शुक्रवार, 31 जनवरी 2014

आवारा चिन्तन

आवारा चिन्तन
हम सब बहुत जल्दी संतुष्ट हो जाते हैं ,जबकि सत्य के अन्वेषक के जीवन में संतोष एक दुर्गुण है। इसी प्रकार धारणा की निर्मिति में भी हम शीघ्रता करते हैं। जो हमारे कानों को मधुर लगता है या हमारे चैतिक गणित में ठीक बैठ जाता है ,हम उसे ही सत्य मान लेते हैं। जैसे दो और दो चार --यह गणित की गणना है न कि जीवन की। जीवन गणित नहीं बल्कि अनेक इच्छाओं ,कामनाओं ,भावनाओं ,विचारणाओं ,संकलपनाओं और संग्रथित संचेतनाओं का पुंज है। हम अपने लिए और अपने ही परिवेश से सम्बद्ध प्रश्नों से सदा ही आक्रान्त रहते है और उन प्रशनों के उत्तर, स्वयं तलाशने के स्थान पर, किसी अन्य व्यक्ति के पास जा कर समाधान चाहते हैं। प्रश्न हमारे ,संघर्ष हमारे ,परिवेश हमारा ,तो उत्तर दूसरे से क्यों ?मुझे लगता है कि हम कहीं आलसी हैं और जानबूझ कर स्वयं परिश्रम नहीं करना चाहते। हमारे पास ऐसी कौन सी कसौटी है कि जिस पर हम , जिस दूसरे से अपने उत्तर चाहते हैं,उसके उत्तरों को हम परखें ? हम नहीं परखते और सत्य से दूर हो जाते हैं। क्योंकि सत्य को साक्षात् करने कि केवल एक ही कसौटी है ---स्वयं का प्रयास ,स्वयं का अर्जित ज्ञान।
जिस प्रकार प्रत्येक व्यक्ति दूसरे से भिन्न है ,प्रत्येक मन की अपनी भिन्न परिकल्पना है उसी प्रकार प्रत्येक व्यक्ति के लिए ज्ञान और सत्य उपलब्धि का मार्ग भी भिन्न ही हो सकता है। पीपल नीम के पास या साथ-- संसर्ग में रह कर भी नीम नहीं हो सकता। यह प्राकृतिक और नैसर्गिक सत्य है। सत्य प्राप्ति के मार्ग के हम सब सहयात्री तो हैं, परन्तु मार्ग भिन्न है और व्यक्ति -मानसिकता के भीतर है ---ऐसा मेरा विचार है। कारण है --सुदामा भी एक ही हुआ ,अन्य कोई सुदामा के मार्ग पर नहीं चल पाया। अजामिल भी एक ही था। मीरा जैसा भी कोई अन्य न हो पाया। रामानंद ने कइयों को राम नाम दिया होगा ,पर सभी कबीर नहीं हो पाये। तो अर्थ यही है कि हमें सत्य या परमात्म प्राप्ति के लिए अपना मार्ग स्वयं निश्चित करना होगा।इसके लिए हमें अपने स्वभाव के प्रति जागरूक होना आवश्यक है। ....... अरविन्द

