बुधवार, 25 फ़रवरी 2015

खुदा झलकता है

अधमुंदी आँखों से ऐसे मत देखा करो
मेरे पास सभी प्रश्नों के उत्तर नहीं हैं।
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क्यों निहारते हो हमें ऐसी सतरंगी आँखों से
रोयाँ रोयाँ देह का दीये सा जगमगाने लगता है।
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कुछ है कि उनकी आँख में खुदा झलकता है
आदमियों की आँखें इतनी उदार नहीं होतीं। …………अरविन्द

मंगलवार, 24 फ़रवरी 2015

बीती हुई बातें

यादों में उमड़ घुमड़ आती हैं बीती हुई बातें
जीना ही मुश्किल कर देती हैं बीती हुई बातें
मन में भटक भटक आती हैं बीती हुई बातें
नींद उड़ा कर ले जाती हैं अब बीती हुई बातें
बीती हुई बातों में आ जाती है याद तुम्हारी
जैसे पुरवा में आ जाती सुगन्धित सी लहरी
फूलों की पत्तियों से लरजते से रक्ताभ होँठ
भटकती हुई उँगलियाँ मचातीं देह पर धौंस।
उमड़ता हुआ बादल पिघल जाता शिखरों पर
छन छन छनकता संगीत युगनद्ध बाहों पर।
ख्यालों में जग जातीं हैं वे रस रास की बातें
यादों में उमड़ घुमड़ आती हैं बीती हुई बातें।.......... अरविन्द
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गुरुवार, 12 फ़रवरी 2015

आओ तुम्हारे रतनारे

आओ तुम्हारे रतनारे
स्कन्धों पर
झूलती लटों को
फूंक मार कर हटा दूँ।

जब भी मैं इन कन्धों पर
थका हारा आ
सिर टिकाता हूँ --
तुम्हारे कुंतल
मेरे कानों के पास गुदगुदी करते हैं।

सुनो !
जब भी तुम
गर्दन हिलाते हुए ,
अंतरंगता से भर
मेरे माथे से अपना माथा लगा
धीरे से बुदबुदाती हो --
तुम्हारी माँग का कुंकुम
मेरे माथे पर चमकने लगता है ;
लोग पूछते हैं
कि मैं भक्त क्यों हो रहा हूँ ?

मैं कह नहीं पाता
मौन , एकांतिक प्रणय भी
अपने चरण -चिह्न छोड़ जाता है। …………अरविन्द

अबूझ वाणी में


अबूझ वाणी में
मैं बोलूं जानबूझ कर
समझ लेगा मेरा प्यारा
मैंने दुनिया कर दी किनारे पर।

मिलन हो देह का , मन का
मिलन हो आत्मा का भी ;
इसीलिए कह दिया अकहा सब कुछ
कह न पायी भाषा जिसे टुक रत्ती भर।

वह मेरा है बड़ा प्यारा
सुनता है अबोल बोली को
न उसे खेचरी भाती
न भाती अपरा ही उसको ।

परा के सौंदर्य को चाहे
पश्यन्ति से प्रेम है करता ।
परा ही मौन सोहम् है
परा ही हंस की भर्ता ।

तू चिंता छोड़ अपर, पर की
परा में लिप्त पश्यन्ति
खेचरी आसक्त आसक्ति
नहीं यह भेद कह सकती।

पश्यन्ति प्रांगण परा का है
इसी में खेलती विद्या भूति
अनुरक्त अनुरक्ति अनासक्ति
यही प्रिय प्रेम की भक्ति ।......अरविन्द

जी चाहता है

जी चाहता है
इन्द्रधनुष जब खिले
और मैं बच्चा हो फिर नाचूं।
खिले हुए
बहुरंगी रंग में
गिरती बूंदों की छम छम में
भीगूँ ,खुल कर भागूं।

गली मुहल्ले के
छप्पड़ में
खुल कर पंक उछालूँ ।
गंदे पानी में लथपथ हो
माँ की चढ़ी त्यौरी संग मैं
अपनी पीठ खुजा लूँ।

बड़े हुए बड़प्पन पाया
कितना कुछ खो डाला।
निर्मलता उडी परी सी ,
अहंकार घर डाला।
ईर्ष्या , द्वेष के कीड़े चिपटे
पाखंडी कर डाला।
बचपन क्या छूटा
आनंद कहीं धो डाला।

शुक्र करूँगा , वृद्ध बनूँगा
फिर बचपन जी पाऊँगा।
अपने मन की दबी हसरतें
बूढ़ा हो ,पूरी कर पाऊँगा।

बचपन है प्रभु की संगत
बचपन अभेद आनंद।
बचपन छूटा , छूट गया फिर
चित्त का सच्चिदानन्द। .......... अरविन्द

आ गया वसंत द्वार पर ।

आ गया वसंत द्वार पर ।

नया रक्त नयी कान्ति
नयी ऊष्मा त्यक्त भ्रान्ति
शारदा अंक में आहूत चित्त
निवेदित मन चाहे निर्भ्रान्त ज्ञान शांति।

वसंत उमंग लसित देह
वसंत संग उल्लास गेह
वसंत जीवन वसंत नेह
वसंत शुभ्र आत्म मेह।
ध्वस्त अज्ञान हो तिमिर पाश हर।
आ गया वसन्त मेरे द्वार पर।

प्रणय निरभ्र सुखद वर
प्राण चित्त मन सब अभय कर
उन्मुक्त हों मोह बंध
अज्ञान के तिमिर अंध
निष्काम काम हो निर्बंध
द्वन्दवग्रस्त मनुज अब
ज्योतित आत्म वरण करे-
सर्वांग सत् आनन्द वर।
आ गया वसंत द्वार पर।......अरविन्द

ध्यान में

ध्यान में जब उतरता हूँ--
भूल मैं के मैं को
होने की सीमित सीमा को

फैल जाता है
हृदयाकाश उन्नत
विविधवर्णी प्रभा के
आलोक रंग छिटकता आकाश।

 
पिघलता अहंकार तब।

 
देह का सब भान
लय जो जाता कि जैसे
जल मिले जल में।

 
उछलता कूदता यह मन
जा टिकता त्रिकुटी के भुवन में।

 
शुभ्र आभाजल किरण के
उतरने लगते
अंतस के गगन में।
नाचती वे मूर्तियां
पाषाणवत थिर रहीं जो भुवन में।

 
लघु आकाश में है सिमटता
वृहदाकाश
मोती ज्यों सीप के तन में।

ध्यान में
मैँ नहीं होता
वहां विराट होता है।

ब्रह्माण्ड के किनके
थिरकते क्षीण काय से।

भीतर वहां बस
बृहत् महादाकाश होता है।

लाल,पीली और नीली
नीलिमा में झलकता
सोहं का अवकाश होता है ।.....अरविन्द