शुक्रवार, 31 जनवरी 2014

आवारा चिन्तन

आवारा चिन्तन
हम सब बहुत जल्दी संतुष्ट हो जाते हैं ,जबकि सत्य के अन्वेषक के जीवन में संतोष एक दुर्गुण है। इसी प्रकार धारणा की निर्मिति में भी हम शीघ्रता करते हैं। जो हमारे कानों को मधुर लगता है या हमारे चैतिक गणित में ठीक बैठ जाता है ,हम उसे ही सत्य मान लेते हैं। जैसे दो और दो चार --यह गणित की गणना है न कि जीवन की। जीवन गणित नहीं बल्कि अनेक इच्छाओं ,कामनाओं ,भावनाओं ,विचारणाओं ,संकलपनाओं और संग्रथित संचेतनाओं का पुंज है। हम अपने लिए और अपने ही परिवेश से सम्बद्ध प्रश्नों से सदा ही आक्रान्त रहते है और उन प्रशनों के उत्तर, स्वयं तलाशने के स्थान पर, किसी अन्य व्यक्ति के पास जा कर समाधान चाहते हैं। प्रश्न हमारे ,संघर्ष हमारे ,परिवेश हमारा ,तो उत्तर दूसरे से क्यों ?मुझे लगता है कि हम कहीं आलसी हैं और जानबूझ कर स्वयं परिश्रम नहीं करना चाहते। हमारे पास ऐसी कौन सी कसौटी है कि जिस पर हम , जिस दूसरे से अपने उत्तर चाहते हैं,उसके उत्तरों को हम परखें ? हम नहीं परखते और सत्य से दूर हो जाते हैं। क्योंकि सत्य को साक्षात् करने कि केवल एक ही कसौटी है ---स्वयं का प्रयास ,स्वयं का अर्जित ज्ञान।
जिस प्रकार प्रत्येक व्यक्ति दूसरे से भिन्न है ,प्रत्येक मन की अपनी भिन्न परिकल्पना है उसी प्रकार प्रत्येक व्यक्ति के लिए ज्ञान और सत्य उपलब्धि का मार्ग भी भिन्न ही हो सकता है। पीपल नीम के पास या साथ-- संसर्ग में रह कर भी नीम नहीं हो सकता। यह प्राकृतिक और नैसर्गिक सत्य है। सत्य प्राप्ति के मार्ग के हम सब सहयात्री तो हैं, परन्तु मार्ग भिन्न है और व्यक्ति -मानसिकता के भीतर है ---ऐसा मेरा विचार है। कारण है --सुदामा भी एक ही हुआ ,अन्य कोई सुदामा के मार्ग पर नहीं चल पाया। अजामिल भी एक ही था। मीरा जैसा भी कोई अन्य न हो पाया। रामानंद ने कइयों को राम नाम दिया होगा ,पर सभी कबीर नहीं हो पाये। तो अर्थ यही है कि हमें सत्य या परमात्म प्राप्ति के लिए अपना मार्ग स्वयं निश्चित करना होगा।इसके लिए हमें अपने स्वभाव के प्रति जागरूक होना आवश्यक है। ....... अरविन्द

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