गुरुवार, 23 जनवरी 2014

भक्ति और प्रेम

 भक्ति और प्रेम पर्यायवाची हैं। संसार में प्रेम को श्रृंगारिकता की दृष्टि से और भक्ति को कर्मकांड की दृष्टि से देखा जाता है। प्रेम करने के लिए द्वैत की आवश्यकता है ,परमात्मा द्वैत में लिप्त होकर भी विलुप्त रहता है। न कुछ कहता है , न सुनता है ,न सुनाता है ,न मानता है ,न मनाता है --केवल एकटक निहारता रहता होगा ---यह भी सुना ही है। तो प्रेम की परिणति कैसे होगी ?सांसारिक प्रेम में देह की महत्वपूर्ण भूमिका है ,परन्तु वहाँ आसक्तियाँ ही प्रेम का रूप ले लेती हैं ,जबकि अधिकतर ज्ञानी आसक्तियों को गर्हित मानते हैं। आसक्ति में रस है और परमात्मा के लिए भी आप कहते हैं रसो वै स :----तो आसक्ति को छोड़ने की क्या जरुरत है ?गुरु से प्रेम करते हैं ,तो गुरु कहीं अन्य के ध्यान में निरत है। किसी स्त्री या पुरुष से प्रेम करते हैं तो दुश्वारियाँ बहुत हैं। समस्या बहुत है। मन की निर्मलता कहीं मिलती ही नहीं। कहीं हम सब मृगतृष्णा के पीछे ही तो नहीं भाग रहे क्या ? परम ज्ञानी ,प्रज्ञासंपन्न अगर यहाँ  हों तो ---अवश्य दिशाबोध देंगे। करणीय सूचित करेंगे। हम उनकी उदारता के साक्षी होना चाहते हैं। ध्यान दे कि कहीं हम सब आध्यात्मिकता या भक्ति के नाम पर मूर्ख तो नहीं बन रहे । जो दुकानदार अधिक संख्या में मूर्खों को आकर्षित कर सकता है वह लाभ कमाता है ,मूर्ख लूटे जाते हैं। यही तो नहीं कहीं हो रहा। ............. अरविन्द

बुधवार, 22 जनवरी 2014

भाषा की राजनीति : आवारा चिन्तन

                                  भाषा की राजनीति : आवारा चिन्तन
आजकल दिल्ली एक नयी प्रकार से राजनीति की प्रयोगशाला बनी हुई है। कोंग्रेस ,बी जे पी ,मोदी तथा आम आदमी पार्टी ,अरविन्द केजरीवाल सब भारतीय   राजनीति को समझने समझाने में लगे हैं। कसौटी पर राजनीतिक शालीनता है। आजकल जिस भाषा के वक्तव्य ,मीडिया द्वारा प्रकट किये जा रहे हैं ,उनमें कहीं सब शिष्टाचार का आभाव देखते हैं। मैं व्यक्तिगत रूप से केजरीवाल को शुद्ध राजनीतिज्ञ नहीं मानता हूँ ,पर राजनीति को सामान्य जन से जोड़ने का एक जन -निष्ठ प्रजातंत्र का उपकरण मानता हूँ। कारण है कि इससे पूर्व के राजनीतिक दल जनता से विमुख हो चुके थे ,वे अपनी जड़ों से टूट चुके लगते रहे हैं। केंद्र की राजनीति में अवसरवादी दल ,जैसे कभी मुलायम ,कभी लालू ,कभी ममता ,कभी माया आदि प्रादेशिक क्षीण और अल्प दर्शी नेताओं का सहयोग उनकी जरूरतों की पूर्ति का माध्यम रहा। इन लोगों की पिछले कुछ वर्षों से ,अगर आकलन किया जाये तो ,देश की राजनीतिक सम्पन्नता को कोई देन अथवा योगदान नहीं दिखाई देता। इन दलों और छुटभैये नेताओं ने सत्ता सुख भोगने वाले दलों के सत्व का दोहन किया। कांग्रेस सदा से अवसरवादिता को प्रश्रय देती रही है। बी जे पी को भी इन्हीं के कारण नुक्सान उठाना पड़ा ,इन नेताओं के हितों का सरंक्षण करने के कारण यह दल अपनी मूल विचारधारा से दूर हटा। आज मोदी की वैचारिक निष्ठां के कारण कुछ आशा जगी ,तो भी राजनीति का भाषिक तंत्र रास्ता रोक का खड़ा है। जो वक्तव्य हम लोग सुन रहे हैं ,लगता है कि बी जे पी अभी भी इस रूकावट की ओर ध्यान नहीं दे रही है।
केजरीवाल राजनीति का प्रतिक्रयावादी चेहरा है। वह जनता की प्रतिक्रिया है ,इसीलिए केजरीवाल की भाषा भारतीय सामान्य जनता की प्रतिक्रिय - भाषा के मुहावरे से जुडी हुई है। आम आदमी पार्टी से पहले के नेताओं ने जनता की प्रतिक्रिया को पहली बार देखा है। इसीलिए परम्परावादी दलों के पास इस भाषा का तोड़ नहीं है। लालू मुलायम ,माया ममता सब चुप हैं। इनकी चुप्पी का अर्थ समझाना जरुरी है। क्योंकि इनके मौन में इनकी कार्य -पद्धति छिपी हुई है।
अगर 2014 के चुनावों में स्थिर सरकार नहीं आती है , तो बड़ी विकट  स्थिति होगी। जिसे देश स्वीकार नहीं करेगा।
मुझे लगता है कि कांग्रेस आम आदमी पार्टी का सहारा लेकर केवल बी जे पी के वोट ही नहीं तोड़ेंगे बल्कि आम आदमी पार्टी को भी संस्थागत नुकसान पहुंचाएंगे।
बी जे पी को ध्यान देना चाहिए की देश का अधिक संख्यक वर्ग युवा और पढ़ा लिखा है.यह वर्ग सामाजिक ,पारिवारिक और वैयक्तिक समस्याओं से जूझ रहा है। इस वर्ग ने पारम्परिक पार्टियों को नकारना है। क्योंकि विद्रोह और विरोध इसी वर्ग में है। भ्रष्ट नेताओं की भीड़ तो आज हर पार्टी में है। हर मोहल्ले के लोग इनके प्रति कटुता पाल चुके हैं।
पार्टियों के प्रति प्रतिबद्धता में कमी भी आ चुकी है ---इस सत्य से भी मुँह नहीं मोड़ा जा सकता। अस्तु ,इस बार के चुनाव अधिक रुचिकर और आँखें खोलने वाले होंगे ,ऐसी आशा करनी चाहिए। .......... अरविन्द

