अबूझ वाणी में
मैं बोलूं जानबूझ कर
समझ लेगा मेरा प्यारा
मैंने दुनिया कर दी किनारे पर।
मिलन हो देह का , मन का
मिलन हो आत्मा का भी ;
इसीलिए कह दिया अकहा सब कुछ
कह न पायी भाषा जिसे टुक रत्ती भर।
वह मेरा है बड़ा प्यारा
सुनता है अबोल बोली को
न उसे खेचरी भाती
न भाती अपरा ही उसको ।
परा के सौंदर्य को चाहे
पश्यन्ति से प्रेम है करता ।
परा ही मौन सोहम् है
परा ही हंस की भर्ता ।
तू चिंता छोड़ अपर, पर की
परा में लिप्त पश्यन्ति
खेचरी आसक्त आसक्ति
नहीं यह भेद कह सकती।
पश्यन्ति प्रांगण परा का है
इसी में खेलती विद्या भूति
अनुरक्त अनुरक्ति अनासक्ति
यही प्रिय प्रेम की भक्ति ।......अरविन्द
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