मंगलवार, 21 जनवरी 2014

अरविन्द दोहे

अरविन्द दोहे
परमतत्व अन्तस्थ है ,भीतर दीखे नाहिं
निर्मल कर निज मन आत्मा परमतत्व दरसहिं।
भयभीत चित्त न पा सके ,ज्ञान ध्यान अरु भक्ति
प्रेम न स्वयं को ककर सके ,झूठी सब अनुरक्ति।
जीव जगत और ब्रह्म सब ,भिन्न भिन्न है बात।
जगत जीव को पीसता ,ब्रह्म बैठा मुस्कात।
प्रेयसी की मुस्कान तो ,सब दु:खों की खान।
मूरख मानुष जा फंसे ,यह अज्ञान पहचान।
सुंदर छरहरी लाये थे ,थुलथुल हो गयी देह।
सदा एक सी न रह सके ,पत्नी मायावी एह।
खाया पीया सो लिया, सलाम किये सब काम .
रो धो कर जीवन जी लिया ,अंत ठुस्स हुए राम। …………अरविन्द

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