मंगलवार, 21 जनवरी 2014

कुण्डली

कुण्डली

सब कोई सब की करत है पीठ  पीछे बात ।
माथा टेके हो  सामने ,छिप के करे आघात।
छिप के करे आघात यही जग का लेखा भाई ।
कोई न किसी का हो सके झूठी मान  रजाई। 
कहे अरविन्द कविराय मौन हो सहते हैं सब ।
सबकी खींचें टांग सभी फिर पछतावें हैं सब। ………… अरविन्द


 

अरविन्द दोहे

अरविन्द दोहे
परमतत्व अन्तस्थ है ,भीतर दीखे नाहिं
निर्मल कर निज मन आत्मा परमतत्व दरसहिं।
भयभीत चित्त न पा सके ,ज्ञान ध्यान अरु भक्ति
प्रेम न स्वयं को ककर सके ,झूठी सब अनुरक्ति।
जीव जगत और ब्रह्म सब ,भिन्न भिन्न है बात।
जगत जीव को पीसता ,ब्रह्म बैठा मुस्कात।
प्रेयसी की मुस्कान तो ,सब दु:खों की खान।
मूरख मानुष जा फंसे ,यह अज्ञान पहचान।
सुंदर छरहरी लाये थे ,थुलथुल हो गयी देह।
सदा एक सी न रह सके ,पत्नी मायावी एह।
खाया पीया सो लिया, सलाम किये सब काम .
रो धो कर जीवन जी लिया ,अंत ठुस्स हुए राम। …………अरविन्द

सोमवार, 20 जनवरी 2014

सो गयी पायल मेरी

सो गयी पायल मेरी ,बिछुआ भी सो गया
नींद के सिरहाने लग पिया कहाँ खो गया .
मैं तो अकेली मौन रातरानी सी महकती रही
आस कंगनों की खनक व्यर्थ ही बहकती रही .
तुम कहाँ खोये खोये चाँद से सरक गये --
तेरे द्वार लगी चकवी पिय पिय पुकारती रही .
विरह भीगी रात मेरी आँख मेरी रास भीगी
देह सारी प्यारी मेरी सागर के ज्वार भीगी
कब मेरी लहर बहर तेरे तट तक आयेगी ?
शबरी सी खड़ी तेरी बाट बिट बिट निहारती हूँ
शायद यह जिन्दगी अचाही उडीक बन जाएगी .……… अरविन्द 

किसे तुम बुलाती हो ?

