गुरुवार, 29 नवंबर 2012

फिर से सुनाऊं

आओ !
 तुम्हें वह गीत फिर से सुनाऊं
जो हमने आकाश की ऊँचाइयों पर
 उडते हुए गाया था .
जहाँ नतानना
मैं मुस्कुराया था
और प्रभु तुमने ठहाका लगाया था .
आओ !तुम्हें वह गीत फिर से सुनाऊं .

चलोगे ,तुम्हें अन्तर्नदी की
गहराइ  ओं में ले जाऊं
जहाँ दिग्वसना हम
अस्मिता डुबो आये थे .
प्रभु !तुम्हें पुकारता हूँ तो
अमराई में कोयल कूक जाती है
केकी के सतरंगी पंख लहराते हैं .
मन मयूर नाचने लगता है
और तुम मौन मुस्कुराते हो .
तुम्हारा मौन मुझे झकझोर जाता है
मैं तुम्हें अशब्द शब्दों में पुकारता रहता हूँ ......अरविन्द

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