भाषा की राजनीति : आवारा चिन्तन
आजकल
दिल्ली एक नयी प्रकार से राजनीति की प्रयोगशाला बनी हुई है। कोंग्रेस ,बी
जे पी ,मोदी तथा आम आदमी पार्टी ,अरविन्द केजरीवाल सब भारतीय राजनीति को
समझने समझाने में लगे हैं। कसौटी पर राजनीतिक शालीनता है। आजकल जिस भाषा के
वक्तव्य ,मीडिया द्वारा प्रकट किये जा रहे हैं ,उनमें कहीं सब शिष्टाचार
का आभाव देखते हैं। मैं व्यक्तिगत रूप से केजरीवाल को शुद्ध राजनीतिज्ञ
नहीं मानता हूँ ,पर राजनीति को सामान्य जन से जोड़ने का एक जन -निष्ठ
प्रजातंत्र का उपकरण मानता हूँ। कारण है कि इससे पूर्व के राजनीतिक दल जनता
से विमुख हो चुके थे ,वे अपनी जड़ों से टूट चुके लगते रहे हैं। केंद्र की
राजनीति में अवसरवादी दल ,जैसे कभी मुलायम ,कभी लालू ,कभी ममता ,कभी माया
आदि प्रादेशिक क्षीण और अल्प दर्शी नेताओं का सहयोग उनकी जरूरतों की पूर्ति
का माध्यम रहा। इन लोगों की पिछले कुछ वर्षों से ,अगर आकलन किया जाये तो
,देश की राजनीतिक सम्पन्नता को कोई देन अथवा योगदान नहीं दिखाई देता। इन
दलों और छुटभैये नेताओं ने सत्ता सुख भोगने वाले दलों के सत्व का दोहन
किया। कांग्रेस सदा से अवसरवादिता को प्रश्रय देती रही है। बी जे पी को भी
इन्हीं के कारण नुक्सान उठाना पड़ा ,इन नेताओं के हितों का सरंक्षण करने के
कारण यह दल अपनी मूल विचारधारा से दूर हटा। आज मोदी की वैचारिक निष्ठां के
कारण कुछ आशा जगी ,तो भी राजनीति का भाषिक तंत्र रास्ता रोक का खड़ा है। जो
वक्तव्य हम लोग सुन रहे हैं ,लगता है कि बी जे पी अभी भी इस रूकावट की ओर
ध्यान नहीं दे रही है। बुधवार, 22 जनवरी 2014
भाषा की राजनीति : आवारा चिन्तन
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