संस्कारों की जंजीरों को
तोड़ नहीं पाया जो .
ब्राह्मणों की वृति को

त्याग नहीं पाया वो .
संन्यास के चित को
कंगन नहीं भाया है
बिछुए की पीड़ा को
समझ नहीं पाया है
अधखुली पलकों में
जिसको डुबोना है .
अलकों की छाया में
उसको छिपा लो तो .
प्यार की यह वर्णमाला
क्यों भूल भूल जाती हो ?
मौन के अबोले बोल में
किसे तुम बुलाती हो ?

शनिवार, 18 जनवरी 2014

नेता जी आयेंगे

कल मोहल्ले में नेता जी आयेंगे
झूठा मुस्कराएंगे ,हाथ हिलाएंगे
माथा झुकायेंगे ,बेतुका बतियाएंगे
बूढ़ों संग चारपाई पर बैठ जायेंगे
खीसें निपोरेंगे ,हाथ भी फैलाएंगे
कहीं भाभी ,कहीं दादीजी बुलाएंगे
बच्चों के झुंड पीछे नारे लगाएंगे
वोट दो ,वोट दो सभी चिल्लायेंगे
नीले पीले लाल हरे झंडे लहराएंगे
सौदागर की टोपियां बंदर लगाएंगे
वादे  सारे झूठे जनता को सुनाएंगे 
फिर फसली बटेर नज़र नहीं आयेंगे
देश जाए भाड़ में ये नहीं शरमायेंगे
सोने की चिड़िया के पर नोच खायेंगे
भैंस के आगे लोग बीन तब बजायेंगे। …………… अरविन्द

कोई तो बताये रे !

उर्दू भाषा में जिसे शेर कहते हैं उसे हिंदी में क्या कहें -----कोई तो बताये रे !
आँखें ही नहीं बोलतीं सिर्फ मुहब्बत में
स्पर्शों का भी अपना अंदाज़े बयां होता है।
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प्यार के झुटपुटे में क्या कहें जनाब
हाथ अपनी शरारतों से बाज़ नहीं आते।
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कहाँ शिखरों पर थे ,कहाँ अब धूल में हैं
मीडिया भी सिर पर उठा कर पटक देता है।
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कहाँ क्या कहें और कहाँ कुछ न कहें हम
कुछ संबंध हैं जिनमें शब्द तराशे नहीं जाते। ………… अरविन्द
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शुक्रवार, 17 जनवरी 2014

तुम

तुम हमारे साथ हो, तो क्या ही बात हो
कवितायों की भीड़ में ज्यों ग़ज़ल साथ हो। ....... अरविन्द

लाजबाब देखेंगे।

आज गुलमोहर ,गुलाब औ जूही देखेंगे
जंगल में चलें अधखिले श्वाब देखेंगे। …
कहीं एकांत में भी कोई फूल खिलता है
अलाब सेंकते हुए हम भी ख़बाब देखेंगे ।
क्यों बंद करें हम अपने को बंद कमरे में
नदी के पार चलें  तारों की बारात देखेंगे।
आये हैं इस दुनिया में कहीं से तो  हम
कुदरती हो तो कुदरत की सौगात देखेंगे ।
अब तो चुप न रहो कुछ तो कहो जनाब
यहाँ वहाँ वह  छिपा है लाजबाब देखेंगे। ……अरविन्द


