गुरुवार, 12 फ़रवरी 2015

ध्यान में

ध्यान में जब उतरता हूँ--
भूल मैं के मैं को
होने की सीमित सीमा को

फैल जाता है
हृदयाकाश उन्नत
विविधवर्णी प्रभा के
आलोक रंग छिटकता आकाश।

 
पिघलता अहंकार तब।

 
देह का सब भान
लय जो जाता कि जैसे
जल मिले जल में।

 
उछलता कूदता यह मन
जा टिकता त्रिकुटी के भुवन में।

 
शुभ्र आभाजल किरण के
उतरने लगते
अंतस के गगन में।
नाचती वे मूर्तियां
पाषाणवत थिर रहीं जो भुवन में।

 
लघु आकाश में है सिमटता
वृहदाकाश
मोती ज्यों सीप के तन में।

ध्यान में
मैँ नहीं होता
वहां विराट होता है।

ब्रह्माण्ड के किनके
थिरकते क्षीण काय से।

भीतर वहां बस
बृहत् महादाकाश होता है।

लाल,पीली और नीली
नीलिमा में झलकता
सोहं का अवकाश होता है ।.....अरविन्द

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