गुरुवार, 12 फ़रवरी 2015

आओ तुम्हारे रतनारे

आओ तुम्हारे रतनारे
स्कन्धों पर
झूलती लटों को
फूंक मार कर हटा दूँ।

जब भी मैं इन कन्धों पर
थका हारा आ
सिर टिकाता हूँ --
तुम्हारे कुंतल
मेरे कानों के पास गुदगुदी करते हैं।

सुनो !
जब भी तुम
गर्दन हिलाते हुए ,
अंतरंगता से भर
मेरे माथे से अपना माथा लगा
धीरे से बुदबुदाती हो --
तुम्हारी माँग का कुंकुम
मेरे माथे पर चमकने लगता है ;
लोग पूछते हैं
कि मैं भक्त क्यों हो रहा हूँ ?

मैं कह नहीं पाता
मौन , एकांतिक प्रणय भी
अपने चरण -चिह्न छोड़ जाता है। …………अरविन्द

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