अब जब भी कभी गुलाब देखेंगे

अब जब भी कभी गुलाब देखेंगे
तुम्हें ही वहाँ हम जनाब देखेंगे।
गुलाबी पत्तियां मुस्कुरायीं होंगीं
माथा चूम कर तेरा लहराई होंगी।
मुस्कान मीठी की झलक पा कर
गुलाब  धीमे से शरमायी  होंगी।
आज तो नाचा होगा गुलमोहर भी
खुशकिस्मती उसने मनायी होगी ।
शुक्लांबरा कोमल कुसुम सी तुम
लालिमा कानों में उतर आयी होगी।
सुकर्म तेरे सबने पहचान लिए होंगे
उस आँख में गुलाबी छा गयी होगी । ………अरविन्द

बुधवार, 15 जनवरी 2014

.अरविन्द दोहे

बीते नाहि विभावरी ,मिले न पिय का गाँव।
आकाश नहीं है लीलता पीव मिले किस ठाँव।
रात अँधेरी ऐसी  मिली ,घर में दीपक नाहि ,
ठाँव ठाँव पुकारता ,कोई दीपक दीजो माहि। .
हम वैरागी रात दिन ,उड़ते  रहते आकाश ,
पर मन प्रभु के राग रत सहेजा हम वैराग ।
छोड़ी धूनी की राख यह ,छोडा ध्यान म्यान
अब तो प्रियतम पंथ ही ढूँढ रहा दिन रैन।
विचरा हूँ जग डगर पर , जान नहीं पहचान ,
मूरत हृदय में है बसी ,लूंगा झट पहचान।
अजब संत का रंग यह ,अजब संत का नेह ,
गेह ही विपिन सम हुआ क्या श्रृंगार या खेह। .............अरविन्द दोहे

चाँदनी को जब छू लिया

चाँदनी को जब छू लिया प्राण चंचल हो गये
देह हुई सितार, तो सब तार झनझना गये।
        गीत अनबोला उठा
        संगीत नाद छा गए
         अकहा सब कहा गया
        अशब्द गीत भा  गये।
अनाद नाद ऐसा  उठा कि देह मन नहा गए .
चाँदनी को छू  लिया , सितार झनझना गए।
          झनझनायी उँगलियाँ
          शिरायें कसमसा गईं।
          स्पर्श की बयार में तो ,
          ज्योति सनसना गयी।
पंच तत्व लीन हुए ,अक्षुण्ण क्षीणता छा गयी
पंच प्राण तालिका में सतरंगिणी लहरा  गयी।
          नाद पंच मुखर हुए
          अनाहद नाद छा गए
          बिस्माद स्वर जो उठे ,
          ब्रह्म नाद भा  गये ।
प्रकृति पुरुष के सभी संसर्ग तभी शरमा गए
चाँदनी को छुआ, तो सितार झनझना गए। …………अरविन्द


रविवार, 12 जनवरी 2014

लोहरी के संग

ढोल बजे ,मंजीरा बजे और बजे शहनाई
पंजाबी मन में उमंग लोहरी की है छाई।
मालवा के आकाश में रंग बिरंगी पतंग ,
जीवन यौवन हुलसता इस लोहरी के संग।
आई प्रियतम अंगने सुन ढोलक की थाप,
गिद्दे भीतर झलक रही सोहनी की सौगात।
चारपाई पर रांझणा लुक छिप करता घात ,
बड़े बूढ़ों की भीड़ में अँखियन करता बात ।
उत्सव हमारे उल्लास के नित हमें जगावें
जीवन रस को बाँट लो ,नाहीं तो पछतावें। ………अरविन्द

अब कुछ कहा न जाए

चित्त मेरा अलसाना मितवा ,अब कुछ कहा न जाए।
देहरी परबत सम लागे है ,पग उठने नहीं पाये।
पलक खोलना चाहूं ,खुले न ,नयनां मूंदे हैं जाये।
मद छाया  देह भयी भारी ,विषधर बिल माहिं समाये।
 जरी गयी देह ,मन मौन हुआ अब सुख सागर नहलाये।
जब ते कृष्णा भीतर पैठा ,घर आँगन न सुहाय।
चित्त मेरा अलसाना मितवा ,काहे तू अधिक सताये। ………… अरविन्द

