भारतीय लोकतंत्र अभी पूर्णतया भिन्न -भिन्न दलों
की नीतियों पर आधारित है ,जिसमें सामान्य जनता का योगदान केवल चुनाव में
वोट देने तक ही सीमित है। मुद्दों पर आधारित राजनीति अभी आरम्भ ही हुई है।
अभी तक लोकतंत्र मुफ्त राशन देने ,आरक्षण आदि सुविधाओं के द्वारा ही
संचालित था। आम आदमी पार्टी ने इस लोकतंत्र को जनता के साथ जोड़ा तो है
,परन्तु जनता के विश्वास की रक्षा कर पाएंगे --उत्तर अभी भविष्य के गर्भ
में है। मैं भाजपा का समर्थक रहा हूँ ,कारण वैचारिक है। कांग्रेस ,आरम्भ से
ही नीति से अपना बहुमत स्थापित करती रही है। मेरा अपना मानना है आजादी की
लड़ाई में लोगों की सहानुभूति ही कांग्रेस की सफलता का कारण रहीं। हमने
अपने बचपन से जनसंघ और राष्ट्रीय स्वयं सेवक की गतिविधियों और चिंतन को
देखा है ,वैसा चिंतन कांग्रेस में आज तक नहीं देख पाये। वर्तमान पीढ़ी न तो
हेडगेवार को पढ़ पा रही ,न गोलवरकर को समझाने वाले ही शेष बचे हैं
श्यामाप्रसाद मुखर्जी को तो समझने का कोई प्रयास ही नहीं हो रहा। अब शाखाओं
के प्रति भी कोई निष्ठां दिखाई नहीं दे रही। परिणाम यह है कि राष्ट्रीय
चिंतन और अवधारणा कहीं रुद्ध हो चुकी है। विशेष कर पंजाब में तो भाजपा
अकाली दल के सेवा में ही संलग्न है। अगर भाजपा आज से पांच वर्ष पहले
मुद्दों की राजनीति को उद्घाटित कर देती तो दिल्ली के चुनाव में आज यह
स्थिति न होती।
बड़ी मुश्किल से देश में दो पार्टियां उभरीं हैं
---परन्तु क्षेत्रीय दलों के साथ गठबंधन इन्हें राष्ट्रिय मुद्दों से परे
ले जा रहा है। बसपा। मुलायम ,जनता दल और दक्षिण के दलों ने भाजपा की
अदूरदर्शिता का लाभ उठाया है। दिल्ली में भी ,मेरे विचार में भाजपा अपनी
भावुकता जन्य दृष्टिहीनता की शिकार हुई है। राजनीति में शुचिता होनी चाहिए
,तो क्यों नहीं इस पार्टी ने आप के साथ विचारविमर्श किया ?कूटनीति में
असफलता इन्हें बहुत दूर ले जा चुकी है। हमें लगता था कि अन्ना आंदोलन के
दिनों में यह पार्टी अपनी नीतियों से उस आंदोलन का लाभ उठा सकती थी। दिल्ली
में कांग्रेस ने बहुत चतुराई से सत्ता को हथिया लिया है। शनिवार, 4 जनवरी 2014
भारतीय राजनीतिक परिदृश्य
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