , तू  कुंडली  सुं  जूझे।
        कहते हैं अरविन्द , अरे सुन मेरी   रत्नी।
        कविता तो है खाज , अरे कुछ समझो पत्नी। ………अरविन्द

बुधवार, 25 फ़रवरी 2015

खुदा झलकता है

अधमुंदी आँखों से ऐसे मत देखा करो
मेरे पास सभी प्रश्नों के उत्तर नहीं हैं।
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क्यों निहारते हो हमें ऐसी सतरंगी आँखों से
रोयाँ रोयाँ देह का दीये सा जगमगाने लगता है।
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कुछ है कि उनकी आँख में खुदा झलकता है
आदमियों की आँखें इतनी उदार नहीं होतीं। …………अरविन्द

मंगलवार, 24 फ़रवरी 2015

बीती हुई बातें

यादों में उमड़ घुमड़ आती हैं बीती हुई बातें
जीना ही मुश्किल कर देती हैं बीती हुई बातें
मन में भटक भटक आती हैं बीती हुई बातें
नींद उड़ा कर ले जाती हैं अब बीती हुई बातें
बीती हुई बातों में आ जाती है याद तुम्हारी
जैसे पुरवा में आ जाती सुगन्धित सी लहरी
फूलों की पत्तियों से लरजते से रक्ताभ होँठ
भटकती हुई उँगलियाँ मचातीं देह पर धौंस।
उमड़ता हुआ बादल पिघल जाता शिखरों पर
छन छन छनकता संगीत युगनद्ध बाहों पर।
ख्यालों में जग जातीं हैं वे रस रास की बातें
यादों में उमड़ घुमड़ आती हैं बीती हुई बातें।.......... अरविन्द
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गुरुवार, 12 फ़रवरी 2015

आओ तुम्हारे रतनारे

आओ तुम्हारे रतनारे
स्कन्धों पर
झूलती लटों को
फूंक मार कर हटा दूँ।

जब भी मैं इन कन्धों पर
थका हारा आ
सिर टिकाता हूँ --
तुम्हारे कुंतल
मेरे कानों के पास गुदगुदी करते हैं।

सुनो !
जब भी तुम
गर्दन हिलाते हुए ,
अंतरंगता से भर
मेरे माथे से अपना माथा लगा
धीरे से बुदबुदाती हो --
तुम्हारी माँग का कुंकुम
मेरे माथे पर चमकने लगता है ;
लोग पूछते हैं
कि मैं भक्त क्यों हो रहा हूँ ?

मैं कह नहीं पाता
मौन , एकांतिक प्रणय भी
अपने चरण -चिह्न छोड़ जाता है। …………अरविन्द

अबूझ वाणी में


अबूझ वाणी में
मैं बोलूं जानबूझ कर
समझ लेगा मेरा प्यारा
मैंने दुनिया कर दी किनारे पर।

मिलन हो देह का , मन का
मिलन हो आत्मा का भी ;
इसीलिए कह दिया अकहा सब कुछ
कह न पायी भाषा जिसे टुक रत्ती भर।

वह मेरा है बड़ा प्यारा
सुनता है अबोल बोली को
न उसे खेचरी भाती
न भाती अपरा ही उसको ।

परा के सौंदर्य को चाहे
पश्यन्ति से प्रेम है करता ।
परा ही मौन सोहम् है
परा ही हंस की भर्ता ।

तू चिंता छोड़ अपर, पर की
परा में लिप्त पश्यन्ति
खेचरी आसक्त आसक्ति
नहीं यह भेद कह सकती।

पश्यन्ति प्रांगण परा का है
इसी में खेलती विद्या भूति
अनुरक्त अनुरक्ति अनासक्ति
यही प्रिय प्रेम की भक्ति ।......अरविन्द

जी चाहता है

जी चाहता है
इन्द्रधनुष जब खिले
और मैं बच्चा हो फिर नाचूं।
खिले हुए
बहुरंगी रंग में
गिरती बूंदों की छम छम में
भीगूँ ,खुल कर भागूं।

गली मुहल्ले के
छप्पड़ में
खुल कर पंक उछालूँ ।
गंदे पानी में लथपथ हो
माँ की चढ़ी त्यौरी संग मैं
अपनी पीठ खुजा लूँ।

बड़े हुए बड़प्पन पाया
कितना कुछ खो डाला।
निर्मलता उडी परी सी ,
अहंकार घर डाला।
ईर्ष्या , द्वेष के कीड़े चिपटे
पाखंडी कर डाला।
बचपन क्या छूटा
आनंद कहीं धो डाला।

शुक्र करूँगा , वृद्ध बनूँगा
फिर बचपन जी पाऊँगा।
अपने मन की दबी हसरतें
बूढ़ा हो ,पूरी कर पाऊँगा।

बचपन है प्रभु की संगत
बचपन अभेद आनंद।
बचपन छूटा , छूट गया फिर
चित्त का सच्चिदानन्द। .......... अरविन्द