बुधवार, 15 जनवरी 2014

.अरविन्द दोहे

बीते नाहि विभावरी ,मिले न पिय का गाँव।
आकाश नहीं है लीलता पीव मिले किस ठाँव।
रात अँधेरी ऐसी  मिली ,घर में दीपक नाहि ,
ठाँव ठाँव पुकारता ,कोई दीपक दीजो माहि। .
हम वैरागी रात दिन ,उड़ते  रहते आकाश ,
पर मन प्रभु के राग रत सहेजा हम वैराग ।
छोड़ी धूनी की राख यह ,छोडा ध्यान म्यान
अब तो प्रियतम पंथ ही ढूँढ रहा दिन रैन।
विचरा हूँ जग डगर पर , जान नहीं पहचान ,
मूरत हृदय में है बसी ,लूंगा झट पहचान।
अजब संत का रंग यह ,अजब संत का नेह ,
गेह ही विपिन सम हुआ क्या श्रृंगार या खेह। .............अरविन्द दोहे

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