हमने जब भी अपने उस को आजमाया है
अपनों से ज्यादा उसे अपना सगा पाया है।
जिन्दगी कभी फागुन कभी सावन हुई
जब भी उसने अपना आँचल लहराया है।
पथरीले रास्तों पर जब भी डगमगाया हूँ
उसकी गोद का तकिया बहुत याद आया है। ..
संसार न अपना था न अपना कभी हो सकता है
मांस के पुतलों ने जी भरकर मुझे भरमाया है।
थक हार कर जब भी एकांतिक बैठता हूँ
मेरा अपना मेरे भीतर खूब मुस्कुराया है। . ..अरविन्द
अपनों से ज्यादा उसे अपना सगा पाया है।
जिन्दगी कभी फागुन कभी सावन हुई
जब भी उसने अपना आँचल लहराया है।
पथरीले रास्तों पर जब भी डगमगाया हूँ
उसकी गोद का तकिया बहुत याद आया है। ..
संसार न अपना था न अपना कभी हो सकता है
मांस के पुतलों ने जी भरकर मुझे भरमाया है।
थक हार कर जब भी एकांतिक बैठता हूँ
मेरा अपना मेरे भीतर खूब मुस्कुराया है। . ..अरविन्द
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