गुरुवार, 9 जनवरी 2014

बीत रही है रैन

महाकवि हैं जागते ,बीत रही है रैन
कविता रचने के लिए ,गिने ऐन गैन।
कवितायें नाच रहीं खुली आँखों माह
शब्द नहीं मिल पा रहे चैन मिले नाह ।
चैन मिले नाह कल्पना के पंख लगावें
दूर की कौड़ी पकड़ नित नव छंद रचावें ।
 मानिनी नायिका सी खेले आँख मिचौनी
कवि बेचारे रपटते पकड़ें औनी पौनी। । ……… अरविन्द

क्यों खोलूं मैं मंदिर के पट ?

क्यों खोलूं मैं मंदिर के पट ?
श्याम खड़ा निहारे सजनी क्यों करती हो हठ ?
तू भी नाच महा रास है क्यों न छोड़े मान रट ?
उठ गलबहियाँ दे री सखी अधराधर के दो पट।
प्रेम तो कुञ्ज बिहारी करता ,तू न छोड़े कपट।
बहुत प्रतीक्षा श्याम करायी क्यों खोलूं झटपट ?
तड़पी हूँ तुम बिन हे माधो ,अब सहो प्रेम लपट। .......... अरविन्द

सोमवार, 6 जनवरी 2014

सचमुच

दिल जो तेरा मुझे मिल गया होता
सचमुच मैं खुदा ही हो गया होता।
अपना जो मेरा पराया न हुआ होता
चाँद मेरे पहलु में आज सो रहा होता।
कुछ भी नहीं दूर जो मन मिल गया होता
दिल्ली है दूर मुहावरा गलत हो गया होता।
स्वर्ग भी मुझे इतना भी प्यारा न हुआ होता
जो तेरा इक आंसू मेरा माथा चूम गया होता  ।
अक्ल आने पर इश्क़ ने गर दस्तक दी हुई होती
आज इस तरह से अपने हाथ न मल रहा होता। ............. अरविन्द

रविवार, 5 जनवरी 2014

दोहे

दौड़े भागे बहुत सब ,किछु नहीं आया हाथ।
आये थे हरि भजन को ,औटन लगे कपास। .
मन तो धागा सूत का , रखना चहुँ इकसार।
संसारी चरखा मिला ,  उलझ रहा हर  बार।

देख लिया यह जगत सब ,सुन लो मेरे भाय d
बन्दर हाथ माचिस लगी ,अपना आप जलाय। ……… अरविन्द  दोहे 

शनिवार, 4 जनवरी 2014

इस ओर

इस ओर प्रभु की नव्य सृष्टि
उस पार निराधार शून्य  है।
इस पार विविध सौंदर्य रचा ,
उस पार सघन केवल तम है।
इस पार रूप रूपसियाँ  बहु ,
उस पार छिपा केवल भ्रम है।
जीवन का स्वीकार यहाँ पर ,
वहाँ सिर्फ अकर्मण्य मन है।
यहाँ नित नया संघर्ष मिले ,
वहाँ केवल शान्त  शमन है।
यहाँ तो कर्ता कण -कण में
क्यों भाग रहा मेरा  मन है ?
सत्य यहाँ ,शिव सुंदर यहाँ
वहाँ न मिलता कोई तन है।
यहाँ द्वैत की इच्छा पलती
सुना , वहाँ अद्वैत निर्मम है। .......... अरविन्द


