शुक्रवार, 30 नवंबर 2012

प्रभु अब तो कृपा करो मेरे नाथ !
माया संग बेहद नाचा हूँ कछु नहीं आया हाथ .
योग क्षेम सब तेरे हाथों तव चरणों पर माथ .
भव सागर में डूब उतरता अस्थिर है सब साथ .
न अपना न किछु पराया अग  जग नाहीं भात .
सुत वित नारी कर्म अकर्म कछु  नाहीं  सुहात .
कहे अरविन्द अब किरपा कीजो देवो अपना हाथ
पांच पुतरिया अहंकार छोड़ा तव चरनन पर नाथ ....

गुरुवार, 29 नवंबर 2012

ज्योतिदीप जगाएं

सम्बन्धों की समीक्षा करें .

प्याज के छिलके उतारें
 कटे तरबूज की फांक में से
काले काले बीज निकालें .
घुटनों से फट गए पाजामे पर
पुरानी टाकी जडें .
या केले के पत्ते पर थिरकती
औस की चमकती बूंद पर चुंधिया रही
आंखें मिचमिचा एँ .

नहीं !
हथेली पर उगी सरसों महसूसें ..मुस्कुराएँ .
अंजलि में समाई कमल सी पंखडियो की ऊँगलिया
माथे से लगाएं .
अंधेरे से खौफ न खाएँ
बुझ रहे मन के गुमसुम कोने में
ज्योतिदीप जगाएं .

आत्मीयता को बाज़ार न बनाएँ ........अरविन्द

फिर से सुनाऊं

आओ !
 तुम्हें वह गीत फिर से सुनाऊं
जो हमने आकाश की ऊँचाइयों पर
 उडते हुए गाया था .
जहाँ नतानना
मैं मुस्कुराया था
और प्रभु तुमने ठहाका लगाया था .
आओ !तुम्हें वह गीत फिर से सुनाऊं .

चलोगे ,तुम्हें अन्तर्नदी की
गहराइ  ओं में ले जाऊं
जहाँ दिग्वसना हम
अस्मिता डुबो आये थे .
प्रभु !तुम्हें पुकारता हूँ तो
अमराई में कोयल कूक जाती है
केकी के सतरंगी पंख लहराते हैं .
मन मयूर नाचने लगता है
और तुम मौन मुस्कुराते हो .
तुम्हारा मौन मुझे झकझोर जाता है
मैं तुम्हें अशब्द शब्दों में पुकारता रहता हूँ ......अरविन्द

बुधवार, 28 नवंबर 2012

उस को

हमने  जब भी अपने उस को आजमाया है
अपनों से ज्यादा उसे अपना सगा  पाया है।

जिन्दगी कभी फागुन कभी सावन हुई
जब भी उसने अपना आँचल लहराया है।


पथरीले रास्तों पर जब भी डगमगाया हूँ
उसकी गोद का तकिया बहुत याद आया है। ..


संसार न अपना था न अपना कभी हो सकता है
मांस के पुतलों ने जी भरकर मुझे  भरमाया है।

थक हार कर जब भी एकांतिक बैठता हूँ
मेरा अपना मेरे भीतर खूब मुस्कुराया  है। . ..अरविन्द

बुधवार, 14 नवंबर 2012

लुटाने पर आयँ तो लुटा दें

लुटाने पर आयँ तो लुटा दें हम अपनी बादशाहत भी
चाँद और तारों की क्या बिसात की हमारा कहना न मानें .

मंगलवार, 13 नवंबर 2012

ज्योतिपर्व

आज दीपावली है , ज्योतिपर्व है ,आलोक उत्सव है ,प्रकाश -उपासना का अर्चन ,पूजन ,वन्दन है . कार्तिक मॉस क़ी अमानिशा में ,जब हाथ को हाथ ना सूझता हो,दिशाओं को जानना  दुष्कर हो --उस घने अन्धकार में किसे प्रकाश पर्व मनाने की सूझी होगी --सत्य और तथ्य अज्ञात हैं .जय -पराजय की रक्त -रंजित कथाओं को रस लेकर सुनाने वाला इतिहासकार भी चुप है .पता नहीं कितने ऐसे मानवीय कल्याण के प्रयास ,जानबूझ कर प्रकट नहीं किये गये ...हमारा इतिहास एकांगी है ,जातिओं के गौरव हीन अहंकार की अपूजनीय घटनाओं से परिपूरण है .इतिहास में उस आदमी के सत्प्रयास को संकलित नहीं किया गया --जिसने मानवीय पथ को आलोकित किया .
मानवीय प्रज्ञा का यह प्रकाश उत्सव अन्धकार के विरुद्ध मानव का देदीप्यमान संघर्ष  पर्व है हिन्दू संस्कृति का लोककल्याण कारी मानवीय यज्ञ है .राम -कथा भी इस प्रकाश पर्व से जुडने का लोभ संवरण नहीं कर पाई ,क्योंकि राम भी मानुषी सभ्यता पर आच्छादित घनीभूत आतंक और निराशा के विरुद्ध प्रथम मानवीय संघर्ष के प्रथम महामानव हैं ...भगवत्ता को अर्जित करने के लिए अन्धकार के विरुद्ध खड़े होना मानव का प्रथम प्रयास होना चाहिए --यही राम कहना चाहते हैं ...
.इसी प्रकार उस व्यक्ति का भी पता नहीं चलता जिसने इस प्रकाशित पर्व में पटाखे फोड़े ,प्रदूषण को फैलाने का व्यूह रचा .परिणामतः आज सभी संस्थाएँ इस कलुष को धोने में असमर्थ हैं ...ना कोई संत ,ना कोई नेता ,ना समाजसुधारक ,ना शिक्षा ..कोई भी इस प्रकाश पर्व पर छाए धुऐं को नहीं धो रहा है .....धुआं हमारी ज्योति का भक्षण न कर पाए हमें सोचना होगा .....अरविन्द
...

सोमवार, 12 नवंबर 2012

बुल्ले शाह की एक काफ्फी

मित्रो ! आज बुल्ले शाह की  एक काफ्फी पढे --
इल्मों बस करीं ओ यार !
इल्म ना आवे बिच शुमार ,इक्को अलफ़ तेरे दरकार .
जांदी उमर नहीं इतबार ,इल्मों बस करीं ओ यार .


पढ़ पढ़ लगावें ढेर ,कुरान किताबां चार चुफेर .
गिरदे चानन बिच अनेर ,बाझों रहबर खबर ना सार .

पढ़ पढ़ शेख़ मशाइख होया ,भर भर पेट नींदर भर सोया .
जांदी बार नयन भर रोया ,डुबा बिच उरार ना पार .

पढ़ पढ़ इल्म होया  बोराना बे इल्मां  नू लुट लुट खाना
इह की कीता यार बहाना , करैं नहीं कदी इनकार

पढ़ पढ़ मुल्लां होय काजी अल्लाह  इल्मां बाझों राज़ी
होवे हिरस दिनों दिन ताज़ी ,नफ़ा नीअत  बिच गुजार .

बुल्ला ना राफ़्जी है ना सुन्नी ,आलम फ़ाज़ल ना आलम जुंनी .
इक्को पड़िया इल्म लदुनी , वाहिद अलिफ़ मीम दरकार .