भक्ति और प्रेम पर्यायवाची हैं। संसार में प्रेम को श्रृंगारिकता की
दृष्टि से और भक्ति को कर्मकांड की दृष्टि से देखा जाता है। प्रेम करने के
लिए द्वैत की आवश्यकता है ,परमात्मा द्वैत में लिप्त होकर भी विलुप्त रहता
है। न कुछ कहता है , न सुनता है ,न सुनाता है ,न मानता है ,न मनाता है
--केवल एकटक निहारता रहता होगा ---यह भी सुना ही है। तो प्रेम की परिणति
कैसे होगी ?सांसारिक प्रेम में देह की महत्वपूर्ण भूमिका है ,परन्तु वहाँ
आसक्तियाँ ही प्रेम का रूप ले लेती हैं ,जबकि अधिकतर ज्ञानी आसक्तियों को
गर्हित मानते हैं। आसक्ति में रस है और परमात्मा के लिए भी आप कहते हैं रसो
वै स :----तो आसक्ति को छोड़ने की क्या जरुरत है ?गुरु से प्रेम करते हैं
,तो गुरु कहीं अन्य के ध्यान में निरत है। किसी स्त्री या पुरुष से प्रेम
करते हैं तो दुश्वारियाँ बहुत हैं। समस्या बहुत है। मन की निर्मलता कहीं
मिलती ही नहीं। कहीं हम सब मृगतृष्णा के पीछे ही तो नहीं भाग रहे क्या ?
परम ज्ञानी ,प्रज्ञासंपन्न अगर यहाँ हों तो ---अवश्य
दिशाबोध देंगे। करणीय सूचित करेंगे। हम उनकी उदारता के साक्षी होना चाहते
हैं। ध्यान दे कि कहीं हम सब आध्यात्मिकता या भक्ति के नाम पर मूर्ख तो
नहीं बन रहे । जो दुकानदार अधिक संख्या में मूर्खों को आकर्षित कर सकता है
वह लाभ कमाता है ,मूर्ख लूटे जाते हैं। यही तो नहीं कहीं हो रहा। ............. अरविन्द
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