भारतीय राजनीतिक परिदृश्य

भारतीय लोकतंत्र अभी पूर्णतया भिन्न -भिन्न दलों की नीतियों पर आधारित है ,जिसमें सामान्य जनता का योगदान केवल चुनाव में वोट देने तक ही सीमित है। मुद्दों पर आधारित राजनीति अभी आरम्भ ही हुई है। अभी तक लोकतंत्र मुफ्त राशन देने ,आरक्षण आदि सुविधाओं के द्वारा ही संचालित था। आम आदमी पार्टी ने इस लोकतंत्र को जनता के साथ जोड़ा तो है ,परन्तु जनता के विश्वास की रक्षा कर पाएंगे --उत्तर अभी भविष्य के गर्भ में है। मैं भाजपा का समर्थक रहा हूँ ,कारण वैचारिक है। कांग्रेस ,आरम्भ से ही  नीति से अपना बहुमत स्थापित करती रही है। मेरा अपना मानना है आजादी की लड़ाई में लोगों की सहानुभूति ही कांग्रेस की सफलता का कारण रहीं। हमने अपने बचपन से जनसंघ और राष्ट्रीय स्वयं सेवक की गतिविधियों और चिंतन को देखा है ,वैसा चिंतन कांग्रेस में आज तक नहीं देख पाये। वर्तमान पीढ़ी न तो हेडगेवार को पढ़ पा रही ,न गोलवरकर को समझाने वाले ही शेष बचे हैं श्यामाप्रसाद मुखर्जी को तो समझने का कोई प्रयास ही नहीं हो रहा। अब शाखाओं के प्रति भी कोई निष्ठां दिखाई नहीं दे रही। परिणाम यह है कि राष्ट्रीय चिंतन और अवधारणा कहीं रुद्ध हो चुकी है। विशेष कर पंजाब में तो भाजपा अकाली दल के सेवा में ही संलग्न है। अगर भाजपा आज से पांच वर्ष पहले मुद्दों की राजनीति को उद्घाटित कर देती तो दिल्ली के चुनाव में आज यह स्थिति न होती।
बड़ी मुश्किल से देश में दो पार्टियां उभरीं हैं ---परन्तु क्षेत्रीय दलों के साथ गठबंधन इन्हें राष्ट्रिय मुद्दों से परे ले जा रहा है। बसपा। मुलायम ,जनता दल और दक्षिण के दलों ने भाजपा की अदूरदर्शिता का लाभ उठाया है। दिल्ली में भी ,मेरे विचार में भाजपा अपनी भावुकता जन्य दृष्टिहीनता की शिकार हुई है। राजनीति में शुचिता होनी चाहिए ,तो क्यों नहीं इस पार्टी ने आप के साथ विचारविमर्श किया ?कूटनीति में असफलता इन्हें बहुत दूर ले जा चुकी है।  हमें लगता था कि अन्ना आंदोलन के दिनों में यह पार्टी अपनी नीतियों से उस आंदोलन का लाभ उठा सकती थी। दिल्ली में कांग्रेस ने बहुत चतुराई से सत्ता को हथिया लिया है।
भाजपा को समझना चाहिए कि आम आदमी पार्टी केवल विरोध और सहानुभूति के कारण ही जीत पायी है क्योंकि जनता भाजपा की अकर्मण्यता और अतिरिक्त आत्मविश्वास ही राजनीतिक नुकसान का कारण प्रतीत होता है। 
यह सही है कि प्रजातंत्र में संख्या बल बहुत जरुरी है ,परन्तु मुद्दाबल भी जरुरी है इसे समझना भी जरुरी है।
भाजपा को जगाना चाहिए क्योंकि कांग्रेस ने बाबा रामदेव को लुभाना शुरू कर दिया है। भारतीय जनसँख्या में अब युवा संख्या ज्यादा है ,वह चाहे स्त्रियां हों या युवक ,इन्होंने अपने अपने भविष्य को भी निर्धारित करना है और सामान्य जनता ने अपने लाभ भी देखने हैं जो केवल महगाई और भ्रष्टाचार से ही जुड़े हुए हैं।
कांग्रेस भाजपा को हारने के लिए आम आदमी पार्टी के कवच को धारण कर सकती है। इसलिए भाजपा को प्रांतीय आधार प् भी विश्लेषणात्मक होना चाहिए और पारम्परिक कार्यकर्ताओं की भी परीक्षा करनी चाहिए ,क्योंकि वहाँ निरीक्षण बहुत जरुरी है। …………अरविन्द 

शुक्रवार, 3 जनवरी 2014

देखूं बाट तुम्हारी

मैं बुलाऊँ कविता में तुझे प्यारे
उड़ कर आओ, दौड़े आओ घर हमारे
द्वार खड़ी मैं पंथ निहारूं ,देखूं बाट तुम्हारी
अब तो आओ सजन प्यारे ,मैं हारी ,मैं हारी।
नित नित दीपक बालुं मैं चौखट पर धर कर
नित नित छत पर चढ़ी निहारूं आँखें मैं भर भर कर
तू निर्मोही ,पाहन रखे क्यों तू अपने हिय पर
मेरे मन फागुन उतरा है ,तू समझे नहीं दुष्कर
उमर हमारी बीत रही है हे मेरे प्रियवर
अब आ जा तू द्वारे मेरे क्यों तड़पावे जी भर। ....... अरविन्द

इश्क़ का दीया जलाओ

इश्क़ का दीया जलाओ ,मिटे अँधेरा यह
प्रेम की महफ़िल सजाओ मिटे अँधेरा यह।
दर्द को अब मत छिपाओ ,मिटे अँधेरा यह
यार को भीतर बुलाओ ,मिटे अँधेरा यह। ,
देह के भीतर छिपा जो   उसे जगाओ
जगती के संताप को अब ठोकर  लगाओ
गीत का संगीत अब अपना  रचो ,गाओ  
दूसरों के शब्द छोड़ो उन्हें न अब सुनाओ
मेरे मन के मीत प्रियतम  मान ही जाओ 
अशब्द शब्द नाद का संगीत  गुनगुनाओ
छटेगा तब अँधेरा यह ,मिटे तब अँधेरा यह
बाहर आओ प्रफुल्लित धूप ,प्रकाश फैला है
ज्योति का यह पहरुआ सूरज निराला है
पंथ सारे प्रशस्त हैं  खुलेंगे ,मुस्कुराएंगे
स्वागतातुर लक्ष्य सारे मिलते ही जायेंगे
उल्लास को कुछ तो बुलाओ ,मिटे अँधेरा यह
इश्क का दीया जलाओ ,मिटे अँधेरा यह। …………अरविन्द












 

गुरुवार, 2 जनवरी 2014

मौन !

मौन !
मौन मुक्ति की भाषा , आत्म का उद्गाता है .
मौन सत्य सौंदर्य विभूषित मौन तत्व त्राता है।
ज्ञान उतरता मौन तत्व में साक्षात्कार प्रदाता है।
प्रेमी में ही मौन सम्भव है मौन सर्व सुख दाता है।
मौन नहीं रह पाता जो, खाली बर्तन कहलाता है।
प्रभु उतरता परम मौन में ध्यान मौन रत राता है।
मौन मुनि का पथ प्रशस्ता,मौन रहस्य प्रकटाता है।
गुरु की कृपा ,प्रेम प्रभु का ,तभी मौन मिल पाता है।.………अरविन्द  

बुधवार, 1 जनवरी 2014

मेरा सजन बड़ा हठीला है।

मेरा सजन बड़ा हठीला है।
अमृत घट को खोल खोल
प्रेमासव को तोल -तोल
कुछ कसक कसैली मदिर घोल
मांगता मुझसे मधु मीरा है।
मेरा सजन बड़ा हठीला है।
अमानिशा में सुख भरता
अद्वय में द्वय को हरता
आत्म अंतर में लय करता
रिक्त गात मधु पूरित करता
मधु रसिक बड़ा रंगीला है।
मेरा सजन बड़ा हठीला है।
तृष्णाओं का जगद्जाल
पंचभूत मिथ्या  जंजाल
मेरे तेरे की  मृषा माल
आगत सुगत या विगत काल
त्रय ग्रंथि मुक्ति का हीला है।
मेरा सजन बड़ा हठीला है। ………… अरविन्द